रंगशाला—कहानी-देवेन्द्र कुमार
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दादी परेशान हैं। उन्हें नींद नहीं आती। रात में खाँसी परेशान करती है और दिन में फुटबाल नहीं सोने देती। दोपहर में जब वह सोना चाहती हैं तो बच्चे फुटबॉल खेलने लगते हैं। उनका खेल भी अजीब है। वे मैदान में नहीं दीवार पर खेलते हैं। बारी-बारी से फुटबॉल को दीवार पर फेंकते हैं। फुटबॉल दीवार से टकराती है, घुम्म खट् की आवाज होती है। यह आवाज होती रहती है लगातार। दादी को लगता है जैसे फुटबॉल दीवार से नहीं, उनकी आँखों से टकराती है और उनकी नींद भाग जाती है।
दादी का फ्लैट मैदान से सटकर बना हुआ है। जब पहले-पहल दादी फ्लैट में रहने आई थीं तो उन्हें अच्छा लगा था। सर्दियों में जब मैदान में धूप आती तो दादी नीचे उतर आतीं। गर्मियों में हर तरफ से हवा आती थी। दादी सबके सामने अपने फ्लैट की तारीफ करती थीं लेकिन अब नहीं। उन्होंने बच्चों से कई बार कहा कि कहीं और जाकर खेलें, लेकिन कुछ असर नहीं हुआ। थोड़ी देर जरूर खेल बंद रहा, लेकिन फिर उसी तरह चलने लगा।
एक दिन उन्होंने देखा था-- पूरी दीवार पर फुटबॉल टकराने से गोल-गोल निशान बन गए थे। पूरी दीवार पर कुछ दिन पहले ही रंग करवाया था, सब बदरंग हो गया था। मिट्टी के गोल-गोल धब्बों के कारण दीवार देखने में बहुत खराब लगती थी।
लेकिन उपाय क्या था। एक दिन पूरी दोपहरी उन्होंने नीचे धूप में बिताई। हाथ में छड़ी लेकर बेंच पर बैठी रहीं। जैसे कह रही हों, देखूँ तो कौन खेलता है यहाँ। उस दिन बच्चे वहाँ नहीं आए। कहाँ गए किसे मालूम, लेकिन धूप में बैठे-बैठे दादी के सिर में दर्द हो गया। सिर को हाथों में दबाती हुई फ्लैट में चली गईं|
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उनके अंदर जाते ही बच्चे जैसे किसी जादू के जोर से वहाँ प्रकट हो गए। फुटबॉल दीवार पर टकराने का खेल शुरू हो गया।
दादी ने बाबा से शिकायत की तो वह हँसने लगे। बोले, “कानों में रुई लगा लिया करो, फिर कोई परेशानी नहीं होगी। बच्चे कहाँ मानने वाले हैं।”
‘लेकिन दीवार का क्या करें। देखा है, कैसे गोल-गोल निशान छप गए हैं पूरी दीवार पर। सारा रंग खराब हो गया है।‘ दादी ने गुस्से से कहा।
गंदी दीवार बाबा ने भी देखी थी। देखने पर बहुत बुरी लगती थी। बाबा भी सोचते रहे, लेकिन कोई उपाय उनकी समझ में नहीं आया। दिन में वह स्वयं मैदान में बैठे देखते रहे। सचमुच जब फुटबॉल दीवार से टकराती थी तो बहुत आवाज होती थी। बाबा तो दिन में घर में रहते नहीं थे। लेकिन उस दिन लगा पत्नी की शिकायत एकदम सही है। शैतान बच्चों का इलाज करना होगा, लेकिन वह इलाज क्या हो?
उन्होंने घर में आकर दादी से कहा, “मैंने इस समस्या का इलाज सोचा है। तुम दूसरे कमरे में लेटा करो। वहाँ फुटबॉल टकराने की आवाज कम आएगी और जल्दी ही मैं दीवार पर काला रंग करवा दूँगा। काली दीवार पर कोई भी निशान नहीं दिखाई देगा।”
लेकिन दादी किसी भी बात को मानने को तैयार नहीं थीं। उन्होंने कहा, “तुम्हारे कहने का मतलब है मैं बच्चों से हार मान जाऊँ। और हम अपनी दीवार को काली क्यों करवाएँ? नहीं, मैं ऐसा कभी नहीं होने दूँगी।”
“तब फिर फुटबॉल का खेल चलता रहेगा। बच्चों के साथ मारपीट करना तो ठीक नहीं.। मेरी तो अक्ल काम नहीं करती।” बाबा ने हथियार डालने के अंदाज में कह दिया। यानी बाबा ने साफ कह दिया कि फुटबॉल के विरुद्ध अपनी लड़ाई दादी को खुद ही लड़नी होगी।
दादी ने सोचा- अगर एक दो बच्चों की पिटाई कर दें, तो बाकी बच्चे डरकर भाग जाएँगे, लेकिन बच्चों को मारने-पीटने की कल्पना से ही उनके मन में जैसे कुछ होने लगा। वह सोते हुए अतुल के बाल सहलाने लगीं। अतुल उनके बेटे प्रियदर्शन का बेटा यानी उनका पोता है। वह सोच रही थीं, भला बच्चों को कैसे पीटते हैं लोग? कैसे फूल से कोमल होते हैं बच्चे।
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उस रात दादी को खाँसी ने परेशान नहीं किया। लेकिन वह सोई नहीं, सोचती रहीं। सुबह उठते ही उन्होंने बाबा से कहा, “तुम दीवार को रंगवाने की बात कह रहे थे न!”
“हाँ काला रंग मँगवा लेता हूँ। यह ठीक रहेगा।” बाबा ने कहा।
“नहीं, काला नहीं, मुझे सफेद रंग करवाना है- ऐसा सफेद रंग जो दूर से ही चमकता दिखाई दे।”
“सफेद रंग! लेकिन वह तो और भी जल्दी खराब हो जायेगा बच्चों की शरारत से ।” दादी की बात बाबा की समझ में नहीं आ रही थी।लेकिन उन्हें दादी की बात माननी पड़ी| दो मजदूर बुलाए गए। पहले फुटबॉल के गोल निशान मिटाए गए, फिर दीवार पर चमकदार सफेद रंग पोत दिया गया। काम पूरा होने के बाद बाबा ने दादी को बाहर बुलाया और कहा, “अपनी सफेद दीवार को जी भरकर देख लो। कल दोपहर बाद यह ऐसी न रहेगी।”
सूरज पश्चिम में ढल रहा था। दादी सफेद चमकदार दीवार के सामने खड़ी थीं। उन्होंने कहा, “आज कोई बच्चा नहीं आया फुटबॉल लेकर।” फिर हँसने लगी। बाबा हैरान थे कि आज गुस्से की जगह हँसी कैसे आ रही है, तभी दादी ने कहा, “अभी दीवार रंगने का काम पूरा नहीं हुआ है।” और अंदर चली गईं। कुछ देर बाद बाहर आईं तो उनके हाथ में एक थाली थी। थाली दीवार के सामने रखकर कुछ करने लगीं।
बाब ने देखा और देखते रह गए। दादी ने सफेद दीवार पर लाल रंग से फुटबॉल के कई चित्र बना दिए थे। लग रहा था जैसे किसी ने दीवार पर लाल नई फुटबॉलें लटका दी हैं।
“यह क्या है?” बाबा ने पूछा।
“यह है मेरी रंगशाला, फुटबॉल का मैदान।” कहकर दादी हँसने लगीं। अगली दोपहर रोज की तरह बच्चे फुटबॉल लेकर खेलने पहुँचे तो हैरान रह गए। सफेद दीवार पर कई चमचमाती फुटबॉलें नजर आ रही थीं। दादी एक तरफ खड़ी हँस रही थीं। बच्चे फुटबॉल हाथ में लिए कुछ देर सहमे से खड़े रहे। दादी ने पुकारा, “फुटबॉल नहीं खेलोगे?”
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कोई जवाब नहीं आया। दादी ने बढ़कर एक बच्चे के हाथ से फुटबॉल छीन ली और उसे दीवार पर मारने लगीं। सफेद दीवार पर निशान उभरने लगे।
“दादी, दादी, प्लीज ऐसा मत कीजिए।” बच्चे एक साथ कह उठे थे।
“तो फिर फुटबॉल कहाँ खेलोगे?”
“कहीं भी खेलेंगे, लेकिन दीवार पर फ़ुटबाल मारकर नहीं खेलेंगे।” बच्चों का मिला-जुला स्वर उभरा। दादी दीवार के सामने खड़ी हो गईं।
“बच्चो, यह तुम्हारी रंगशाला है। मुझे तो चित्र बनाने आते नहीं, मैंने तो बस यूँ ही फुटबॉल के चित्र बना दिए हैं। तुम सब तो स्कूल में ड्राइंग करते हो। यहाँ भी कुछ बनाओ न!”
थोड़ी देर बाद बच्चे एक कतार में हाथों में रंग लिए दीवार के सामने खड़े थे। उनके हाथ चल रहे थे। बच्चे अँधेरा होने तक सफेद दीवर पर चित्रकारी करते रहे।
सुबह अद्भभुत दृश्य था। सफेद दीवार पर छोटे-बड़े चित्र बने दिखाई दे रहे थे। उस दोपहर को दादी ने देखा-बच्चों की टोली फिर चित्र बनाने में जुटी थी।
दादी बालकानी में खड़ी देख रही थीं। उन्होंने कहा, “आज फुटबॉल की याद नहीं आई?” और एक नई फुटबॉल बच्चों की तरफ उछाल दी। बच्चे फुटबॉल खेलने लगे, लेकिन आज फुटबॉल मैदान में जमीन के ऊपर पैरों से खेली जा रही थी। धूप में सफेद दीवार पर बने चित्र अनेक रंगों की छटा बिखेर रहे थे।(समाप्त)