अपने साथ—आत्म कथा—देवेन्द्र कुमार(क़िस्त:5)
आत्म कथा –- पांच
चौथी
क़िस्त – पृष्ठ 42 से 54 तक (अब आगे पढ़ें)
…मैंने जुबैदा के घर से लौट कर भाभी को बीमार जूही के बारे में
सब बता दिया। रात में कलावती ने दरवाज़े में ताला लगा दिया,ताकि बाबूजी बाहर न जा
सकें, पर भाभी ने ताला खोल दिया। बाबूजी चले गए। इस पर कलावती नाराज़ हो कर न जाने
कहाँ निकल गई। शायद भाभी ने कलावती से बाज़ी जीत ली थी। पर अभी जुबैदा खडी थी उनके और बाबूजी के बीच में। बीमार
जूही का ध्यान न रखने के कारण मैं जुबैदा से बहुत नाराज़ था।
राधे भाई ने ‘पंकज’ नामक पत्रिका निकाली। और फिर पडनानी की बीमारी की सूचना
मिली। राधे भाई मुझे और भाभी को दिल्ली ले चले. मैं एक बार फिर...
पड़नानी चारपाई पर लेटी थीं। मैं
दौड़कर उनसे जा लिपटा। वह लेटी-लेटी ही मुझे प्यार करने लगीं। मैंने सुना, वह कह रही थीं-‘‘मैं देवन को देखे बिना मरना नहीं चाहती
थी। अब मुझे मरने का डर नहीं।’’ वह रो रही थीं। सभी उदास थे। पता नहीं मुझे क्या सूझा, मैंने कहा-‘‘पड़नानी, मैं तुम्हें मरने नहीं दूंगा। अब तुम ठीक हो जाओगी।’’ मेरी बात सुनकर नानी आंसू पोंछती-पोंछती
हंस दीं। उन्होंने मुझे कलेजे से लगा लिया। मेरा सिर सूंघने लगीं। अब मैंने देखा - मां भी एक तरफ खड़ी थीं। न जाने वह कब दिल्ली आ गई थीं। वह वहीं खड़ी
अपलक मुझे देख रही थीं। आंखें मिलते ही वह हौले से मुस्कराईं और मुझे लगा जैसे
उन्होंने मेरी तरफ बढ़ने की कोशिश की। एकाएक मेरे सिर पर जैसे भूत सवार हो गया।
मैं आंखें फिराकर दूसरी तरफ देखने लगा। जैसे मां वहां थीं ही नहीं। लेकिन मन में
था अगर मेरी गरदन पर आंखें होतीं तो मैं देख लेता कि मां कैसे प्यार से मुझे देख
रही हैं। राघव की बातें भी गूंज रही थीं कानों में।
पर मैं वहां रुका नहीं। तेजी से भागता
हुआ गली में निकल आया। क्यों आती है मां इस तरह क्यों आती हैं कुछ दिनों के लिए।
क्या वह मेरा कहना मानकर हमेशा के लिए यहां नहीं रुक सकती। पर मुझे मालूम था कि
ऐसा कभी नहीं होगा। मैंने फैसला कर लिया कि मैं मां से बात नहीं करूंगा।
गली में आते ही आंखें आप से आप हरना
बाबा के चबूतरें की तरफ उठ गईं। वहां न अखबार थे, न कोई आदमी-एक बिल्ली म्याऊं-म्याऊं करती हुई घूम रही थी। मैं उस तरफ
बढ़ा तो वह भाग गई। हरना बाबा के घर का जाली वाला दरवाजा खुला था लेकिन वहां कोई
दिखाई न दिया। मैं झट से कहीं छिप जाना चाहता था ताकि मां बाहर आकर मुझे अपनी तरफ
खींच न सकें।
और तब मुझे वही अखबारों वाली कोठरी याद
आई जिसके बारे में सिर्फ मैं ही जानता था। अगर मैं वहां जाकर छिप जाऊं तो भला मुझे
कौन ढूंढ़ सकेगा। उस दिन तो हरना बाबा की पत्नी ने मुझे पकड़कर गोद में बैठा लिया
था। नानी और पड़नानी उन्हें डायन कहती थीं। लेकिन कुछ भी था, मुझे मां की आंखों से बचना था। और
अख़बार वाली कोठरी ही वह जगह थी जहां कोई मुझे नहीं ढूंढ़
सकता था।
इसके
बाद मैंने कुछ नहीं सोचा। जल्दी-जल्दी हरना बाबा के घर में घुस गया। लेकिन वहां तो
कोई भी नहीं था। न हरना बाबा, न उनकी पत्नी। एक तरफ चारपाई पड़ी थी। उस पर बिछे बिस्तर पर कोई नहीं
लेटा था। घर में एकदम सन्नाटा था। आखिर दोनों कहां चले गए होंगे यह समझ में नहीं
आया। फिर मेरे कदम आप से आप अखबार वाली कोठरी की तरफ बढ़ गए। वहीं, जहां पुराने बटुए में एक
लड़के की
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पुरानी
तस्वीर मिली थी। लगा जैसे मैं एक बार फिर अपनी जगह आ गया हूं। दीवार में बनी जाली
में से रोशनी की बूंदें जमीन पर रखे अखबारों पर गिर रही थीं। मैं नीचे बैठकर अखबार
उलटने-पलटने लगा। पर आंखें और कान बाहर की ओर लगे थे। कहीं ऐसा न हो कि उस दिन की
तरह हरना बाबा की पत्नी मुझे आकर पकड़ लें। तभी मुझे अपना नाम सुनाई दिया। यह नानी
की आवाज थी। वह घर से बाहर आकर मुझे पुकार रही थीं। मैं चुपचाप बैठा रहा। वहां से
दीवार के पार कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था। पर निश्चय ही नानी के साथ मां भी होंगी।
उनकी आंखें मुझे ही ढूंढ़ रही होंगी।
मुझे एक खुशी सी हुई। देखो, मैं उनके कितना पास था, पर फिर भी ये दोनों मुझे कभी नहीं
ढूंढ़ सकती थीं। कुछ देर बाद मेरे नाम की पुकार बंद हो गई। यानी नानी थक कर घर में
वापस चली गई होंगी। लेकिन हो सकता था मां अभी खड़ी हुई इधर-उधर देख रही हों। इसलिए
कुछ देर और कोठरी में छिपे रहना ठीक था। धीरे-धीरे काफी समय बीत गया।
तभी बाहर कुछ खड़-खड़ हुई। मैंने देखा
हरना बाबा थे। वह एक अलमारी के सामने खड़े हुए कुछ कर रहे थे। उन्होंने रोशनी नहीं
जलाई थी। मैं उनके कितना नजदीक था पर उन्हें कुछ भी पता नहीं चल रहा था।
कुछ देर अलमारी के सामने खड़े रह कर न
जाने क्या करते रहे फिर बाहर जाने को मुड़े। मैं डर गया कि कहीं कमरे का दरवाजा
बंद करके बाहर न चले जाएं। तब तो मैं इसी कोठरी में बंद रह जाऊंगा। बाहर कैसे
निकलूंगा।
पर ऐसा नहीं हुआ। हरना बाबा कमरे का
दरवाजा यों ही खुला छोड़कर बाहर निकल गए। जैसे वह उनका नहीं किसी और का घर हो।
मौका देख कर मैं भी बाहर निकल आया। गली में नानी और मां नहीं थीं। शायद मुझे
आवाजें देने के बाद थक कर अंदर चली गई थीं। कुछ देर मैं गली में भटका सा खड़ा रहा।
मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मुझे कहां जाना चाहिए। असल में तो घर में जाकर मां
का सामना करने के बजाए मैं और कहीं भी जा सकता था।
मैंने सामने देखा हरना बाबा थके-थके से
गली के बाहर की ओर बढ़े चले जा रहे थे। गली के अंत में बिना पल्लों वाला एक बड़ा
सा दरवाजा था, जिसे खिड़की पटनामल कहा जाता था। उसमें
से लोग पैदल जा सकते थे। हरना बाबा दूसरी
तरफ निकल चुके थे। मैंने अब और नहीं सोचा और तेज-तेज हरना बाबा के पीछे चल दिया
ताकि वे आंखों से ओझल न हो जाएं। वह कायस्थों की धर्मशाला और मस्जिद
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के सामने से गुजर कर, गप्पड़ दूध वाले के बड़े अहाते के पास से होते हुए चले जा रहे थे।
मैं समझ न पाया कि हरना बाबा कहां जा रहे हैं।
गली के बाहर मोटे काले पत्थरों की पुरानी दीवार थी जो लाहौरी गेट, अजमेरी गेट से होती हुई तुर्कमान गेट
की ओर जाती थी। मोटे स्लेटी पत्थरों से बनी ऊंची दीवार, जो किसी किले की दीवार की तरह दिखती
थी। उसके दूसरी तरफ जाने के लिए लोहे का एक बड़ा दरवाजा लगा हुआ था। उससे बाहर
निकलते ही एक गहरा नाला था। उस पर बनी छोटी सी पुलिया को पार करके हम रामलीला के
दिनों में रामलीला मैदान जाया करते थे। अब दीवार की जगह ऊंची इमारतें हैं और गहरे
गंदे नाले की जगह बन गई है आसफ अली रोड। पहले अनेक बार हम बच्चे मिलकर उस गंदे
नाले में चूहे छोड़ने जाया करते थे। पिंजरे खोलते ही चूहे लुढ़कते हुए डुब्ब से
नाले की तली में बहते गंदे पानी में जा गिरते थे। एक बार सांप पकड़कर हरना बाबा ने
मटकी में बंद करके उसे नाले में फेंका था। नाले के एक तरफ हरिहर बाबा
का आश्रम था। वहां कई साधु रहते थे।
मैंने सुना था रामलीला मैदान से आगे एक
रास्ता मिंटो ब्रिज और उसके नीचे से कनाट प्लेस की तरफ जाता था। पर हमारे घर से
कभी कोई कनाट प्लेस नहीं गया था। तो भला मैं कैसे जा सकता था वहां। एक बार लगा
कहीं हरना बाबा कनाट प्लेस तो नहीं जा रहे। अगर ऐसा हुआ तो मैं भी उनके पीछे-पीछे
कनाट प्लेस चला जाऊंगा। सुना था बहुत शानदार है कनाट प्लेस। हरना बाबा गंदे नाले
पर बनी संकरी पुलिया को पार करके रामलीला मैदान की तरफ जा रहे थे। शाम को अक्सर ही
गली के लोग सैर के लिए वहां जाते थे।
मुझे नानी रामलीला के दिनों में ही
वहां जाने देती थीं। उन दिनों पुलिया पर दोनों तरफ खोमचे वालों की भीड़ होती थी।
हमारे बाजार का मशहूर रेवड़ी वाला भी शाम को लैम्प जलाकर वहां बैठा करता था और
गाना गाकर ग्राहकों को बुलाता था।
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जाते को बुलाती हैं रेवडि़यां
रोते को हंसाती हैं रेवडि़यां
गुलाब की खुशबू हैं रेवडि़यां।
कई बार तो उसका सुरीला रेवड़ी-गीत
सुनने के लिए ही मैं देर-देर तक वहां खड़ा रहता था। उसकी एक आंख खराब थी पर सचमुच
रेवडि़यां बहुत अच्छी बनाता था वह।
पर उस शाम पुलिया पर कोई नहीं था।
कुछ-कुछ अंधेरा हो चला था। मुझे एक बार डर लगा फिर मन ने कहा-‘‘जब हरना बाबा हैं तो डर कैसा।’’ मैं उनके पीछे-पीछे बढ़ता चला गया।हरना
बाबा रामलीला मैदान में जाकर घास पर बैठ गए। वह गरदन झुकाए न जाने क्या सोच रहे
थे। फिर हाथों को सिर के नीचे लगाकर घास पर लेट गए और आंखें बंद कर लीं। क्या वह
मैदान में सोने के लिए आए थे? सो तो वह घर में भी सकते थे। मेरी समझ में नहीं आया कि क्या करूं।
क्या घर लौट जाऊं?
मैं
इतनी दूर आ गया था। कुछ देर उनके पास खड़ा रहा, फिर धीरे से पास ही बैठ गया।
आकाश में सूरज ढल गया था। लौटते परिंदे
और उड़ती हुई रंग-बिरंगी पतंगें। रामलीला मैदान में कम लोग थे। अगर बाबा सोते रहे
और अंधेरा हो गया तो? एकाएक
हरना बाबा ने आंखें खोलकर मुझे देखा और झटके से उठ बैठे। वह धीरे से हंसे। मैंने
उन्हें हंसते हुए कभी नहीं देखा था। हमेशा चुप-चुप रहते थे। मैंने देखा उनके मुंह में
दांत एकदम नहीं थे। उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रख दिया। दबाते हुए बोले-‘‘देवन, तू कब आया? तू
तो सुजानी के साथ आगरा गया था न।’’
‘‘आज ही आया हूं। पड़नानी बीमार हैं न।’’
‘‘ओ, तेरी पड़नानी संपत! हां, मैंने भी सुना था।’’ बाबा ने कहा। हमारी पड़नानी को गली में सब संपत के नाम से जानते थे।
मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘जब आप घर से चले हैं, मैं भी आपके पीछे-पीछे हूं। घर में
दादी को नहीं देखा। वह कहां हैं, कैसी हैं?’’
मेरे इतना कहते ही हरना बाबा रो पड़े।
उनकी हथेली मेरे कंधे पर कस गई। उनकी आंखों से आंसू गिरते जा रहे थे। ‘‘अब कहां है तेरी दादी। वह मर गई।’’ और हरना बाबा ने आकाश की ओर हाथ उठा
दिया। मैंने देखा ऊपर आकाश काला हो चला था। सब तरफ पक्षियों का शोर गूंज रहा था।
आसपास भीड़ हो गई थी, पर
मैंने पाया कोई भी रोते हुए हरना बाबा की ओर नहीं देख रहा था।
मन में एक धक्का सा लगा। पहले तो समझ
में ही नहीं आया कि हरना बाबा क्या कह रहे हैं, पर फिर उनके आंसुओं ने सारी बात कह दी। बाबा कुछ देर चुप-चुप रोते
रहे। मैं उनके एकदम पास बैठा
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था, पर मैं भला क्या कर सकता था। मुझे वह
घटना याद आई जब हरना बाबा की पत्नी ने मुझे गोद में लेकर प्यार किया था। वह
हंसते-हंसते रो रही थीं।
फिर बाबा बताने लगे, ‘‘तेरी दादी बीमार तो हमेशा से थीं। इलाज
चलता था, पर मुझे यह नहीं लगता था कि वह इस तरह
चली जाएंगी। वह सुबह देर से उठती थीं। मैं चाय बनाकर ही उन्हें जगाया करता था। उस
दिन मुझे चाय बनाने में देर हो गई, फिर भी तेरी दादी नहीं जागी। बाद में देखा तो.....” और हरना बाबा चुपचाप रोने लगे।
‘‘जब से उन्हें मुन्नू का फोटो मिला था, तब से ज्यादा ही बीमार रहने लगी थीं।
पता नहीं मुन्नू का पुराना फोटो उन्हें कहां से मिला, किसने दिया। हर समय फोटो को हाथ में
लेकर रोती रहती थीं।“
मुझे याद आ गया। अखबार वाली कोठरी में
पुराने बटुए में रखा फोटो। वह तो मैंने ही खोजा था पर फोटो मैंने दादी को दिया
नहीं था। उन्होंने खुद ही फोटोग्राफ मेरे हाथ से छीन लिया था। तो क्या वह फोटो मुन्नू
का था। मुन्नू, कौन मुन्नू?
पर ज्यादा नहीं सोचना पड़ा--हरना बाबा
ने अपने आप बता दिया कि मुन्नू उनका इकलौता बेटा था। एक दिन बाजार गया था फिर कभी
नहीं लौटा। यह बहुत पुरानी बात थी। हरना बाबा ने बताया कि मुन्नू के गायब होने के
बाद से ही उसकी मां बीमार रहने लगी थीं। उन्होंने मुझे यह भी बताया था कि मुन्नू
जब घर से गायब हुआ तो वह मेरे जितना था।
‘‘कहां चला गया होगा मुन्नू?’’ मैंने जैसे अपने आप से पूछा था और बाबा
ने एक बार फिर आकाश की ओर देखा था जो अब और भी काला-काला हो गया था। उस पर
कहीं-कहीं तारे झिलमिलाने लगे थे। बहुत दूर आसमान में लाल रंग की लकीर सी खिंची
थी। देखकर न जाने क्यों मुझे कुछ डर लगा था।
रामलीला मैदान में अंधेरा छा गया था।
मेरा मन हो रहा था, जल्दी
से उठकर घर चला जाऊं। पर मैं अकेला नहीं जा सकता था। मुझे रास्ता ठीक से पता नहीं
था। इससे पहले मैं जब भी यहां आया था
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तो कोई न कोई साथ रहता था। रामलीला के दिनों में
यहां मेला लगा करता था। तब सब तरफ खूब तेज रोशनी रहती थी पर आज तो सब तरफ अंधेरा
था। तसल्ली यही थी कि हरना बाबा पास में बैठे थे।
‘‘अरे, तू घर बताकर भी आया है या नहीं?’’ हरना बाबा ने मेरा कंधा पकड़कर पूछा था। मैं
भला क्या कहता। मैं कैसे कहता कि मां से बचने के लिए मैं उनके पीछे-पीछे यहां तक आ
गया था। पर अब लग रहा थ कि मैंने गलती की। मां मुझे ढूंढ़ रही होगी। यह सोच कर
अच्छा भी लगा कि मां मुझे खोज-खोज कर थक गई होगी, और मैं उन्हें नहीं मिला था। मन में आया ‘क्या मां मेरे लिए कभी वैसे ही रो सकती
थीं जैसे मुन्नू की मां उसका फोटो देखकर रोई थीं। मन में किसी ने कहा-‘‘ऊं हूं। मां मेरे लिए कभी नहीं रो
सकतीं। अगर ऐसा होता तो वह मुझे छोड़कर ही क्यों जाती। अच्छा है, वह मुझे ढूंढ़ती रहें और मैं उन्हें
कभी न मिलूं। शायद तभी उनकी आंखों में आंसू आएंगे मेरे लिए।“
तभी मेरा ध्यान टूटा, बाबा कह रहे थे-‘‘देवन, अब घर चलना चाहिए। तू क्यों आया मेरे पीछे-पीछे आ चलें। और उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैं
उनके पीछे चल पड़ा। मुझे तसल्ली थी कि उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया था, वरना क्या पता मैं भटक जाता।
हरना बाबा चुपचाप चल रहे थे। घास पर
उनकी चप्पलों से अजीब सी आवाज हो रही थी। तभी उन्होंने कहा-‘‘अगर तू न होता तो मैं इस समय हरिहर
बाबा के आश्रम में चला जाता।’’
‘‘हरिहर बाबा, वह कौन हैं?’’
‘‘हैं नहीं थे। बहुत बड़े साधु थे। सामने
ही तो है उनका आश्रम।’’ मैंने
देखा वह सामने की ओर इशारा कर रहे थे।
मैंने अंधेरे में देखने की कोशिश की पर
कुछ दिखाई न दिया। जैसे दूर कहीं दीपक जल रहा हो। क्या वही था हरिहर बाबा का आश्रम? क्या मैं भी वहां जा सकता था? शायद हरना बाबा मुझे वहां कभी न ले
जाते। हरना बाबा के पीछे-पीछे मैं पुलिया पर जा पहुंचा जो हमारी गली और रामलीला
मैदान के बीच बहने वाले गहरे नाले के ऊपर बनी हुई थी। आज वहां अंधेरा था। मेले के
दिनों की तरह वहां रोशनी नहीं थी। गाना गाकर रेवडि़यां बेचने वाला भी नहीं बैठा
था। हरना बाबा पुलिया के ऊपर पहुंचकर रुक गए, जैसे थक गए हों। क्योंकि उन्होंने मेरा हाथ छोड़ दिया और पुलिया की
मुंडेर पर बैठ गए। मैंने डरते-डरते नाले में झांका-एकदम काला अंधेरा। हां, कहीं से पानी बहने की आवाज और तेज बदबू
आ रही थी। हो सकता है नाले में फेंके
जाने वाले सांप ऊपर भी आ जाते हों। यह सोचते ही बदन में झुरझुरी सी होने
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लगी।
मैंने अपना हाथ बाबा के घुटने पर रख दिया। वह बिना
कहे ही जैसे मेरे मन की बात समझ गए। बोले-‘‘क्यों डर लग रहा है? अरे,
डर
कैसा। मैं जो साथ हूं।’’
‘‘नहीं, मैं डरता नहीं बाबा।’’ मैंने हिम्मत बांधते हुए कहा। पर मैं सचमुच डरा हुआ था।
‘‘आ चलें!’’ हरना बाबा उठ खड़े हुए। उनका हाथ थामे हुए मैं
गली के बाहर दीवार में लगा लोहे का बड़ा फाटक पार करके अंदर आ गया। वहां खूब
चहल-पहल थी। आसपास दुकानों पर रोशनी थी, बच्चे इधर-उधर भाग रहे थे। लगा जैसे मैं बहुत दिनों बाद घर लौट रहा
हूं। गप्पड़ की गौशाला में गायों के रंभाने के साथ-साथ घंटियों की आवाज हो रही थी।
सब तरफ गोबर की दुर्गंध थी। उससे थोड़ा आगे बनी मस्जिद के बाहर रोशनी में एक
टोपीवाला कोयलों की आंच पर कुछ भून रहा था। मैं जानता था रशीद दूधवाला मस्जिद के
पीछे वाली गली में रहता था। वह रोज सुबह-शाम हमारे घर में दूध देने आया करता था।
मैंने उसका घर कभी नहीं देखा था, पर वह मुझसे कई बार कहता था-‘‘कभी आओ न हमारे घर। एक बाल्टी दूध पिलाऊंगा।’’ और जोर से हंस पड़ता था। एक दिन उसने
कहा था-‘‘नहीं चलोगे तो जबरदस्ती ले जाऊंगा।’’ सुनकर मैं नानी की गोद में जा छिपा था।
फिर मैंने कई दिन रशीद से बात नहीं की थी। मैंने सुना था नानी उसे डांट रही थी।
उसके जाने के बाद उन्होंने मुझे समझाया था-‘‘अगर रशीद कभी तुम्हें ले जाए तो उसके साथ मत जाना।’’
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‘‘क्यों?’’ मैंने पूछा था। ‘‘क्या रशीद भी हरना बाबा वाली दादी जैसा है?’’
नानी ने कोई जवाब नहीं दिया था, बस मुझे गुस्से से घूरती रह गई थीं।
फिर कहा था-‘‘वे मुसलमान हैं और हम हिंदू। ये लोग
बकरे काटते हैं,
हम
मांस नहीं खाते। उनके भगवान और हैं हमारे और।........”
‘‘लेकिन आगरे वाले भी तो मांस खाते हैं।
वह तो जुबैदा के पास जाते हैं।“ मैंने कहा था।
नानी ने कोई जवाब देने के बदले मेरे
गाल पर थप्पड़ जड़ दिया। क्या यह मेरी बात का जवाब था?
‘‘मैंने सोच लिया था, अगर रशीद मुझसे चलने को कहेगा तो मैं
जरूर जाऊंगा। मैं देखना चाहता था, उसका मकान कैसा था? क्या उसके घर में कोई मेरे जैसा था?
मुझे खिड़की पटनामल के पास छोड़कर हरना
बाबा आगे चले गए। मैं दहलीज में कुछ देर खड़ा रहा, फिर धीरे-धीरे अंदर घुसा। अंदर नानी के बोलने की तेज आवाज आ रही थी।
मेरे कान मां की आवाज सुनना चाहते थे, पर उनकी आवाज नहीं सुनाई दी मुझे। मैं हड़बड़ाया सा आंगन में जा
पहुंचा। वहां स्टूल पर लालटेन जल रही थी। मुझे देखते ही किसी ने कहा-‘‘लो आ गया।’ मेरी आंखें मां को ढूंढ़ रहीं थीं,पर वह नजर नहीं आईं। जैसे मैं उनसे
छिपता फिरता था,
शायद
वह भी मेरे साथ वैसा ही खेल कर रही थी। जरूर किसी कोठरी में जा छिपी होगी। और वहीं
से मुझे देखकर हंस रही होगी।
नानी ने झटके से मुझे खींच लिया-‘‘कहां चला गया था अभागे!’’
‘‘मैं तो...’’
‘‘वह कितनी रोई थी। हम दोनों ने मिलकर
तुझे कितना ढूंढ़ा था। बोल कहां चला गया था।’’
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मेरी आंखों को मां अब भी दिखाई नहीं दे
रही थी। नानी ने मेरी आंखों को जैसे पकड़ लिया। ‘‘अब उसे क्या ढूंढ़ रहा है। वह तो गई। जाते समय कितना रोई थी।’’
‘‘मां....’’ मैं ठीक से बोल नहीं पा रहा था।
‘‘हां, चली गई तेरी मां। वह तो थोड़ी देर के लिए आई थी।’’ कहकर नानी आंचल से आंखें पोंछने लगीं।
मन में कहीं चोट लगी, पर कानों पर भरोसा नहीं हो रहा था। मां
मुझसे बात किए बिना भला कैसे जा सकती थी। पर शायद सच यही था कि वह चली गई थी।
आंखों के आगे धुंधलका सा छा गया, मैं दौड़ता हुआ जीना चढ़कर छत पर चला गया। वहां पड़ी चारपाई पर जा
लेटा। तो मां चली गई थी। क्यों चली गई थी। इसका मतलब यही था कि उसे मेरी बिल्कुल
परवाह नहीं थी। ऐसा कौन सा जरूरी काम रहा होगा जिसे वह अपने प्यारे बेटे के लिए
छोड़ नहीं सकती थी।
‘‘प्यारा बेटा’’ मेरे होंठों से निकला और मैंने गुस्से
में अपनी हथेली जोर से दीवार पर दे मारी। पूरे बदन में झनझन होने लगी। मां इतने
दिनों बाद आई थीं और...
रात को नानी ने बहुत कहा, पर मैंने खाना नहीं खाया। शायद मुझे
उम्मीद थी कि नानी कहेंगी, ‘अरे मैं तो यूं ही हंसी कर रही थी। तेरी मां कहीं गई नहीं।’’ और फिर मां किसी अंधेरी कोठरी से
निकलकर मुझे अपनी गोद में भर लेंगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। मां सचमुच मुझसे बिना
मिले चली गई थी। क्या इसमें उनका कसूर था कि मैं उनसे नहीं मिला था? मैं जानता था कि इसमें मां का कोई दोष
नहीं था। वह तो मुझसे मिलना चाहती होंगी, इसलिए नानी के साथ मुझे ढूंढ़ने के लिए गली में काफी देर तक खड़ी भी
रही थीं। पर मैं ही जानबूझकर हरना बाबा के घर की अखबारों वाली कोठरी में छिपा रहा
था। और फिर हरना बाबा के पीछे-पीछे रामलीला मैदान चला गया था। पर फिर भी मैं अपनी
गलती मानने को तैयार नहीं था। आखिर सबसे बड़ी गलती तो मां की ही थी जो मुझे यों
अकेला छोड़कर पराये आदमी के घर में रहने चली गई थी हमेशा के लिए।
मैं सारी रात सो न सका। बीच-बीच में
कुछ देर के लिए नींद लग जाती थी, पर जल्दी ही टूट जाती थी। सोते-सोते कई बार ऐसा लगा जैसे कोई पास में
खड़ा होकर माथे को सहला रहा हो। उंगलियां मां की लगीं पर मां थी कहां। नानी कुछ
देर चारपाई के पास खड़ी रहीं और फिर नीचे चली गईं। मेरी तरह वह भी नहीं सो पा रही
थीं।
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एकाएक मेरी नींद टूट गई। मैं झटके से
उठ बैठा। नीचे से नानी पुकार रही थी-‘‘उठ जा, स्कूल
को देर हो जाएगी।’’
मैंने इस पुकार का कोई जवाब नहीं दिया।
स्कूल जाने की बात अजीब उदासी और चिढ़ से भर देती थी। मुझे गणित के मास्टर
जयमलसिंह याद आते थे जो हर पीरियड में पीटा करते थे। ऐसा कभी नहीं हुआ कि उनका
पीरियड सही सलामत गुजरा हो। हिंदी के मास्टरजी वासुदेव शर्मा भी मारते थे, पर अगर हम पैसे इकट्ठे करके उन्हें चाय
पिला देते तो फिर माफी मिल जाती थी। ऐसी जगह जाने का भला मेरा मन कैसे हो सकता था।
मैं सोचा करता था-क्या कोई ऐसी जगह भी हो सकती है, जहां स्कूल न जाना पड़े। या फिर ऐसा कोई स्कूल हो, जहां छात्रों को इस तरह पीटा न जाता
हो। नानी पुकारती रहीं, और
मैं चादर ओढ़े लेटा रहा। आकाश में काले-काले बादल दौड़ लगा रहे थे। ठंडी हवा बदन
पर अच्छी लग रही थी, लेकिन
नानी की पुकार और पिछली शाम मां के मुझसे बिना मिले चले जाने से मुझे गुस्सा आ रहा
था-नानी पर, मां पर, अपने पर--सब पर।
सीढि़यों पर आहट हुई। मैं बंद आंखों से
समझ गया कि नानी आई हैं और पास में खड़ी हो कर मुझे देख रही हैं। मैंने जोर से
आंखें मूंद लीं,
पर
इस तरह पीछा छूटने वाला नहीं था।
नानी का हाथ माथे पर महसूस हुआ फिर
उनकी घबराहट भरी आवाज सुनाई दी-‘‘अरे,
तुझे
बुखार है।’’
‘‘बुखार! ’’ मेरे मुंह से निकला। मेरी चुप्पी ने नानी को
घबरा दिया था। मन हुआ जोर से उछलूं और तिमंजिले की खुली छत पर जाकर कूदने लगूं।
मैंने अंधमुदी आंखों से नानी की घबराहट
देख ली थी। मैं उठने लगा तो नानी ने जल्दी से कहा-‘‘लेटा रह। थोड़ी देर में तुझे वैद्यजी के पास ले चलूंगी। अभी तेरे लिए
कुछ खाने को लाती हूं।’’
‘‘नहीं, मन नहीं है।’’ मैंने कहा और कराहने लगा।
‘‘अच्छा, तो नीचे चलकर लेट। सुबह-सुबह यहां बंदर आ जाते हैं।’’ नानी ने मुझे डराना चाहा।
‘‘आज बंदर आ जाएं तब भी मैं उठने वाला
नहीं। तुम जाओ, मैं थोड़ी देर में आऊंगा।’’ मैंने कहा। नानी ने एक बार फिर मेरे
माथे पर हाथ फिराया और धीरे से सहला कर सीढि़यों से उतर गईं।
बेचारी नानी! मैं जैसे चाहता था, उन्हें नचा लेता था। वह मेरी हर झूठी
बात सच मान लेती थीं। उनकी बस एक ही इच्छा थी कि मैं पढ़-लिखकर कुछ बन जाऊं।
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कई बार मैंने नानी और मां को एक दूसरी
के गले लगकर रोते देखा था। मेरे नाना देहरादून के वन विभाग में बड़े अफसर थे। नानी
बताया करती थीं कि वह बंदूक लेकर शिकार खेलने जाया करते थे। उन्होंने तीस शेर मारे
थे। कभी-कभी नानी मुझे एक डिबिया में रखा शेर का नाखून दिखाती थीं। इसे नाना जंगल
से लेकर आए थे। मेरी मां के लिए वह बताती थीं-‘‘तेरी मां जब एक साल की थी तो तेरे नाना को किसी ने जहर दे दिया था।’’ तीस शेरों का शिकार करने वाले मेरे
नाना मर गए थे। कैसी अजीब बात थी-मेरी मां ने अपने पिता यानी मेरे नाना को तब खो
दिया था जब वह एक साल की थीं-और जब मेरे पिता की मृत्यु हुई तो मैं और भी छोटा था।
मैंने सुना था मेरे पिता रामपुर में डाक्टर थे। नानी ने बताया था कि मेरे पिता भी
जहर के कारण मरे थे। पता नहीं जहर उन्होंने अपने आप खाया था या किसी दूसरे ने दिया
था।
मैंने जब-जब पूछा तो नानी ने हर बार
आकाश की ओर देखा था। कुछ वैसे ही जैसे
हरना बाबा ने अपनी पत्नी के मौत की खबर सुनाते हुए देखा था। कौन बताएगा कि मेरे
नाना को किसने मारा था, मेरे
पिता कैसे मरे थे?
क्या
मां को इस बारे में कुछ मालूम था? शायद नहीं, शायद
हां, पर उन्होंने कभी कुछ बताया नहीं।
आकाश में बादल दौड़-भाग रहे थे, मैं यूं ही लेटा था। तसल्ली थी कि आज
स्कूल नहीं जाना पड़ेगा। ऊपर वाली छत पर कौए बोल रहे थे। क्या हमारे घर कोई मेहमान
आने वाला था? भला कौन आएगा? एक मेहमान थी मां, जो चुपचाप चली गई थीं। हां, मेहमान ही तो थीं वह। सदा ही सिर्फ कुछ
दिनों के लिए आया करती थीं। और फिर मेरे ना चाहने पर भी चली जाया करती थीं।
बादल फिर गरजे, नीचे से नानी की पुकार आई। मैंने कहा-‘‘मैं ठीक हूं।’’ और सीढि़यां चढ़कर सबसे ऊपर वाली छत पर
चला गया। मेरे पहुंचते ही कई कौए फड़फड़ाकर उड़ गए। दूर सामने वाले पीपल के पत्ते
खड़-खड़ कर रहे थे। शाम को अक्सर उस पर तोते उतरते दिखाई देते थे।
आकाश एक तरफ से काला-काला दिखाई दे रहा था। वहां
रह-रहकर बिजली चमक उठती थी। तभी फड़फडाता हुआ एक कागज मेरे पास आ गिरा। मैंने झुक
कर उसे उठा लिया। छोटा कागज नहीं, पूरी ड्राइंग शीट थी। उस पर एक चित्र बना हुआ था। पहाड़, नदी और नदी में उछलती मछलियां। चित्र
सुंदर था। पता नहीं किसने बनाया था। मैं चित्र को देख रहा था, तभी एक आवाज आई-‘‘लाओ, मुझे दो, मेरा
है।’’
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मैंने देखा बगल वाले मकान की मुंडेर के
पीछे से एक लड़का झांक रहा है। आंखें मिलते ही उसने मुंडेर के पार से हाथ बढ़ाया।
बोला-‘‘दो न।’’
‘‘तुम कौन हो? तुम्हें क्यों दूं।’’ मैंने कहा।
‘‘मैं मोहन हूं। इसी मकान में रहता हूं।
लाओ, दे दो।’’ मोहन नाम के उस लड़के ने फिर कहा।
‘‘मैं नहीं देता। क्यों दूं। मुझे क्या
पता किसका है। मेरे पास तो इसे हवा लेकर आई है। उसी को दूंगा।’’ मैंने चिढ़कर कहा। हालांकि ऐसा बोलने
की कोई बात नहीं थी। पर मुझे गुस्सा आया हुआ था। पिछली रात से मुझे हर चीज पर
गुस्सा आ रहा था।
अपने को मोहन कहने वाला लड़का उछल कर
मुंडेर पर चढ़ गया, फिर
हमारी छत पर कूद गया। वह हंस रहा था-‘‘अगर यह कागज दे दोगे तो ऐसे ही और चित्र दिखाऊंगा तुम्हें।’’
‘‘क्या सच, इसे तुमने बनाया
है!’’ कहते हुए चित्र वाला कागज मैंने उसे दे दिया।
फिर कहा, ‘‘लेकिन तुम्हें इससे पहले तो कभी देखा नहीं इस
तरफ। और तुम कहते हो कि यहीं रहते हो।’’
‘‘जरूर नहीं देखा होगा। हम लोग कुछ दिन
पहले ही यहां रहने आए हैं। पहले गली मुर्गेवालान में रहते थे।’’ मोहन बोला।
मुझे अब भी विश्वास नहीं हो रहा था कि
यह चित्र उसने बनाया होगा। इसीलिए मैंने कहा-‘‘चलो दिखाओ मुझे।’’
‘‘आओ।’’ कहकर वह मोहन नाम का लड़का मुंडेर पर से अपनी
छत पर कूद गया। अब सिर्फ उसकी गरदन ही दिखाई दे रही थी। जैसे किसी ने सिर काटकर
मुंडेर पर रख दिया हो, क्योंकि
उसका बाकी शरीर दीवार के पीछे छिप गया था। हाथ के अंगूठे जितने छोटे लड़के वाली
किताब में ऐसे ही एक जादुई आदमी की कहानी थी, जिसका सिर्फ सिर ही दिखाई देता था। बाकी शरीर अदृश्य रहता था। अंगूठे
जितने छोटे लड़के को कटे सिर वाला आदमी एक महल में ले जाता है, जहां जाते ही चमत्कार हो जाता है। उसका
अंगूठे जितना छोटा शरीर बड़ा होकर सामान्य आदमी जैसा हो जाता है। उसे किसी जादूगर
ने अपने जादू से छोटा बना दिया था।
‘‘आओ न। स्टेशन से गाड़ी जाने वाली है।
तुम प्लेटफार्म पर ही खड़े रह जाओगे और मैं गाड़ी लेकर चला जाऊंगा।“ मुंडेर के
पीछे से झांकते मोहन के सिर ने कहा और हंस पड़ा।
‘‘प्लेटफार्म! गाडी?’’ क्या वह पागल था! कैसी अजीब-अजीब बातें
कर रहा था।
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‘‘झूठ नहीं, सच। आओ दिखाऊं तुम्हें।’’ उसने कहा तो मैं मुंडेर पर से कूदकर
उसकी छत पर चला गया। मैं इससे पहले उस मकान में कभी नहीं गया था।
छत के एक कोने की तरफ ले जाते हुए उसने
कहा-‘‘यही है मोहन नगर।’’
‘‘मोहन नगर!’’ मैंने आश्चर्य से देखा-दीवार के
साथ-साथ एक छोटी-सी तिरपाल तनी हुई थी। उसके आगे नीले रंग का परदा लटका था। उस पर
बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था-‘सावधान। अफ्रीका की विषैली मकडि़यों से बचकर चलें।’
मेरे कदम अपनी जगह जम गए। मारे डर के
बदन में झुरझुरी सी होने लगी। मकडि़यां तो अपने घर में भी घूमती-फिरती देखी थीं, पर विषैली अफ्रीकी मकडि़यां कैसी होती
थीं। मोहन के कहने पर इधर आकर कहीं मैंने गलती तो नहीं की। मैं इधर-उधर देखने
लगा-कहीं कोई मकड़ी बदन पर चढ़ जाए और..
‘‘अरे रे, तुम तो सचमुच डर गए। यह तो मैंने ही झूठमूठ लिख दिया है ताकि मेरे
पीछे से कोई यहां आकर छेड़छाड़ न करे। सच पूछो तो यहां एक भी अफ्रीकी मकड़ी नहीं
है।’’
‘‘क्या सच...तो फिर...’’ मुझे कुछ तसल्ली हुई। इतने में मोहन ने
नीला परदा हटा दिया। मैंने देखा और देखता रह गया। एक कोने में एक नन्हा-मुन्ना
रेलवे स्टेशन बना था। लाल बजरी वाला छोटा प्लेटफार्म, उस पर तीलियों का पुल। प्लेटफार्म के एक
तरफ छोटे-छोटे रेल के डिब्बे और काले रंग का इंजन खड़ा था। प्लेटफार्म पर एक जगह
लिखा था-मोहन नगर जंक्शन।
देखते-देखते लगा जैसे मैं कोई
जाना-पहचाना दृश्य देख रहा हूं। ‘‘अरे यह तो नई दिल्ली रेलवे स्टेशन बनाया है।’’
‘‘हां, वही तो। ’’ मोहन
ने कहा-‘‘मैं अक्सर ही वहां जाता हूं। हूबहू उसी
को बना दिया है मैंने।’’
‘‘ये डिब्बे, ये इंजन...’’
‘‘ये सब पोस्टकार्डों के बने हैं।
डिब्बों पर लाल रंग पोता हुआ है और इंजन पर
काला। ’’ वह बताता जा रहा था।
मोहन ने एक डोरी खींची तो खट से एक तरफ बना छोटा
सा सिग्नल झुक गया। मैं देखता रह गया ( पांचवीं क़िस्त समाप्त ) ( अभी और है)
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