अपने साथ
-देवेन्द्र
कुमार
आत्म कथा – 11
दसवीं
क़िस्त – (पृष्ठ 126 से 140) तक अब आगे
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मोहन वाले घर में मुझे श्यामा एक आदमी
के साथ मिली. यह वही था जिसके साथ मोहन और उसकी माँ गली में जाते दिखाई दिए
थे.क्या वह मोहन की माँ को छोड़ कर श्यामा के साथ रहने लगा था! श्यामा ने मुझे कुछ
रुपये दिए मोहन की माँ को देने के लिए.पता चला वे दोनों बचपन की सखियाँ थीं.पर
मैंने रुपये भगवान् की गुल्लक में रखने का फैसला किया.मैं मोहन से बहुत नाराज
था.नानी ने मुझे पकड़ लिया. वह मेरे साथ मोहन की माँ को पैसे देने गईं. पर वे दोनों
नहीं मिले.नानी के कहने पर मैं श्यामा को पैसे लौटाने गया,पर उसने पैसे फेंक दिए , वह रो रही थी.यह कैसी पहेली थी?
मैं बंद दरवाजे के बाहर खड़ा था। पैरों
के पास नोट बिखरे थे। अंदर फिर से रोने की आवाज आने लगी थी। वह रोते-रोते कुछ बोल
भी रही थी, जो समझ में नहीं आ रहा था। अंदर वह
अकेली थी तो वह आदमी कहां गया?
नोट बिखरे छोड़कर मैं सीढि़यां चढ़कर
छत पर वापस आ गया। आंखें फिर से मोहन नगर वाले कोने में जा टिकीं। एक ही उछाल में
मुंडेर फांदकर मैं अपनी तरफ चला आया।
‘‘दे आया। कुछ कह तो नहीं रही थी।’’ नानी मुझे देखते ही बोलीं।
‘‘दिए थे, पर लेकर उन्होंने फेंक दिए।’’ मैंने कहा। ‘‘पता नहीं क्यों?’’ मैं नानी को बताने लगा कि श्यामा रो रही थी।
‘‘पता नहीं अभी कितनों को रुलाएगा वह
बदमाश।’’ नानी ने गुस्से से कहा। उनकी बात मेरी
समझ में नहीं आ रही थी।
सुबह साढ़े पांच बजे मैं गली में निकला
तो शास्त्री जी आते हुए दिखाई दिए। उन्होंने अखबारों का बंडल मुझे थमा दिया और
ताजा समाचार दोहराते हुए खिड़की पटनामल की तरफ चले गए।
तभी मेरा ध्यान चबूतरे पर बैठे एक आदमी
की तरफ गया। उसने पूछा ‘-हरनारायण जी कहां हैं?’’
हरनारायण जी यानि हरना बाबा। मैंने
कहा-‘‘वह तो दिल्ली से बाहर गए हैं। आपको
उनसे क्या काम है?
आप
कहां से आए हैं?’’
पर
उसके जवाब देने से पहले ही मेरी नजर उसके पास रखे थैले पर पड़ी। उस पर बड़े-बड़े
अक्षरों में लिखा था-‘‘कलराज
नाटक मंडल। मुझे रमेश और घनश्याम की बात याद आ गई।
‘‘ओह, तो आप नाटक मंडली वाले हैं?’’ मैंने पूछा। मुझे पता था हरना बाबा हर वर्ष
कलराज नाटक मंडली को बुलाकर गली में नाटक करवाते हैं। हमारी गली जहां चौराहे की
तरफ मुड़ती थी वहां काफी खुली जगह थी। नाटक मंडली का स्टेज उसी जगह पर बनता था।
मंडली वाले एक हफ्ते के लिए आते थे और रोज एक नाटक खेलते थे। उन दिनों तब हमारी
गली में खूब भीड़ रहा करती थी। दूर-दूर से लोग कलराज मंडली के कलाकारों के नाटक
देखने आते थे। मंडली वालों के रहने तथा भोजन की व्यवस्था हरना बाबा करते थे। मंडली
के कई कलाकार तो हरना बाबा के घर टिकते थे। उस समय बहुत भागदौड़ करते थे हरना
बाबा।
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पर इस समय वह तो यहां थे नहीं, फिर कैसे क्या होगा, कौन करेगा सारा इंतजाम। मैं इसी सोच
में था तभी लट्टू चौधरी चबूतरे पर खड़े दिखाई दिए। मुझे पता था वह गली के चौधरी थे। भले ही लाइब्रेरी के बारे में उनका हरना
बाबा के साथ झगड़ा हो चुका था। मैंने उन्हें नमस्कार किया, फिर पास जा खड़ा हुआ। मैंने नाटक मंडली
वाले आदमी की ओर इशारा करते हुए कहा-‘‘बाबाजी, यह
नाटक मंडली वाले आए हैं।’’ फिर उस आदमी को इशारे से चौधरी जी से बात करने को कहा।
‘‘तो मैं क्या करूं।’’ लट्टू चौधरी ने एकदम चिल्लाकर कहा।
‘‘हरना बाबा नहीं हैं, इसलिए...’’
‘‘हां, हरना नहीं है इसलिए तो कह रहा हूं। यह शोर-शराबा हमें पसंद नहीं।’’ फिर उससे बोले-‘‘चले जाओ। इस बार गली में कुछ नहीं
होगा। रात-रात भर यह बेकार का हंगामा मुझे पसंद नहीं।’’
मुझे एकदम गुस्सा आ गया। कुछ दिन पहले चौधरी
लाइब्रेरी के अखबार गायब कर चुके थे। न
जाने वह हरना बाबा से इतने क्यों चिढ़ते हैं। अगर नानी ने उनसे भिड़ने की हिम्मत न
दिखाई होती तो हरना बाबा की लाइब्रेरी कब की बंद हो जाती।
लट्टू चौधरी की बातें सुनकर कलराज नाटक मंडली वाला आदमी भी
गरम हो गया। बोला-‘‘यह
आप कैसी बात करते हैं। हम कोई भिखारी नहीं हैं। कोई इज्जत से बुलाता है तो हम भागे
आते हैं। आप हमें इस तरह गाली क्यों दे रहे हैं?’’
‘‘तुम गाली की बात कर रहे हो, अगर कुछ और
कहा तो धक्के मारकर भगा दूंगा।’’ लट्टू चौधरी चिल्लाए। इस पर
उस आदमी ने अपना थैला उठाया और तेजी से खिड़की पटनामल की तरफ चला गया।
मैं वहां खड़ा न रह सका। मुड़कर देखा, शास्त्री जी अखबार हाथ में लिए खड़े
थे। शास्त्रीजी ने इशारे से चुप रहने को कहा और आगे चल दिए।
मेरी समझ में नहीं आया कि क्या करूं।
हरना बाबा के न रहने से कितनी गड़बड़ हो गई थी। हमारी गली में नाटक नहीं दिखाए
जाएंगे। शायद तालेश्वर पंडित की कथा भी नहीं होगी। गली में सन्नाटा रहेगा। काश
हरना बाबा यहां से न जाते। उनके पीछे से लट्टू चौधरी ने सब उलट-पलट कर दिया था।
मेरा मन परेशान था। मैं रोज की तरह अखबार
संभालने का काम करता रहा पर मन ही मन चौधरी पर गुस्सा था। लेकिन मैं कर भी क्या सकता था।
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मेरा मन चाह रहा था अगर इस समय हरना
बाबा एकदम गली में आ जाएं तो कितना अच्छा हो। लट्टू चौधरी की सारी हवा निकल जाएगी और उनके मना करने पर भी
गली में धूमधाम से नाटक खेले जाएंगे। हर बार ही नाटक खेले जाने के दौरान गली में
जैसे मेला जुड़ जाता था। हमारी गली लेहसवा कुछ विशेष हो जाती थी। क्योंकि आसपास की
और किसी दूसरी गली में नाटक नहीं होते थे। दूसरी गलियों से लोग नाटक देखने हमारी
गली में आते थे। रात-दिन हर कहीं नाटकों की ही चर्चा होती थी। किसी-किसी नाटक में
गली के बच्चों को भी छोटी-सी भूमिका मिल जाती थी। अब तक मुझे कभी मौका नहीं मिला
था, पर इस बार पूरी उम्मीद थी क्योंकि नाटक
मंडली का पूरा इंतजाम हरना बाबा के हाथ में होता था। और लाइब्रेरी में उनकी मदद
करने के कारण मैं उनका विशेष बन गया था।
पर अब कुछ होने वाला नहीं था। लट्टू चौधरी
ने तो नाटक मंडली वाले आदमी को डांटकर भगा
ही दिया था। और मैं यह भी जानता था कि लट्टू चौधरी से बदला लेने के लिए हरना बाबा
फिलहाल आने वाले नहीं थे। न जाने कब आएंगे हरना बाबा? क्या वह नानी के पास पत्र भेजकर अपना
हाल नहीं बता सकते थे।
मैं निराश होकर घर में जाने लगा तभी
मुझे फकीरा आता दिखाई दिया। फकीरा साइकिल पर घूम-घूमकर चाकू-छुरी-कैंची पर धार
लगाया करता था। सबसे हंसकर बोलता था। उसके आने से पहले ही उसकी आवाज गली में
गूंजने लगती थी,
‘‘चाकू, छुरी, कैंची पर धार...चाकू, छुरी...’’ लेकिन
आज वह आवाज नहीं लगा रहा था। न ही साइकिल पर था। वह पैदल चला आ रहा था और कितनी
हैरानी की बात थी,
उसके
साथ नाटक मंडली का वही आदमी थी, जिसे कुछ देर पहले लट्टू चौधरी बुरी तरह डांटकर भगा चुके थे। भला
फकीरा क्यों साथ ला रहा था उसे। मुझे याद आया एक दो नाटकों में फकीरा को भी
छोटा-सा रोल करने का मौका मिला था। वह शौकीन तबीयत था।
मैंने देखा चौधरी अपने चबूतरे पर नहीं बैठे थे। फकीरा मेरे पास
आकर रुक गया। धीरे से हंसा, फिर पूछने लगा-‘‘चौधरी साहब कहां हैं? नाटक मंडली के बारे में बात करनी है।’’ मंडली वाला अपना बैग लिए चुप खड़ा था।
मुझे याद था कि लट्टू चौधरी ने उसे किस
बुरी तरह डांटा था। क्या वह दोबारा डांट खाने के लिए चला आया था।
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मैंने कहा-‘‘घर में होंगे, मैं नहीं जानता।’’
फकीरा मुझे देबू बाबू कहता था। मुझे
अच्छा लगता था उसका यों पुकारना। उसने कहा-‘‘देबू बाबू, तैयारी
शुरू कर दो।’’
‘‘कैसी तैयारी?’’
‘‘अरे, एक हफ्ते तक तुम्हारी गली में नाटक खेले जाएंगे। मेला जुड़ेगा। मजा
आएगा, और क्या।’’ कहकर फकीरा फिर हंस पड़ा, लेकिन नाटक मंडली वाला अब भी चुप-चुप
खड़ा था।
‘‘इस बार नाटक नहीं खेले जाएंगे।’’ मैंने कहा। कहते हुए मुझे अच्छा नहीं
लग रहा था।
‘‘होंगे नाटक। जरूर होंगे। अरे, अगर हरनारायण नहीं हैं तो क्या हुआ।
गली के चौधरी जी तो हैं। वह चाहेंगे तो सब
कुछ होगा। तुम देखते जाओ।’’ और फकीरा फिर हंसा।
‘‘पर उन्होंने तो मना कर दिया है।’’ मैंने कहा।
‘‘कोई बात नहीं, तुम देखना मैं उन्हें मना लूंगा। हम
उनके पैर छू लेंगे। यह ठीक नहीं कि इस बार गली में नाटक न खेले जाएंगे। यह क्या
बात हुई, अगर हरनारायण नहीं हैं तो यहां कुछ भी
नहीं होगा। भला बताओ तो!’’
हरना बाबा को उसका यों हरनारायण कहना
मुझे बुरा लगा। बाबा कितने बड़े हैं उम्र में। क्या यह तमीज से बात नहीं कर सकता।
मुझे गुस्सा आया,
पर
फिर ठंडा भी हो गया क्योंकि फकीरा की बात से मेरे मन में एक उम्मीद पैदा हो गई थी।
क्या सच में ऐसा हो सकता था कि लट्टू चौधरी गुस्सा भूलकर मान जाएं और...
फकीरा ने नाटक मंडली वाले आदमी से
धीरे-धीरे कुछ कहा फिर उसे वहीं खड़ा छोड़कर लट्टू चौधरी के घर में घुस गया। मुझे अंदर नानी के पास जाना
चाहिए था पर फिर भी मैं खड़ा रहा। थोड़ी देर बाद फकीरा लट्टू चौधरी के घर से बाहर आया। वह खुश दिखाई दे रहा था।
उसने नाटक मंडली वाले से कहा-‘‘आओ,
चौधरी
तुमसे मिलने को तैयार हो गए हैं। हां, एक बात ध्यान रखना, वह जैसा कहें हां-हां करते जाना, काम बन जाएगा।’’ फिर दोनों अंदर चले गए।
फिर मैं भी नानी के पास चला गया।
बार-बार मन करता था, दौड़कर
बाहर जाऊं और देखूं क्या हुआ। मैं बाहर की तरफ चला तो नानी ने टोक दिया, ‘‘धूप में कहां जा रहा है।’’ मैं मन मारकर रुक गया। नानी के कहने पर
आंख बंद करके लेटना पड़ा। उसके बाद शाम को ही बाहर जाने की छूट मिली। पूछने की
जरूरत नहीं पड़ी। लट्टू चौधरी अपनी गद्दी पर बैठे दिखाई दिए। उनके आसपास कई लोग
जमा थे। उन्हीं में फकीरा भी था। मैंने सुना लट्टू चौधरी कह रहे थे-‘‘कोई बात नहीं सब हो जाएगा। कुछ लोग
मेरे मकान में ठहर जाएंगे। बाकी का इंतजाम कायस्थों वाली धर्मशाला में हो जाएगा।
अरे, चौधरी का सिक्का पूरी दिल्ली में चलता है।’’ सुनकर लोग हंसने लगे। उनमें वे भी थे
जो हरना बाबा के सामने लट्टू चौधरी की बुराइयां करते थे।
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चाहे जो भी था, मेरा मन खुश था, गली में नाटक होने जा रहे थे। हरना
बाबा होते तो शायद मुझे भी किसी नाटक में कुछ करने का मौका मिल जाता। न सही पर
नाटक तो होंगे, मेला तो लगेगा गली में। मैं नानी को यह
खबर सुनाने अंदर दौड़ गया। पता नहीं कैसे क्या हुआ था। फकीरा ने लट्टू चौधरी को मना लिया था।
छुट्टियों के दिन थे। इसलिए स्कूल न
जाने के लिए कोई बहाना गढ़ने की जरूरत नहीं थी। गली में रौनक बढ़ गई थी। नए-नए लोग
लट्टू चौधरी के पास आते दिखाई देते थे। वे जोर-जोर से बोलते थे। लट्टू चौधरी
आजकल चिल्लाते कम और हंसते ज्यादा थे।
नाटक मंडली का कुछ सामान लट्टू चौधरी के आंगन में रख दिया गया। मैं भी कई बार अंदर
जाकर देख आया था। कई बार आने-जाने के बीच ही रामभज से भेंट हुई। मुझसे काफी बड़े
थे। हरना बाबा इन्हीं को मकान में देखरेख के लिए छोड़ गए थे। वह जब मिलते
मुस्कराकर मेरा हाल पूछते। मुझे अच्छे लगे रामभज। आजकल फकीरा तो जैसे हर वक्त गली
में आता-जाता दिखाई देता था। अक्सर ही वह लट्टू चौधरी से बात करता दिखाई देता। ऐसा
लगता था जैसे उन्हें फकीरा पर बहुत विश्वास हो गया था। क्योंकि सुबह जब मैं
अखबारों की देखभाल करता होता था तो कई बार उनकी आवाज सुनाई देती थी-‘‘अरे, फकीरा कहां है, जल्दी से बुलाओ उसे।’’ दिन में कई बार फकीरा गली में से गुजरता था। उसके पैरों में जैसे पंख
लग गए थे. आजकल वह चाकू-छुरियों पर सान रखने का काम करता
नहीं दिखाई देता था।
रमेश और घनश्याम भी इन दिनों हमारी गली
के चक्कर लगाते रहते थे। नाटक मंडली को आए दो दिन हो चुके थे। गली के मोड़ पर नाटक
के लिए स्टेज बनने लगी थी। लट्टू चौधरी भी वहां खड़े दिखाई देते थे। वह अपनी छड़ी
हिलाकर कहते, ‘‘अरे, वह बल्ली वहां बांधो, वह राधाकृष्ण वाला परदा सामने ठीक रहेगा।’’ स्टेज दो तरफ से खुली थी। एक तरफ औरतें
और बच्चे बैठने वाले थे और दूसरी तरफ गली के मर्द।
एक दिन घनश्याम और रमेश मेरे पास आए।
रमेश बोला, ‘‘चल यार, जरा कायस्थों की धर्मशाला में जाकर रंग देखते हैं। तेरे बिना हमें
कोई जाने नहीं देगा। सुना है नल-दमयंती नाटक खेलने की तैयारी हो रही है।’’ हम तीनों कायस्थों वाली धर्मशाला की
तरफ चले। वह बड़ी धर्मशाला खिड़की पटनामल के दूसरी तरफ थी। उससे थोड़ा आगे मस्जिद
और गली में रशीद दूधवाले का घर था। कई बार मन करता था, रशीद की जूही से मिलकर आगरे वाली जूही के बारे
में पता करूं। पर फिर जैसे कोई रोक देता था। फातिमा का गुस्सा याद आ जाता था।
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धर्मशाला ऊपर थी, नीचे दुकानें थीं। एक दुकान में दूध का
काम होता था, और बाकी दुकानों में कुछ परिवार रहते थे।
मैं सोचा करता था- छोटी-छोटी दुकानों में पूरे-पूरे परिवार कैसे रहते हैं-उसी में
नहाना-खाना-सोना तथा दूसरे काम करना। धर्मशाला की सीढि़यों पर कुछ बच्चे खड़े शोर
मचा रहे थे। ऊपर वाला दरवाजा बंद कर दिया गया था। वहां एक आदमी हाथ में डंडा लिए
खड़ा था। मैं सोच रहा था अंदर कैसे जाएं। तभी फकीरा दरवाजे से बाहर आया। मुझे
देखकर हंस पड़ा-‘‘नाटक में पार्ट करोगे?’’ उसने पूछा। रमेश और घनश्याम झट बोल
पड़े-‘‘हां।’’ मैं चुप रहा, फिर मैंने कहा-‘‘ये मेरे दोस्त हैं, ऊपर जाकर देखना चाहते हैं।’’
‘‘अरे तो क्या मुश्किल है। आओ।’’ हम फकीरा के पीछे-पीछे चले। हमें चौकीदार
ने नहीं रोका। धर्मशाला के चौड़े आंगन के एक तरफ छतवाला मंच बना था। वहां कई बार
कार्यक्रम होते थे। एक बार मैंने भी ‘कमलेश बालिका विद्यालय’ के कार्यक्रम में भाग लिया था। मैंने अपनी पढ़ाई कमलेश बालिका
विद्यालय से ही शुरू की थी। उसका नाम ‘बालिका विद्यालय’ था पर उसमें लड़के भी पढ़ते थे।
इस समय मंच पर किसी नाटक की रिहर्सल चल
रही थी। कई जने किताब में देखकर जोर-जोर से कुछ बोल रहे थे। एक लड़की चमकदार
कपड़ों में नाच रही थी। हारमोनियम और तबले के सुर गूंज रहे थे। वहीं एक तरफ वह आदमी
भी दिखाई दिया जिसे पहले लट्टू चौधरी ने डांटकर भगा दिया था।
‘‘अरे, क्या नाटक में लड़कियां भी पार्ट करेंगी। हमने तो सुना है ये लोग
लड़कों को ही लड़कियों की पोशाक पहनाते हैं।’’ रमेश ने कहा। मैंने देखा लड़की बहुत अच्छा नाच
रही थी। फकीरा तथा दूसरे कई लोग ताली बजाकर कह रहे थे-‘‘वाह, बहुत अच्छे।’’
कुछ देर बाद रिहर्सल बंद हुई तो फकीरा
मेरे पास आया। मैंने देखा नाचने वाली लड़की मंच से उतरकर पास के एक कमरे में चली
गई। पीछे-पीछे फकीरा भी गया। क्या वह कोई लड़का था जिसने लड़कियों के कपड़े पहन
रखे थे। और फकीरा उसके पीछे क्यों गया था?
कुछ देर बाद फकीरा कमरे से बाहर आया तो
मैंने पूछा-‘‘वह लड़का कौन है जिसने लड़की के कपड़े
पहने हुए हैं?’’
फकीरा ठठाकर हंसा, ‘‘अरे नहीं, वह लड़की ही है। वह धर्मशाला के मैनेजर
की बेटी हैं मैनेजर का परिवार इसी कमरे में रहता है।’’
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‘‘लेकिन क्या नाटक मंडली में लड़कियां भी
हैं?’’ मैंने पूछा।
‘‘अरे नहीं, सभी लड़के हैं ,उन्हीं को औरतों की ड्रेस
पहनाकर सीता, राधा, दमयंती बनाया जाता है।’’
‘‘तुम... कौन-सा पार्ट करोगे नाटक में?’’
‘‘मैं...देखना, कौन-सा पार्ट खेलूंगा मैं। किसी ने कभी
देखा न होगा।’’ फकीरा ने कहा, और जोर से हंस पड़ा। मैं अचरज से देखता
रह गया। आखिर ऐसी क्या बात है फकीरा में। उसने नाराज लट्टू चौधरी को खुश कर दिया था। और अब उसके कहने पर धर्मशाला
के मैनेजर की लड़की को स्टेज पर डांस करने का मौका मिलेगा। क्या यह मुझे भी किसी
नाटक में पार्ट दिलवा सकता है? मैं सोचता खड़ा था। कैसे हैं नाटक मंडली वाले! शहर-शहर घूमकर नाटक
दिखाते और रोटी कमाते हैं। लेकिन फकीरा! यह कौन है इनका? मैं सोच रहा था, पर बात समझ में नहीं आ रही थी।
धीरे-धीरे हम सीढि़यां उतरकर नीचे चले आए। चौकीदार ने दरवाजा बंद कर लिया, लेकिन फकीरा तो अंदर ही था। वह क्या कर
रहा था वहां? जरूर उसने अपने लिए नाटक में किसी बड़े
पार्ट का जुगाड़ कर लिया है। क्या वह मेरे लिए कुछ सकता है? शायद हां, शायद...
शाम को नानी ने सीताराम बाजार से कुछ
चीजें लाने को कहा, पर
मैं वहां जा न सका। क्योंकि नीलावाली गली के पास पूरा रास्ता रुका हुआ था। पता
नहीं क्या बात थी। वहां कई लोग बात रहे थे-पागल बादशाह! हां, उसे पुलिस पकड़कर ले गई थी। क्योंकि
पागल बादशाह के कुत्ते ने किसी को काट लिया था। मैंने देखा था पागल बादशाह के पास
हरदम सात-आठ कुत्ते बैठे रहते थे। वे कभी किसी से कुछ नहीं कहते थे। कुत्तों को
लोग पागल बादशाह के पहरेदार कहते थे। आज किसी ने पागल बादशाह को पीटा था तो उसे
कुत्तों ने लहूलुहान कर दिया था। पर इसमें पागल बादशाह का क्या दोष था?
पर बाद में सुना था, उसी रात गली वाले पागल बादशाह को थाने
जाकर वापस ले आए थे। अगले दिन मैं गली आर्य समाज में गया तो पागल बादशाह हमेशा की
तरह कुत्तों से घिरा बैठा था। वह कुत्तों के साथ पानी में भीगी रोटी के टुकड़े खा
रहा था। आखिर क्यों वापस ले आए थे उसे गली वाले? वह पागल था, किसी का कुछ नहीं था। हो भी नहीं सकता था, पर फिर भी गली वालों ने उसे थाने में
बंद नहीं रहने दिया था।
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शाम को मैं लट्टू चौधरी के चबूतरे के
पास खड़ा था। मैं सुनना चाहता था कि लोग क्या बातें कर रहे हैं, तभी किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा।
देखा फकीरा था। वह मुझे कुछ दूर ले गया। बोला-‘‘मैंने सुना है तालेश्वर पंडित इसी गली में आकर रहने लगे हैं। जरा बता
दो कौन-सा मकान है-कुछ बात करनी है, अभी,
इसी
वक्त...’’
भला तालेश्वर पंडित को कौन नहीं जानता
था। उनकी आवाज इतनी सुरीली थी कि बस...और जब वह बोलते थे तो पूरी गली गूंजने लगती
थी। वह प्रसिद्ध कथा वाचक थे। जब मैंने सुना कि वह हमारी गली में रहने आए हैं तो
मुझे बहुत अच्छा लगा था। वह जब भी मुझे देखते तो प्यार से मुस्करा देते थे। मैं
चाहता था, उनसे संगीत सीखूं, पर उनके पास जाने की हिम्मत नहीं होती
थी। आज मौका मिला था। मैं तुरंत फकीरा को उनके घर ले गया। हम दहलीज में घुसे तो हारमोनियम
पर गाने की आवाज सुनाई दी। हम जाकर दरवाजे पर खड़े हो गए। तालेश्वर पंडित
हारमोनियम बजाते हुए भजन गा रहे थे।
‘‘ऐसा ही चाहिए।’’ फकीरा धीरे से बोला।
‘‘क्या चाहिए?’’
‘‘हारमोनियम बजाने वाला।’’
‘‘कौन किसे चाहिए?’’
‘‘अरे, नाटक मडली का हारमोनियम मास्टर बीमार हो गया है। ऐसे में दिक्कत
होगी। इसीलिए मैं तालेश्वर पंडित से बात करने आया हूं। क्या वह हमारी मदद करेंगे?’’ फकीरा ने कहा।
‘‘तुम्हारी मदद!’’
‘‘हां, मेरा मतलब नाटक मंडली की मदद। भई, वे लोग तो यहां ज्यादा किसी को जानते नहीं। हर बात के लिए मुझसे कहते
हैं। तुमने देखा है न मेरी कितनी भागदौड़ हो रही है।’’
तभी तालेश्वर पंडित ने हारमोनियम बंद
कर दिया। बोले-‘‘अरे, कौन देवन, आओ, अंदर आओ।’’
मैंने अंदर जाकर प्रणाम किया। उन्होंने
कितने प्यार से मेरा नाम पुकारा था, क्या यह मुझे हारमोनियम बजाना सिखाएंगे? क्या यह मुझे जानते थे, मेरे बारे में...
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मैंने कहा, ‘‘यह फकीरा हैं, नाटक मंडली की ओर से आए हैं।’’
‘‘नाटक मंडली! हां, मैंने सुना तो है, पर मेरे पास क्यों?’’
‘‘जी, मंडली का हारमोनियम मास्टर बीमार हो गया है। दो दिन बाद नाटक खेला
जाना है। संगीत का साथ तो जरूरी है। मैं उनकी ओर से प्रार्थना लेकर आया हूं।’’ फकीरा ने बताया।
मैंने देखा तालेश्वर पंडित के होंठों
से मुस्कान मिट गई। गुस्से से बोले-‘‘तो मुझे क्या समझा है। मैं सिर्फ कथा में भगवान के भजन गाता हूं।
बाकी किसी बात के लिए मेरे पास समय नहीं। जाओ, चले जाओ, फिर
मत आना।’’ कहकर वह खड़े होने लगे, पर फिर लड़खड़ाकर बैठ गए। दोनों पैरों
में पोलियो के कारण वह सीधे खड़े नहीं हो पाते थे।
इसके बाद फकीरा एक क्षण भी वहां न
ठहरा। एकदम चला गया। उसे शायद याद नहीं रहा कि मैं उसके साथ था। वैसे उसके
पीछे-पीछे जाना मुझे भी ठीक न लगा। मैं बैठा रह गया। मैंने देखा फकीरा के जाने के
बाद तालेश्वर पंडित फिर से मुस्करा रहे थे। बोले-‘‘अरे,
तुम
इसके साथ कैसे आए?’’
मैं सकपका गया, ‘‘जी, उसे आपका घर मालूम नहीं था।’’ शब्द मुंह में फंस रहे थे। मतलब यह था कि फकीरा
को तालेश्वर पंडित अच्छा आदमी नहीं समझते थे। ‘‘तुम्हारी नानी कैसी हैं और मां...’’ फिर वह चुप हो गए।
तो वह मेरे घरवालों को जानते थे। वह
हंस पड़े। “जानते हो, मैं
तुम्हारे बाबा जानकी प्रसाद से मिला था।’’
‘‘मेरे बाबा...’’
‘‘हां, वह रेलवे में बड़े अफसर थे और तुम्हारे पिता एक अच्छे डाक्टर।’’
‘‘आप...’’ मैं उनसे कुछ पूछना चाहता था। मैंने नानी से
इतना तो सुना था कि मेरे बाबा का नाम जानकी प्रसाद था। पर आज तक ऐसा कोई नहीं मिला
था जिसने बाबा को देखने की बात कही हो। नानी ने कभी कुछ नहीं बताया था मेरे बाबा
के बारे में। वह तो मेरे पिता के बारे में भी कुछ नहीं कहती थीं। मेरा मन होता था
कि मैं सामने बैठा रहूं और जो कोई भी मेरे माता-पिता और अन्य लोगों के बारे में
जानता हो, वह मुझे शुरू से अंत तक सब बता दे।
मुझे कैसे पता चलेगा कि मेरे माता-पिता के बारे में ठीक-ठीक सूचना किस-किस के पास
है।
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‘‘क्या आप मुझे कुछ बताएंगे मेरे बाबा के
बारे में?’’ मैंने पूछ लिया।
तालेश्वर पंडित हंस दिए। बोले-‘‘मैं उन्हें ज्यादा तो नहीं जान सका, पर एक बार उनसे भेंट हुई थी। तब मैं
यहां नहीं रहता था। एक दिन तुम्हारी नानी ने मुझे बुलवाया। मैं आया तो देखा
तुम्हारे घर के आंगन में एक अपरिचित बैठे हैं। तुम्हारी नानी मुझे कोठे में ले
गईं।’’ उन्होंने धीरे से कहा-‘‘आंगन में विद्या के ससुर बैठे हैं। यह
रामपुर से आए हैं और रेलवे में बड़े अफसर हैं इन्होंने आपका बड़ा नाम सुना है।
आपसे राम कथा सुनना चाहते हैं।’’
‘‘मैंने बता दिया कि दो दिन बाद हौज काजी
चौक पर रात को मेरी कथा होगी। वह वहां आ सकते हैं। लेकिन पता चला वह लोगों की भीड़
में बैठकर नहीं,
अकेले
ही कथा सुनना चाहते थे। यह तो विचित्र फरमाइश थी। किसी एक अकेले के लिए तो मैंने
कभी कथा नहीं कही थी। पर वह तुम्हारी नानी के विशेष मेहमान थे, इसलिए मैं तैयार हो गया।’’
मैं ध्यान से अपने बाबा के बारे में
उनकी बात सुन रहा था।
तालेश्वर पंडित कहते गए, ‘‘मैंने उसी रात तुम्हारे घर में
तुम्हारी मां के ससुर जी के लिए विशेष कथा पाठ किया। जब मैं कथा कह रहा था तो वह
आंगन में अकेले बैठकर सुन रहे थे।’’ बाद में उन्होंने मुझे दक्षिणा में सौ रुपए देने चाहे। पर मैं लड़की
की ससुराल वालों से भला पैसे कैसे ले सकता था।’ बस,
वही
एक बार मिलना हुआ था उनसे। मैंने तुम्हारे पिता को तो नहीं देखा, पर सुना है वह रामपुर के मशहूर डाक्टर
थे...’’
मेरे सामने एक बूढ़े अदमी का चेहरा उभर
रहा था, पर कितनी हैरानी की बात थी-पिताजी की
तरह उनका चेहरा भी मैं ठीक-ठीक देख नहीं पा रहा था-पिता और बाबा दोनों अजनबी थे
मेरे लिए और मां...वह तो पास रहकर हमेशा के लिए दूर चली गई थीं।
तालेश्वर पंडित ने मेरे सिर पर हाथ रखा
जैसे आशीर्वाद दे रहे हों। बोले-‘‘मैं फकीरा को जानता हूं, मैंने उसके बारे में जो कुछ सुना है उस पर यही कह सकता हूं, वह ठीक आदमी नहीं है।’’
कुछ पल खामोशी रही। शायद मेरे लिए चले
जाने का संकेत था। मैंने उनके पैर छुए तो तालेश्वर पंडित ने फिर आशीर्वाद दिया।
मैं धीरे-धीरे घर चला आया। दिन ढल चुका था, गली में धुंधलका फैल गया था, पर गली के मोड़ पर बनते नाटक के मंच पर रोशनी थी। कई लोग दौड़-भाग कर
रहे थे। ठक-ठक की आवाजें आ रही थीं। लट्टू चौधरी अपनी गद्दी पर बैठे थे। उनके
आसपास कई लोग खड़े थे। सब नाटक के बारे में ही बातें कर रहे थे। वहीं फकीरा भी
दिखाई दिया। क्या वह लट्टू चौधरी से तालेश्वर पंडित की शिकायत करने आया था? मेरे कानों में तालेश्वर पंडित के शब्द
गूंज रहे थे --वह ठीक आदमी नहीं है. ===
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सुबह पांच बजे लाइब्रेरी खोलने के लिए
घर से निकला तो अजीब लगा। रोज की तरह गली सुनसान नहीं थी। ताज्जुब की बात थी, लट्टू चौधरी अपने चबूतरे पर बैठे थे।
पास में एक-दो पुलिस वाले भी खड़े थे। वहीं मैंने शास्त्री जी को भी देखा। उनकी
साइकिल कहीं दिखाई नहीं दे रही थी। हां अखबारों का बंडल जरूर हरना बाबा के चबूतरे
पर पड़ा था।
मुझे लगा कहीं कुछ गड़बड़ है। तभी
शास्त्रीजी मेरे पास चले आए। संकेत से घर में जाने को कहा, फिर स्वयं भी पीछे-पीछे आए। अंदर आकर
उन्होंने नानी से कहा-‘‘आज लाइब्रेरी
न खुले तो ठीक।’’
‘‘क्यों?’’ मैंने पूछा।
‘‘लगता है मामला गड़बड़ है, पुलिस वाले
ढूंढ़ते फिर रहे हैं।’’
‘पुलिस क्यों शास्त्री जी।’’ नानी की आवाज में डर था।
‘‘ रात से कायस्थों वाली धर्मशाला में
कोहराम मचा है। मैनेजर की लड़की घर से गायब है।’’
मुझे याद आया, जब मैं धर्मशाला में ऊपर गया था तो एक
लड़की मंच पर नाच रही थी। फिर जब वह कमरे में गई तो पीछे-पीछे फकीरा भी अंदर घुस
गया था।
‘‘क्या हुआ? आपको तो सब पता होगा, बताइए।’’ नानी पूछ रही थीं।
‘‘मैं तो चार बजे से गली में ही हूं।
लड़की के साथ-साथ नाटक मंडली में काम करने वाला एक लड़का लखन भी लापता है। और
मैंने सुना है फकीरा भी गायब है। पुलिस तीनों को ढूंढ़ रही है।’’
‘‘फकीरा, वही जो चाकू-छुरी पर धार रखता है।’’ नानी पूछ रही थीं।
‘‘हां, वही...गली में हो-हल्ला है। अखबार मैंने डाल तो दिए हैं, पर मेरी राय यही है देवन आज लाइब्रेरी
न चलाए।’’
‘‘ठीक कहा शास्त्री जी, मैं इसे घर से निकलने नहीं दूंगी।’’ कहकर नानी ने चश्मे के पीछे से मेरी
तरफ घूरा।
नाटक नहीं हुआ। दिन में ही स्टेज उखाड़
दी गई। नाटक मंडली वाले भी कायस्थों की धर्मशाला छोड़कर न जाने कहां चले गए। गली
में एकदम सन्नाटा छा गया था। अगली सुबह अखबार पढ़ने वाले आए जरूर, पर सभी चुप-चुप थे। सभी को लड़की के
गायब होने का पता चल गया था। इस कांड की खबर अखबार में भी छपी थी।
151
मैं सोच रहा था, काश हरना बाबा होते. उनके सामने किसी
की इतनी हिम्मत नहीं हो सकती थी। वैसे फकीरा नाटक मंडली को दोबारा लट्टू चौधरी के
पास न लाता तब भी ठीक रहता। इस घटना के बाद हमारी गली में फिर कभी नाटक नहीं खेला
गया।
चार दिन बाद गली में फिर शोर मचा।
फकीरा का पता लग गया था। मैंने कई गली वालों को लोहे का फाटक पार करके रामलीला
मैदान की तरफ जाते देखा। वे नाले पर बनी पुलिया पर जमा हो गए थे। मैं नानी के डर
से दूर ही दूर से देखता रहा था। फकीरा पुलिया के नीचे गंदे नाले में पड़ा मिला था
पुलिस को। किसने किया था यह सब?
ग्यारह बजे मैंने अखबार समेटे और
उन्हें कोठरी में रख आया। कैसी अजीब बात थी-‘मैं जब-जब कोठरी में जाता था, हरना बाबा की पत्नी एकदम सामने आ खड़ी होती थीं। नानी के कहने के
बावजूद मुझे वहां जाने में कोई डर नहीं लगता था। सुबह ग्यारह बजे अखबार रखने के
बाद भी मैं कुछ देर वहीं बैठा रहता था। न जाने क्यों वहां बैठना अच्छा लगता था, जैसे वह जगह मेरी अपनी हो। उस दिन
अखबार रखने के बाद मैं उठने लगा तो देखा अखबारों के ढेर के पीछे एक बोतल रखी हुई
थी। मैंने बोतल उठा ली। उसमें रंगीन पानी भरा था। वह जरूर शराब थी। मैं बोतल को
ऊंची करके देखने लगा। तभी न जाने क्या हुआ, बोतल मेरे हाथ से छूटकर जमीन पर गिर गई। पूरी कोठरी में शराब की गंध
भर गई। मैं कुछ डर गया। यहां शराब की बोतल कैसे आई? किसने रखी? मेरे
अलावा और कोई तो यहां आता नहीं था।
एकाएक रामभज का नाम दिमाग में आया।
उनसे मेरी बातचीत बस एक-दो बार ही हुई थी। कभी-कभी बाहर आकर अखबार भी पढ़ते थे। तब
मैं उन्हें ध्यान से देखा करता था। लंबा कद, दुबले-पतले, होंठों पर छोटी-छोटी मूंछें। मैंने बस उनसे एक-दो बार हरना बाबा के
बारे में पूछा था। उनके बिना मुझे अकेला-अकेला लगता रहता था। वैसे अब लट्टू चौधरी
कुछ नहीं कहते थे। पहले वह हरना बाबा की लाइब्रेरी को जरूर बंद कराना चाहते थे।
लेकिन जब से नाटक मंडली वाला कांड हुआ था, वह चुप रहते थे। मैनेजर की लड़की अब तक नहीं मिली थी। क्या रामभज से
दोस्ती नहीं हो सकती? मैं
सोच रहा था। हालांकि वह मुझसे काफी बड़े थे।
152
मुझे देखकर उन्होंने पूछा-‘‘क्या बात है?’’
‘‘अखबार की कोठरी में बोतल किसकी है, क्या आपकी?’’ मैं इतना ही कह सका।
‘‘कैसी बोतल! क्या तूने उसे वहां से
हटाया है?’’ रामभज ने तेजी से पूछा।
‘‘बोतल टूट गई है, मैंने तो बस अखबार रखे थे उस जगह।’’
रामभज की आंखें फैल गईं। ‘‘क्या कहा? तूने बोतल तोड़ दी? कैसे? ओफ,
यह
क्या किया तूने?’’
और
मुझे हाथ से परे हटाकर वह अखबारों वाली कोठरी में घुस गए। अंदर से उनके गाली देने
की आवाज आई। वह हाथ में टूटी बोतल उठाए बाहर आए। चिल्लाए-‘‘बदतमीज! तूने किससे पूछकर यह बोतल उठाई
थी, बोल, बता।’’ और
एक हाथ से मेरा कान पकड़ लिया। मेरे मुंह से चीख निकल गई। रामभज के चेहरे पर बहुत
गुस्सा था। मैं डर गया। लगा कि वह टूटी बोतल से मुझे घायल कर देंगे।
मैंने झटका मार कर अपना कान छुड़ा लिया
और आंगन में भाग आया। रामभज मेरे पीछे थे, हाथ में टूटी बोतल लिए।
‘‘मैं तुझे नहीं छोड़ूंगा।’’ वह चिल्लाए और मेरी तरफ दौड़े। अब बचकर
निकलने का कोई रास्ता नहीं था। मैं चीखने लगा। रामभज दरवाजा रोके खड़े थे।
तभी एक आवाज हुई और रामभज जोर से चीख
उठे। टूटी बोतल उनके हाथ से छूटकर दूर जा गिरी। सारे आंगन में कांच बिखर गया।
मैंने देखा दूसरी तरफ लट्टू चौधरी खड़े थे। उनकी फेंकी हुई लाठी आकर रामभज से
टकराई थी और टूटी हुई बोतल दूर जा गिरी थी।
‘‘इधर आ जा...’’ उन्होंने मुझे अपने पास बुला लिया। फिर
रामभज से बोले-‘‘लट्टू चौधरी के रहते हुए इस गली में
कोई गड़बड़ नहीं चल सकती। अपना सामान उठा ले और निकल जा वरना इतना मारूंगा कि
बस...’’ रामभज चुप खड़े थे। लट्टू चौधरी ने मेरे सिर पर हाथ फिराया। बोले-‘‘तू अपनी नानी के पास जा। इसे मैं देखता
हूं।’’
यह तो कोई दूसरे ही लट्टू चौधरी लग रहे
थे इस समय। सोचता हुआ मैं नानी के पास चला आया। उन्हें पूरी बात बताई तो उन्होंने
मेरा सिर अपनी गोद में रख लिया और बाल सहलाने लगीं। मुझे नींद आ गई।
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एकाएक मैं चौंक कर उठ बैठा। कोई रो रहा
था। वह रामभज थे। उन्होंने नानी के पैर पकड़ रखे थे। कह रहे थे-‘‘नानी मां, मुझे माफ कर दो। मैं बहुत शर्मिंदा
हूं। न जाने मुझे क्या हो गया था। पागल हो गया था।’’
नानी चुप बैठी थीं।
रामभज ने कहा-‘‘लट्टू चौधरी ने मेरा सामान गली में
फेंक दिया। मुझे लग रहा है मैंने बहुत बड़ी भूल कर दी। मुझे माफ करना दोस्त।’’ कहकर उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया।
उनकी आंखों में आंसू थे। न जाने क्यों मैं भी रो पड़ा।
मैं सोचने लगा, कहां जाएंगे रामभज? क्योंकि अब हरना
बाबा के घर में तो रह नहीं सकते थे। कैसी अजीब बात है। कुछ देर पहले रामभज मुझे
टूटी बोतल से मारने भाग रहे थे, लेकिन अब मैं उन्हीं को लेकर परेशान हो रहा था।
दोपहर को नानी ने बुलाकर कहा-‘‘देवन, जरा लाल हवेली चला जा। कोई मुझसे कह रहा था कि उसने कला को वहां देखा
हैं जाकर देख तो सही। हो सकता था आगरा से मुरारी भैया भी आए हुए हों।’’
सुनकर मैं चुप रहा। कलावती का नाम
सुनकर मुझे गुस्सा आ गया। आगरे के दिन याद आने लगे। मैंने कलावती को कभी पसंद नहीं
किया था क्योंकि उनके कारण सुजानी भाभी हमेशा परेशान रहती थीं। जब कलावती आगरे में
रूठकर घर से चली गईं थीं तो मैंने पहली बार सुजानी भाभी को हंसते देखा था।
बहुत दिनों से मुरारी लाल जी आगरे से
दिल्ली नहीं आए थे। जैसे कलावती के जाने के बाद वह भी हमसे नाराज हो गए थे।
मुझे याद आ रहा था पहले कलावती कैसे
मुझे डांटकर भगा दिया करती थी। आगरे में बाबूजी जुबैदा के घर जाते थे, इसीलिए वह नाराज होकर न जाने कहां चली
गई थीं। मेरा मन कलावती के घर जाने का नहीं था, पर नानी की बात तो माननी ही थी। उधर जाते हुए मैं सोच रहा था, अच्छा हो उसके घर ताला बंद हो और वह
लौटकर न आई हो। अगर आ गई तो बाबूजी फिर से वहां जाना शुरू कर देंगे।
कलावती के घर के दरवाजे पर ताला लगा
था। दरवाजे के बाहर कूड़े के ढेर लगे थे, दो कुत्ते वहां लड़ रहे थे। दरवाजा बंद देखकर मुझे खुशी हुई पर फिर
जूही की याद आने लगी। कैसी होगी आगरे वाली जूही, रशीद दूध वाले की जूही। मैं न आगरे जा सकता था और न ही रशीद के घर जा
सकता था। मैंने नानी को कलावती के घर के बंद दरवाजे के बारे में बता दिया।
154
रात को मैं छत पर गया तो टीन शेड में हल्की
सी रोशनी थी। आखिर कौन था वहां? मैंने यूंही झांककर देखा तो हैरान रह गया। मैं समझ न सका कि रामभज
हमारे घर में क्या कर रहे थे। मैंने सुबह उन्हें नानी के पैर छूकर बाहर जाते देखा
था। फिर उन्हें अंदर किसने आने दिया। टूटी बोतल लेकर मुझे मारने दौड़ने की घटना एक
बार फिर आंखों के सामने तैर गई। मुझे घबराहट होने लगी। मैं चुपचाप नीचे चला आया।
नानी बैठी खाना खा रही थीं।
मैंने कहा-‘‘नानी...’’
नानी ने हाथ के इशारे से मुझे चुप रहने
को कहा, फिर खाना खाने लगीं। खाना खत्म करके
मुंह साफ किया, फिर तंबाकू वाला पान मुंह में दबाकर
बोलीं-‘‘क्यों रामभज से डर लग रहा है?’’
‘‘और क्या! अगर लट्टू चौधरी लाठी न
फेंकते तो रामभज जरूर मुझे मार डालते। यह हमारे घर में क्या कर रहे हैं ऊपर टीन
शेड में...
‘‘अरे, इतना क्यों डर रहा है। रामभज इतना बुरा नहीं जितना तू समझ रहा है।
हरना बाबा के घर में लट्टू चौधरी उसे रहने नहीं देंगे । इसलिए हरना भाई के लौटने
तक मैंने रामभज से ऊपर वाले टीन शेड में रहने को कह दिया है।’’
‘‘अगर वह मेरे पेट में टूटी हुई बोतल
घुसा देता तो?’’
मैंने
कहा।
नानी ने झट मुझे गोद में भर लिया।
होंठों ही होंठों में कोई मंत्र पढ़ती रहीं। दिन में एक बार मुझे गोद में बिठाकर
नानी यह काम जरूर करती थीं। जब मैं कहता-‘‘नानी, तुम
मुझे अब भी छोटा बच्चा समझती हो?’’ तो कहतीं-‘‘अरे
तो क्या तू मेरा जेठ बनना चाहता है।“ शायद उन्होंने किसी ओझा से यह टोटका पूछा था।
हो सकता है, उसमें कुछ जादू रहा हो, क्योंकि जब नानी मुझे गोद में बिठाकर
मन ही मन मंत्र पढ़ती थीं तो मुझे नींद आने लगती थी।
नानी मेरे सिर पर हाथ फेरती रहीं।
बोलीं-‘‘मैंने दुनिया देखी हैं, क्या ऐसे ही
इतनी बड़ी हो गई हूं।’’
‘‘मान लो अगर...’’ मैंने कहना चाहा।
‘‘तू इतना डरपोक है यह तो मैंने कभी सोचा
ही नहीं था।’’ नानी ने कहा तो मुझे लगा वह ठीक कह रही
हैं। ‘‘देख हर आदमी में कई आदमी होते हैं।’’
‘‘जैसे तुम्हारे अंदर...’’
सुनकर नानी हंस पड़ी। बोलीं-‘‘लट्टू चौधरी अच्छा भी है और बुरा भी।
वैसे ही रामभज भी है। ठीक है, उस समय गुस्से में तेरे पीछे टूटी बोतल लेकर दौड़ा था, पर अब ऐसा कुछ नहीं होगा। जा बाहर जा।’’
155
मैं चुपचाप छत पर चला आया। रामभज टीन
शेड में बैठे कुछ कर रहे थे। मैं तिमंजिले पर बैठा रहा। आसमान में बादल छाने लगे
फिर बारिश होने लगी। मुझे एक साथ कई लोग याद आने लगे थे, मां-जूही, जूही...।
रात को एकाएक आंख खुली। सब सो रहे थे।
मैं धीरे-धीरे ऊपर जा पहुंचा। टीन शेड में रामभज खर्राटे ले रहे थे। कुछ देर मैं
खड़ा-खड़ा सुनता रहा फिर मैंने धीरे से दरवाजे के पल्ले बंद करके कुंडा लगा दिया।
अब रामभज अपने आप बाहर नहीं आ सकते थे। वैसे नानी ने मुझे रामभज से न डरने की सलाह
दी थी, पर मुझे तसल्ली नहीं हो रही थी।
मुझे पता था अब रात में रामभज चाहकर भी
कोई शरारत नहीं कर सकेंगे। एक बार मन हुआ कि नानी को इसके बारे में बता दूं, पर वह नींद में थीं, फिर मैं भी कब सो गया पता न चला।
सुबह आंख खुली। कहीं जोर से दरवाजा
भड़भड़ाया जा रहा था। मैं एकदम उठ बैठा। कुछ कह पाता इससे पहले ही नानी ऊपर जा
पहुंचीं और उन्होंने टीन शेड का बंद दरवाजा खोल दिया। रामभज छत पर निकल आए। मैंने
उन्हें नानी से पूछते हुए सुना-‘‘पता नहीं रात में दरवाजा बाहर से किसने बंद कर दिया।’’
बाद में मैंने नानी को बताया तो वह खूब
हंसीं और मेरे बार-बार कसम दिलाने पर भी उन्होंने यह बात रामभज से कह दी। सुनकर वह भी जोर-जोर से
हंसने लगे। दोनों को हंसते देख मुझे भी हंसी आ गई। मुझे लगा जैसे मेरे और रामभज के
बीच की दीवार गिर गई हो। अब मैं बिना डरे उनसे हाथ मिला सकता था।
दिन में रामभज अपने काम पर चले गए।
उन्होंने साइकिल किराए पर ले रखी थी। उसी से आते-जाते थे। शाम को घर में घुसते ही
रामभज की आवाज सुनाई पड़ी-‘‘आओ मेरे जेलर।’’
मैं झेंप गया। मैंने कहा-‘‘यहां न जेल है, न कैदी फिर आप ऐसा क्यों कहते हैं।’’ ‘‘यही तो मजे की बात है, फिर भी तुम मेरे जेलर हो।’ रामभज ने हंसते हुए कहा। मैं नीचे था
फिर कुछ देर बाद ऊपर से बांसुरी की आवाज सुनाई दी। मीठा सुर था। कुछ देर सुनता रहा
फिर ऊपर चला गया। अंगीठी पर पतीली चढ़ी थी और वह एक तरफ बैठे बांसुरी बजा रहे थे।
एकाएक सब्जी जलने की गंध आई। मैं कुछ
कहता इससे पहले ही रामभज ने बांसुरी बजाना बंद कर दिया और पतीली को अंगीठी से
उतारकर नीचे रख दिया। सब्जी जल गई थी।
‘‘अब क्या होगा।’’
‘‘कुछ नहीं, मैं और तुम दोनों जली हुई सब्जी से
रोटियां खाएंगे। सच बताना ऐसी दावत खाई है कभी?’’ कहकर रामभज हंस दिए। मैंने बहुत मना किया पर
रामभज नहीं माने। उन्होंने उसी जली हुई सब्जी से रोटी खाई। मैंने कहा-‘‘नानी ने सब्जी बना रखी है, मैं भागकर ले आता हूं।’’ तो बोले-‘‘मैं चाहता हूं खाना खाते समय हर ग्रास
के साथ यह याद आता रहे कि ऐसा बांसुरी के कारण हुआ। क्या तुम जानते हो मैं अपनी
बांसुरी से कितना प्यार करता हूं?’’
‘‘कितना?’’ मैंने पूछा।
‘‘यह जानना है तो मेरे साथ बैठकर जली हुई
सब्जी से रोटी खाओ।’’
‘‘और किससे करते हो प्यार?’’
‘‘अरे देवन, तुम तो पहुचे हुए उस्ताद मालूम होते
हो। क्या तुम्हें पता है, प्यार कैसे करते हैं?’’
‘‘मुझे क्या पता।’’ मुझे अपने गाल गरम-गरम लगने लगे। आंखों
के सामने कुछ तस्वीरें तैरने लगीं। मन में जैसे कुछ होने लगा.
156
( आगे और है )
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