शनिवार, 14 दिसंबर 2019


अपने साथआत्मकथा—देवेन्द्र कुमार—क़िस्त:8  
आत्म कथा –- आठ  

आत्म कथा सातवीं क़िस्त –( पृष्ठ 83 से 96 )  तक अब आगे पढ़ें
मैनें मोहन को माँ के साथ एक आदमी के पीछे खुश –खुश जाते देखा. लौट कर वह मुझे रेलवे स्टेशन ले गया. वह अपने फाड़े हुए चित्रों को फिर बनाना चाहता था. मोहन बहुत खुश था और मैं हैरान. तभी दो सिपाही आ गए. मोहन ने उनका चित्र बनाया पर मुझे उनके जूते साफ़ करने पड़े. शायद मैं और किसी काम का नहीं था. मैंने मोहन से फिर कभी न मिलने का फैसला किया. लेकिन मोहन फिर आया. वह पैसे मांग रहा था. उसकी माँ चली गई थी. उनके पास पैसे एकदम नहीं थे, तब मोहन और मेरे बीच सौदा हुआ- वह पैसों के बदले अपने बनाये सारे माडल और चित्र मुझे सदा के लिए देने को तैयार हो गया  था. मैंने भगवान की गुल्लक से पैसे चुराए और फिर...

मोहन के चेहरे पर परेशानी झलकने लगी। उसके होंठ कुछ कहने को हिले, फिर उसने कहा-‘‘मुझे डर है मां कहीं चली न जाएं और मैं यहीं रह जाऊं।’’
‘‘यह सब मैं नहीं जानता। जैसा कहा है वैसा करो।’’ मैं मोहन की बात सुनने को तैयार नहीं था।
‘‘ठीक हे। तुम अपनी छत पर पहुंच जाओ। मैं इन चीजों को पकड़ाता जाऊंगा, तुम अपनी छत पर रखते जाना।...’’
मैं अपनी छत पर मुंडेर से सटकर खड़ा हो गया। मोहन एक-एक माडल व चित्र मुझे पकड़ाता गया।
फिर उसने कहा-‘‘आओ देख लो, अब यहां कुछ बाकी नहीं है।’’
मैंने मुंडेर पर चढ़कर देखा, मोहन नगर वाला कोना सचमुच सुनसान था। ‘‘अब तुम जा सकते हो।’’ मैं बोला तो मोहन एक भी शब्द कहे बिना सीढि़यों से उतार कर गायब हो गया। मैं कुछ देर खड़ा देखता रहा कि कहीं वह फिर से लौट न आए। पर वह नहीं आया। मैं सोच रहा था-तो क्या ये मां-बेटे अपने घर को ऐसे ही छोड़कर चले जाएंगे। कहां, किसके पास...? और वह कौन था जिस पर मोहन ने पत्थर फेंके थे और फिर वह कौन था जिसके पीछे ये दोनों उस दिन गली से खुश-खुश जाते दिखाई दिए थे। इन सवालों के जवाब भला कौन दे सकता था?
मैंने छत के कोने में रखे माडलों को देखा तो मन जैसे झूम उठा। अब ये सब मेरे थे-मेरे। भले ही मैंने इन्हें नहीं बनाया था पर अब मैं इनका मालिक बन गया था। मैं मुंडेर से पीछे हटने को हुआ पर फिर लगा जैसे मोहन छत पर आ पहुंचा हो। मैं उछल कर मोहन की छत पर जा पहुंचा। छत सुनसान थी। मोहन नगर वाला कोना सूना था पर मेरी तसल्ली नहीं हुई। मैं धड़धड़ाता हुआ नीचे उतरता चला गया और मोहन के एक कमरे वाले घर के सामने जा खड़ा हुआ। दरवाजा खुला था। कमरे में अंधेरा था, अंदर कोई आहट नहीं थी। हां, किसी बरतन पर पानी टपकने की आवाज आ रही थी।
‘‘मोहन!’’ मैंने पुकारा...कोई उत्तर नहीं मिला।
‘‘मोहन...जरा बाहर आओ, तुझसे कुछ बात करनी है।’’ इस बार मैंने जरा जोर से पुकारा, पर जवाब कोई नहीं मिला। क्या मोहन सचमुच अपना सब कुछ मुझे सौंपकर चला गया था।
मुझे किसी ने नहीं टोका, हालांकि मोहन के कमरे के दोनों तरफ के कमरों में रोशनी थी, खूब आवाजें भी आ रही थीं। मैं फिर से अपनी छत पर आ गया। अब मोहन नगर मेरा था, उसमें रखी हर चीज मेरी थी।
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‘‘मोहन नगर नहीं, देवन नगर...’’ मेरे मुंह से निकल गया। हां, अब मैं उसे देवन नगर कह सकता था। वह मेरा था, सिर्फ मेरा...
उसी रात मैंने नानी से पूछा था-‘‘तुमने कभी देखा है कि मैं क्या-क्या करता हूं।’’
‘‘हां, देखा है, हर समय अंदर-बाहर आता-जाता रहता है। नानी ने कहा और मुस्करा दी। यानी उन्हें यह पता नहीं चला था कि भगवान की तस्वीर के पीछे बनी उनकी गुप्त गुल्लक से रुपए गायब हुए हैं, वरना वह कुछ न कुछ जरूर कहतीं।
‘‘क्या तुमने मुझे छत पर कुछ बनाते हुए देखा है?’’
‘‘छत पर...क्या बनाता है तू?’’ नानी ने अचरज से पूछा
‘‘आओ देखा और बताओ कैसा बना है?’’ और मैं नानी का हाथ पकड़कर ऊपर ले गया। इस बीच मैंने तिमंजिले पर टीन शेड के नीचे मोहन से मिला सारा सामान लगा दिया था। भले ही मोहन मुझे बताने के लिए मौजूद नहीं था, पर मैंने देखा था कि उसने एक बार बिखेरने के बाद मोहन नगर को दोबारा कैसे सजाया था।
दूसरी चीजों के साथ मोहन से अफ्रीकी मकडि़यों की चेतावनी वाला परदा भी ले लिया था मैंने। नानी की आंखों ने उस चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया। जब मैंने परदा उठाया तो वह अचरज से देखती रह गईं। अब रेलवे स्टेशन पर लगे बोर्ड पर मोहन नगर नहीं, देवन नगर लिख दिया गया था।
नानी कुछ पल आंखें फाड़े देखती रहीं। फिर उन्होंने मेरा माथा सूंघा, मेरी उंगलियों को चूमती  रहीं देर तक। ‘‘अब मैं चैन से मरूंगी।’’ उन्होंने आंसू बहाते हुए कहा।
मैंने नानी के होंठों पर हाथ रख दिया। जब भी उन्हें मुझ पर प्यार आता था तो वह यह बात जरूर कहती थीं। क्या उन्हें इस बात का जरा भी ख्याल नहीं आता था कि उनके बाद मैं कैसे रहूंगा। मां तो वापस आएंगी नहीं मेरे पास...
‘‘अरे, तूने मुझे तो कुछ भी नहीं बताया। बहुत शैतान है तू।’’
‘‘मैं चाहता था कुछ पूरा बनाकर ही तुम्हें बताऊं। तुम तो मुझे एकदम निकम्मा समझती हो न! क्या अब भी तुम्हें ऐसा लगता है।’’ कहकर मैं नानी को चित्र दिखाने लगा।
नानी ने उसी समय आंचल में बंधा रुपया निकाला और मेरे सिर पर न्योछावर कर दिया। बोलीं-‘‘मैं प्रसाद चढ़ाऊंगी। अपने देवन नगरको ऐसे ही लगा रहने दे। जब तेरी मां आएगी तो उसे दिखाऊंगी कि उसका बेटा कितना होशियार हो गया है।’’
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मां का नाम सुनते ही मेरा मूड खराब हो गया। मैंने तुनककर कहा-‘‘न कोई मेरी मां है, न मैं किसी का बेटा हूं। मेरे सामने उनका नाम भी मत लिया करो।’’
‘‘क्यों क्या बुरा कर दिया उसने? पता है उसे कितनी परेशानी है उस घर में। सौतेले बच्चे, नए लोग और ऊपर से हर समय तेरे बारे में सोच-सोचकर परेशान रहती है।’’ कहकर नानी आंसू पोंछने लगीं। मैं उन्हें वहीं खड़ी छोड़कर नीचे उतर आया।
कुछ दिन बाद जन्माष्टमी का त्योहार था। उस मौके पर हमारी गली में खूब चहल-पहल रहती थी। मंदिर में झाकियां सजाई जाती थीं। गली के सब लोग बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। मंदिरों के अलावा कुछ बड़े लोगों की हवेलियों में भी झाकियां सजती थीं।
मैं रात को लेटा-लेटा सोच रहा था-क्या हम अपने घर में जन्माष्टमी की झाकियां नहीं सजा सकते?
हर बार मंदिरों में मैं भी झांकियों की सजावट देखने जाता था। लेकिन मेरे देवन नगरजैसे तीलियों तथा पोस्टकार्डों से बने माडल तो मैंने नहीं देखे थे। बस, एक ही कसर थी, हमारे घर में बिजली नहीं थी। मैंने नानी से जन्माष्टमी के अवसर पर झांकियां सजाने की बात कहीं तो उन्होंने कहा-‘‘हां-हां क्यों नहीं।’’ हमारे पड़ोस के घर में बिजली थी। वे लोग नानी के दूर के रिश्तेदार थे। जब हमारे घर में कोई समारोह होता था तो हम उनसे बिजली ले लिया करते थे। मैं कल्पना की आंखों से देख रहा था-हमारे घर के बड़े दालान में ‘देवन नगर’ का स्टेशन बना हुआ है। कुतुब, बिड़ला मंदिर, जंतर-मंतर के माडल बिजली के प्रकाश में जगमगा रहे हैं। हमारे घर में देखने वाले आ रहे हैं, आते जा रहे हैं। जो भी बाहर निकलता है, उसके होंठों पर एक ही बात होती है-यह लड़का तो बहुत बड़ा कलाकार है। देख लेना बड़ा होकर बहुत ऊंचा जाएगा।
मैंने नानी से कह दिया था कि वह अपने किसी जानने वाले से मेरे माडलों की बात न करें। मैं चाहता था कि जन्माष्टमी के मौके पर ही सबको एकाएक पता चले कि गली में एक लड़का कितना बड़ा कलाकार है। नानी ने मेरी बात मान ली, पर घर में रहने वालों को तो पता लगना ही था। मैं देखता था, घर में रहने वाली लड़कियां अब मुझसे इज्जत से बात करने लगी हैं। पहले की तरह ऐ, , अरे देवन कहकर नहीं बुलाती थीं। अब मैं भैया, देवन भैया हो गया था। मैं किसी को ऊपर नहीं जाने देता था, पर फिर भी लड़कियां मौका निकालकर ऊपर टीन शेड में जाकर मेरा कमाल देख ही आती थीं।
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जैसे-जैसे जन्माष्टमी का त्यौहार पास आता जा रहा था, मेरी उत्तेजना बढ़ती जा रही थी।
घनश्याम और रमेश से मेरी जान-पहचान थी। उनसे मैंने जन्माष्टमी के मौके पर झांकियां सजाने की बात कही, पर माडल उन्हें भी नहीं दिखाए। उन दिनों दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी नई-नई खुली थी। मैं भी वहां जाकर किताबें देखना चाहता था। सुना था वहां हजारों पुस्तकें थीं। सकता था।
एक दिन घनश्याम, रमेश वहां गए तो मैं भी उनके साथ चला गया। जन्माष्टमी के पर्व में बस कुछ ही दिन रह गए थे। मैंने काफी तैयारियां कर ली थीं। नानी ने उस दिन के लिए पड़ोसियों से बिजली की बात भी कह दी थी। बस अब जन्माष्टमी का इंतजार था।
दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी में हम तीनों काफी समय तक रहे। कितनी किताबें! बाप रे। मैं तो कभी सोच भी नहीं सकता था कि एक ही जगह पर कोई इतनी सारी किताबें जमा कर सकता है। मैंने तय कर लिया कि मैं रोज यहां आने की कोशिश करूंगा।
दिन ढले लौटना हुआ। वह भी घनश्याम की बार-बार, ‘जल्दी चलो, जल्दी चलोकी रट लगाने से। गली में लट्टू चौधरी के चबूतरे के पास काफी भीड़ थी। दिन ढलते ही वह कपड़े बदलकर अपनी चौकी पर आकर बैठ जाते थे। इस समय उनके सिर पर एक बड़ी पगड़ी बंधी रहती थी, जो उनके बदन के हिसाब से बहुत बड़ी दिखाई देती थी। तब लट्टू चौधरी पूरी गली का हाल-चाल लेते थे। आखिर वह गली के मुखिया जो थे।
हमारे घर की दहलीज में मिट्टी के तेल की ढिबरी जल रही थी। उससे पता चला कि मुझे लायब्रेरी से लौटने में बहुत देर हो गई थी। दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी  में जाकर जैसे मैं और सारी बातें एकदम भूल ही गया था। आंगन में एक तरफ लालटेन रखी थी। न जाने क्यों उसकी चिमनी एकदम काली-काली लगी। शायद आज चिमनी ठीक से साफ नहीं की गई थी। घर में जितने भी लैम्प, लालटेनें थीं, उनकी चिमनियों को साफ करने और मिट्टी का तेल डालने के काम नानी के जिम्मे थे। चार बजते ही वह गीला चूना और एक साफ कपड़ा लेकर चिमनियां साफ करने लगतीं। पहले उन पर गीला चूना लगातीं फिर कपड़े से रगड़-रगड़कर देर तक चमकाती रहतीं। इस काम के बाद मटके, सुराही में ताजा पानी भी वही भरती थीं। मैंने इधर-उधर देखा, पर वह नजर नहीं आईं। ऐसा कभी नहीं होता था कि घर में घुसते ही उनकी आवाज कानों में न आए-‘‘आ गया। कहां था अब तक?’
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पड़नानी ने कहा-‘‘मक्को ऊपर टीन में बैठी है।’’ वह मेरी नानी को मक्को कहती थीं, वैसे उनका नाम लीलावती था। टीन से उनका मतलब तिमंजिले पर बने टीन शेड से था। उसमें घर का फालतू सामान रखा जाता था, पर आजकल वहां मेरा देवन नगरस्टेशन बना हुआ था। मुझे सुनकर अच्छा लगा कि नानी मेरे रेलवे स्टेशन तथा माडलों को देख रही होंगी।
‘‘नानी, नानी, कहां हो?’’ पुकारता धड़धड़ाता मैं तिमंजिले पर जा पहुंचा। नानी शायद मेरी आवाज सुन कर खड़ी हो गई थीं। टीन शेड में लालटेन जल रही थी। नानी ने मुझे देखा, पर कुछ बोली नहीं और मैं भी बस देखता रह गया। कुछ बोल न सका। यह क्या देख रहा था मैं! टीन शेड एकदम खाली था। जैसे किसी जादू के जोर से मेरा ‘देवन नगर’ रेलवे स्टेशन तथा सारे माडल कहीं गायब हो गए थे!
मैंने नानी की ओर देखा। वह एकटक मेरी ओर देख रही थीं। कुछ पल सन्नाटा रहा। मैं जो कुछ देख रहा था, उस पर विश्वास नहीं हो रहा था। यह क्या हो गया था। फिर नानी की अवाज सुनाई दी-‘‘मोहन आया था अपनी मां के साथ। तूने शायद उसे कुछ रुपए दिए होंगे, वही लौटाने आया था। उसकी सब चीजें मैंने उसे वापस कर दीं।’’
नानी की आवाज मेरे कानों में चुभ गई। जैसे किसी ने मेरे सिर पर एक बड़ा पत्थर दे मारा था। तो मोहन अपना खिलौना रेलवे स्टेशन, कुतुब मीनार, बिरला मंदिर और जंतर मंतर के माडल उठा ले गया था। ओह, कितना बड़ा धोखा दिया था उसने। उस दिन जब पैसों की जरूरत थी तो कैसी बातें बना रहा था कि इन चीजों को कभी वापस नहीं लेगा। लेकिन अब कैसे चुपचाप आ कर चोर की तरह उठा ले गया है। मुझे लगा अब नानी मुझसे पूछेंगी कि मैंने मोहन को पैसे कहां से ला कर दिए थे और फिर मेरे झूठ पर मुझे पीटने लगेंगी। पर नानी ने ऐसा कुछ नहीं किया। वह खामोशी से मुझे घूरती रहीं।
कुछ देर बाद उन्होंने कहा-‘‘पहले तो मुझे उसकी बात पर विश्वास ही नहीं हुआ, पर फिर उसने अपने बनाए चित्र मुझे दिखाए, उसकी मां ने भी कहा, तब फिर मैंने उसे सारा सामान तुरंत दे दिया।’’
मैं चुप खड़ा था। मेरे झूठ का रेलवे स्टेशन, कुतुब मीनार, बिरला मंदिर और जंतर मंतर एक साथ ही मेरे सिर पर आ गिरे। मैं उनके बोझ से दबा जा रहा था, जमीन में गड़ा जा रहा था।
‘‘मैं अभी आता हूं।’’ किसी तरह मैं बस इतना ही कह सका और बाहर की तरफ मुड़ने को हुआ...
‘‘वे अपने घर में नहीं हैं। यहां तो वे लोग अब रहते नहीं। वह तो बस पैसे लौटाने आया था।’’ नानी ने कहा। वह शायद समझ गई थीं कि मैं पिछवाड़े के घर में मोहन को देखने जा रहा था।
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‘‘लेकिन...’’
नानी चुप खड़ी रहीं, मन हुआ जोर से रो पड़ूं। जमीन पर गिर कर दीवार से सिर टकराऊं। ओफ! कितना बड़ा धोखा दिया था उसने मुझे। क्या मैं नानी को बता सकता था कि कैसे उसने पेड़ पर चढ़कर किसी मकान में पत्थर फेंके थे। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उसके कारण मुझे सिपाहियों के जूते पालिश करने पड़े थे। अपमान सहना पड़ा था। अब जन्माष्टमी समारोह का क्या होगा? वह तो अच्छा हुआ मैंने किसी से इस बारे में बात नहीं की थी। ओफ...कितना बड़ा धोखा दिया था बदमाश मोहन ने मुझे। और सबसे बढ़कर तो उसने नानी की नजरों में गिरा दिया था मुझे।
मुझे नानी की गालियों का, उनके थप्पड़ों का इंतजार था। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। नानी कुछ देर चुपचाप टीन शेड के बीचोंबीच खड़ी रहीं फिर मेरे पास से गुजर कर नीचे उतर गईं। कोई और दिन होता तो वह मेरा हाथ पकड़कर मुझे अपने साथ नीचे ले जातीं। पर आज उन्होंने वैसा कुछ नहीं किया। यह पहली बार था जब उन्होंने मुझे एकदम अकेला छोड़ दिया था। क्या वह भी मां की तरह मुझे छोड़कर चली गई थीं?
मैं ठीक से सोचना चाहता था, पर कुछ समझ में नहीं आ रहा था। आखिर मोहन ने मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया था?
रात गहराती गई। नीचे आंगन में जलती हुई लालटेन बुझा दी गई। काफी देर हो गई थी। इस बीच नानी ने एक बार भी मुझे नहीं पुकारा था। खाने के लिए नहीं कहा था। मैं टीन शेड में नंगे फर्श पर लेट गया। लगा मैं ‘देवन नगर’ स्टेशन के प्लेटफार्म पर बैठा हूं। ट्रेन के आने का इंतजार कर रहा हूं-पर ट्रेन नहीं आती है। कुतुब मीनार, बिरला मंदिर और जंतर-मंतर हवा में हिलते-डुलते मेरे सिर के इर्द-गिर्द चक्कर काट रहे थे। और फिर मैं हवा में उड़ने लगा था।
रात को नींद खुली तो लगा कोई धीरे-धीरे सिर को थपक रहा है। टीन शेड में अंधेरा था, और मैं नंगे फर्श पर लेटा था। मैं भला उंगलियों को बिना पहचाने कैसे रह सकता थ? वे नानी की उंगलियां थीं। वह मेरा माथा टटोल रही थीं। मन चाह रहा था, उठकर माफी मांग लूं। पर मैं ऐसा कुछ नहीं कर सका। नानी की उंगलियों की थपक कह रही थी कि उन्होंने मुझे क्षमा कर दिया था। लेकिन क्या मैं मोहन को माफ कर सकता था?
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
कितनी अजीब बात थी, हरना बाबा ने मुझे बुलाया था। आखिर क्यों? भला उन्हें मुझ जैसे नाकारा, निकम्मे लड़के से क्या काम हो सकता था। शायद नानी ने गलत सुना हो, पर मेरे दोबारा पूछने पर भी उन्होंने यही बताया था कि हरना बाबा खुद घर में आए थे।
‘‘आखिर क्यों बुलाया होगा?’’ मैंने नानी से जानना चाहा।
‘‘पता नहीं, जा पूछ ले।’’ नानी ने कहा और फिर माला फेरने लगीं। उनकी आंखें बंद थीं। मैं धीरे से गली मे निकल आया। हरना बाबा के चबूतरे पर लोग बैठकर और खड़े होकर अखबार पढ़ रहे थे। बीच-बीच में आपस में बातें भी करते जा रहे थे। मेरी आंखें हरना बाबा को ढूंढ़ रही थीं। तभी कंधे पर हाथ पड़ा। मैंने देखा हरना बाबा थे। वह मुझे कंधे से पकड़े-पकड़े ही घर में घुस गए। पलंग पर बैठते हुए मुझे भी पास ही बैठा लिया।
कुछ देर वह चुप बैठे रहे। घर में सन्नाटा था। मैं हरना बाबा के साथ उसी पलंग पर बैठा था जिस पर उनकी बीमार पत्नी लेटा करती थीं। मैं सोच रहा था, अगर हरना बाबा की पत्नी जीवित होतीं तो नानी मुझे यहां कभी न आने देतीं। और शायद अब भी अगर इस पलंग पर बैठे हुए देख लें तो न जाने क्या-क्या कहने लगें। वह और पड़नानी हरना बाबा की पत्नी को डायन हो कहती थीं।
‘‘नानी कह रही थीं-आपने...’’ मैंने कहा।
‘‘हां, तेरी नानी मक्को के पास गया था। मैं यहां से जा रहा हूं...’’
‘‘कहां, क्यों?’’ मैं हड़बड़ा गया।
‘‘मुजफ्फरपुर में मेरे भाई बीमार हैं। उन्होंने बुलाया है। बहुत समय से वहां नहीं गया हूं।’’
मन में बेचैनी सी हुई। क्या सभी मुझे छोड़ जाएंगे और मैं अकेला रह जाऊंगा।
‘‘तेरी दादी के जाने के बाद मन नहीं लगता है, बस इस लायब्रेरी का बंधन है।’’
‘‘लायब्रेरी ...’’
‘‘हां, जानता है, इस लायब्रेरी को तेरी दादी ने ही शुरू करवाया था। इसलिए अब तक चलाए जा रहा हूं।’’
मैं समझ न पाया, हरना बाबा यह सब मुझसे क्यों कह रहे हैं। सुनकर अचरज हुआ कि इस लायब्रेरी को उनकी पत्नी ने शुरू करवाया था। लेकिन क्या यही सब बताने के लिए हरना बाबा मुझे बुलाने गए थे। नहीं, कोई और बात होगी।
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‘‘पता नहीं मुजफ्फरपुर में मुझे कितना समय लग जाए। भाई तो कहते हैं कि मैं वहीं रह जाऊं। आखिर अब यहां है ही क्या?’’
‘‘तो क्या आप...’’ मुझे लगा जैसे मेरा गला रुंध गया है।
‘‘अरे नहीं, नहीं...मैंने इसीलिए बुलाया है तुझे। सोचता हूं, मैं चला जाऊंगा तो मेरे पीछे से लायब्रेरी  कैसे चलेगी। बोल, तू करेगा यह काम?’’
‘‘मैं...मैं...कैसे...’’
‘‘अरे, इसमें है ही क्या! शास्त्री जी सुबह साढ़े पांच बजे अखबार डालते हैं चबूतरे पर। उसके थोड़ी देर बाद ही लोग पढ़ने के लिए आ जाते हैं। मैं ग्यारह बजे अखबार उठाकर कोठरी में रख देता हूं। इतना तो तू कर ही लेगा।’’
‘‘हां।’’ मैंने कहा।
‘‘मैं तुझे बाहर वाले कमरे की चाबी दे जाऊंगा। तुझे इतना करना है, दोपहर में ताला खोलकर अखबार अंदर कोठरी में रख दिया करना। बस, हो गया। मैं शास्त्री जी को अगले चार महीनों के पैसे एडवांस दिए जा रहा हूं। वह अखबार देते रहेंगे। सामने वाले ‘‘दैनिक हिन्दुस्तान’’ दे दिया करेंगे।’’ हरना बाबा ने कह दिया।
‘‘लेकिन मेरी पढ़ाई...नानी...पता नहीं...’’
बाबा मुस्करा दिए। ‘‘अब बातें न बना, तू इतने दिनों से भी तो मेरी मदद करता आ रहा है।’’
‘‘लेकिन बाकी कमरे...उनमें इतना सारा सामान है।’’
‘‘इसका भी इंतजाम हो गया है। मेरे रिश्तेदार का बेटा है रामभज। दिल्ली में नई-नई नौकरी लगी है। मैंने उसे रहने की जगह दे दी है। वह घर की देखभाल भी कर लेगा। तुझे उससे कोई मतलब नहीं। तुझे तो बस इतना ही करना है जितना मैंने बताया है। अगर तू मना करेगा तो फिर मैं शास्त्री जी से अखबार बंद करने को कह दूंगा।’’
‘‘नहीं, नहीं लायब्रेरी बंद न करें। जैसा आप कह रहे हैं, मैं वैसा कर लूंगा।’’ मैंने जल्दी से कहा। यह सुनकर अच्छा नहीं लग रहा था कि लायब्रेरी बंद हो जाएगी।
अंदर ही अंदर अच्छा भी लग रहा था। कुछ तो ऐसा था, जिसके लिए मेरी जरूरत थी। मैं भी किसी लायक था, आखिर गली में कितने लड़के थे। उनमें से तो किसी से नहीं कहा था हरना बाबा ने। कुछ तो देखा होगा उन्होंने मेरे अंदर।
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हरना बाबा बोले-‘‘मैं कल दोपहर की गाड़ी से जाऊंगा।’’ और उन्होंने एक चाबी मेरे हाथ में दे दी। कहा-‘‘चबूतरे पर खुलने वाले दरवाजे का ताला तू अपने आप लगाकर, खोलकर देख ले। हां, सुबह की ड्यूटी जरूर सख्त है। पर मैं तेरी नानी से कह दूंगा, वह तो चार बजे बिस्तर छोड़ देती हैं। वह उठा दिया करेगी तुझे। ठीक है न...’’ कहते हुए हरना बाबा ने धीरे से मेरा कंधा दबा दिया।
‘‘अगर चाबी खो गई तो...।’’
‘‘नहीं खोएगी, मैं गारंटी लेता हूं।’’ कहकर बाबा मुस्कुराए। ‘‘यह अच्छा होगा कि अपनी दादी की लायब्रेरी तू ही चलाए।’’
‘‘और आप...’’
‘‘अरे, मैं तो हूं ही। पर तू भी तो मेरी मदद कर।’’
मैं घर लौटा तो मेरी उंगलियां नेकर की जेब में पड़ी चाबी को मजबूती से पकड़े हुए थीं। लग रहा था जैसे चाबी हरना बाबा के लायब्रेरी वाले कमरे की नहीं, किसी खजाने की हो। क्या वह वैसी ही चाबी थी जैसी एक जादूगर अपने चेले को देता है और फिर खजाने वाले गुप्त तहखाने के दरवाजे खुलते चले जाते हैं ।
‘‘क्या कह रहे थे हरना भाई?’’ नानी ने पूछा तो मैंने चाबी जेब से निकालकर उन्हें दिखाई और जो कुछ बाबा ने बताया था, सब दोहरा दिया। मैंने देखा नानी के माथे पर बल पड़ गए। वह बैठी-बैठी चाबी को एक हाथ से दूसरे हाथ में उलटती-पलटती रहीं। फिर बोली-‘‘हरना भाई ठीक कह रहे हैं, उनकी लायब्रेरी को उनकी पत्नी ने ही शुरू कराया था।’’
‘‘कैसे?’’
‘‘इसकी कहानी तो शास्त्री जी से सुनो।’’
‘‘शास्त्री जी...’’
‘‘अरे, अखबार वाले शास्त्री जी और कौन।’’ नानी ने हंस कर कहा-‘‘उन दिनों उनसे बहुत कम लोग अखबार लेते थे। एक सवेरे वह साइकिल पर गली से जा रहे थे। हरना बाबा की पत्नी ने बैठक का दरवाजा खोलकर उनसे कहा-‘‘हिंदी का अखबार चाहिए।’’
शास्त्री जी हैरान! यह कौन बोला। फिर उन्होंने देखा चबूतरे पर हरना बाबा की घरवाली खड़ी थी। उन्होंने अखबार दिया। सारी गली में शोर मच गया कि हरना की बहू अखबार पढ़ती है।
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‘‘तो इसमें क्या हुआ?’’ मैंने कहा।
‘‘अरे, औरतों को घर के कामों से ही कहां फुरसत मिलती है, जो बैठकर अखबार पढ़ें। सब उन्हें बहुत हैरानी से देखते थे। गली की औरतें तो खासतौर से कहती थीं-किस्मत वाली है जो अखबार पढ़ती है।’’
मैं नानी का चेहरा देख रहा था। ‘‘लेकिन तुम तो उन्हें डायन कहती थीं। मुझे उनके घर जाने से मना करती थीं।’’
नानी ने धीरे से मेरे गाल पर चपत लगा दी। ऐसा लगा जैसे प्यार किया हो। घुड़ककर बोलीं-‘‘वह बात और है। तू अभी बच्चा है। तेरी समझ में यह बात आने वाली नहीं। जा बैठकर थोड़ा पढ़-लिख ले।’’
रात को सोते समय मैंने नानी से कहा-‘‘घड़ी में अलार्म लगा देता हूं, नहीं तो शास्त्री जी आकर चले जाएंगे...और...’’
‘‘अरे, कल सुबह तो हरना भाई यहीं हैं, वह देख लेंगे। अभी से क्यों इतनी चिंता कर रहा है।’’ नानी ने कहा। पर मुझे रात भर नींद नहीं आई। मैंने लायब्रेरी वाले कमरे की चाबी तकिए के नीचे रख दी थी। रात में कई बार उठ-उठ कर तकिए के नीचे चाबी को देखा। मैं साढ़े चार बजे ही बाहर निकलने लगा तो नानी ने टोक दिया-‘‘पागल न बन। अभी कौन आ रहा है तेरी लायब्रेरी में...’’
मैं कसमसाता खड़ा रहा। जैसे-तैसे करके पांच बजाए। फिर तो नानी के बार-बार रोकने पर भी नहीं रुका। मैं दरवाजा खोल कर बाहर आया तो गली सुनसान थी। और तो और हरना बाबा भी अभी घर से बाहर नहीं आए थे।
मैं चबूतरे पर जा कर बैठ गया। कुछ देर बाद हरना बाबा बाहर निकले-‘‘अरे देवन...कितनी देर से बैठा है। इतनी जल्दी क्यों उठ गया?’’
‘‘जल्दी कहां है, शास्त्रीजी आने वाले ही होंगे।’’ कहकर मैंने चाबी हाथ में निकाल ली।
‘‘चाबी की जरूरत पड़ेगी अखबार अंदर रखते समय यानी ग्यारह बजे।’’
‘‘ओह!’’ कहते हुए मैंने चाबी फिर से जेब में रख ली। कुछ देर बाद शास्त्री जी आते दिखाई दिए। वैसे उनके आने का पता दूर से ही चल जाता था, क्योंकि वह अखबार की मुख्य खबर को दोहराते हुए अखबार घरों में डालते जाते थे।
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ग्यारह बजे तक मैं लायब्रेरी वाले चबूतरे से जरा भी नहीं हिला। उस दिन हरना बाबा भी बाहर नहीं निकले, पता नहीं अंदर क्या कर रहे थे। मैंने अखबार के एक भी पन्ने को नाली के गंदे पानी में नहीं गिरने दिया।
ग्यारह बजे मैंने अखबार वाली कोठरी के बाहरी दरवाजे पर लगा ताला खोला तो मेरे हाथ कांप रहे थे। सारे अखबारों को पहले ही समेट कर एक ढेरी में रख दिया था। अखबार वाली कोठरी का अंदर वाला दरवाजा खुला हुआ था।
अंधेरे और सन्नाटे में कुछ देर मैं हाथों में अखबारों की ढेरी उठाए चुप खड़ा रहा। न जाने क्यों अखबार वाली कोठरी में घुसते हुए कुछ डर लग रहा था। उस दिन वाली घटना फिर से मेरी आंखों में तैर गई, जब हरना बाबा की पत्नी ने फोटो मेरे हाथ से छीन लिया था और मुझे गोद में भर कर प्यार करती हुई रोने लगी थीं।
आखिर इस तरह कब तक खड़ा रह सकता था मैं। मैंने धीरे से अखबार पहले से लगी ढेरी पर रख दिए। उस छोटी कोठरी का जैसे मुझसे कोई रिश्ता बन गया था। तभी तो न जाने क्यों मैं बार-बार वहां आ जाता था। मैंने वहीं खड़े-खड़े जानना चाहा क्या हरना बाबा घर में थे। आखिर वह गली में क्यों नहीं आए थे? यही सोचता हुआ मैं गली में वापस चला गया। अब दिखाई पड़ा कि हरना बाबा चबूतरे पर सिर झुकाए बैठे हैं।
‘‘बाबा, क्या बात है?’’
‘‘कुछ नहीं... मैं सुबह ही कहीं गया थाअभी आ रहा हूं। तेरा हरना बाबा अकेला और बूढ़ा है न इसलिए थक गया है।“ यह कहकर वह धीरे से हंस उठे। पर मैं देख रहा था उनकी हंसी में उदासी ज्यादा थी। आखिर वह इतने उदास और थके-थके क्यों दिख रहे हैं।
‘‘तो आज मत जाइए।’’
‘‘नहीं, मैंने चिट्ठी लिख दी है। भाई के घर मेरा इंतजार होगा।’’ कहते हुए वह चबूतरे से उठ कर अपने घर में आ गए। मैंने देखा एक बड़ा झोला सुतली से बंधा हुआ एक तरफ रखा था। इसका मतलब वह जाने को तैयार थे।
‘‘बाबा, आपने खाना नहीं खाया होगा। मैं अभी ले कर आता हूं।’’ मैंने कहा तो उन्होंने हाथ के इशारे से रोक दिया-‘‘न भूख है न खाने का मन। मैंने देखा है, तूने आज ठीक-ठीक काम किया है। मैं जानता था, तू चला लेगा लायब्रेरी को। अगर मैं न लौटूं तब भी चल जाएगी लायब्रेरी ।“
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‘‘बाबा!’’ मुझे अपनी आवाज एक चीख की तरह लगी। मैंने उनका हाथ पकड़ कर हिलाया। ‘‘मैं आपको जाने नहीं दूंगा। आप ऐसा क्यों कह रहे हैं। आप बताइए, कब लौट कर आएंगे।’’
मुझे पता नहीं कब मैं सुबक-सुबक कर रोने लगा। मेरे सिर पर हाथ फेरते-फेरते हरना बाबा भी रो पड़े। उन्होंने मुझे दोनों हाथों में बांध कर भींच लिया। बोले-‘‘मैं क्या तुम लोगों को, इस घर को, छोड़कर कहीं रह सकता हूं? नहीं रे, तू रो मत। मैं जल्दी से जल्दी लौट कर आऊंगा।’’
क्या जो मेरे पास आएगा इसी तरह मुझे छोड़ कर चला जाएगा? एक साथ कई चेहरे आंखों में धुंधले दिखाई देने लगे। उनमें सबसे ज्यादा चमकदार चेहरा तो मां का ही था। झूठ नहीं बोलूंगा, जूही भी न जाने कहां से वहां चली आई थी। कैसी अजीब बात थी। जूही के साथ तो बस मैं थोड़ी ही देर रहा था लेकिन...
बाबा ने पानी पिया, फिर मुझे पिलाया। बोले-‘‘चलता हूं, अपना और नानी का ध्यान रखना। उस बेचारी ने बहुत दुख देखे हैं। वह तो रोज तुझे देख-देख कर ही जीती है। यह बात कभी भूलना मत।’’
एक बार फिर मुझे प्यार करके उन्होंने थैला आंगन में रखा और दरवाजे पर ताला लगा कर बोले-‘‘इसकी एक चाबी मैंने रामभज को दे दी है। उसे लट्टू चैधरी से भी मिलवा दिया है। आखिर वह मकान मालिक ठहरे।’’
मैंने बाबा को थैला उठाने नहीं दिया। कहा-‘‘मैं बाजार तक आपको छोड़ने चलूंगा।’’
‘‘चलेगा, जरूर चल...’’ कहकर वह गली में निकल आए। वह आगे-आगे और मैं थैला उठाए उनके पीछे-पीछे था।
अगली गली में हमेशा की तरह पागल बादशाह अपने सिंहासन पर बैठा मिला। वह कुल्हड़ में भीगी रोटी के टुकड़े खा रहा था और अपने कुत्तों को भी दे रहा था। वह कई कुल्हड़ों में सूखी रोटियों को पानी में भिगोकर रखता था।
मैं नहीं जानता वह कौन था। सब उसे पागल बादशाह कहते थे। वह चिथड़ों के कपड़े पहने रहता था। बहुत सारी ईंटें एक दूसरी पर रख कर उसने अपने बैठने का जुगाड़ किया था। उसी को लोग पागल बादशाह का सिंहासन कहते थे। लोग भले ही उसे पागल कहते थे पर आज तक उसने किसी को कुछ नहीं कहा था। उसके कुत्ते भी चुपचाप दुम हिलाते हुए उसे घेर कर बैठे रहते थे। कभी सात तो कभी आठ|
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बादशाह गली का कुछ न होते हुए भी गली का बन चुका था। उसके बैठने की जगह के पास ही सरकारी नल था, जहां सारा दिन औरतें पानी लेने आती रहती थीं। पागल बादशाह के बैठने की जगह के पीछे एक बहुत ही खंडहर मकान था। मैं तो न जाने कब से उसे ऐसा ही देखता आ रहा था.
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हरना बाबा को स्टेशन के लिए रिक्शा में बैठा कर मैंने उन्हें विदा दी। फिर घर की तरफ लौटने लगा तो एक आवाज आई, ‘‘आज क्या लाए हो हमारे लिए?’’
अरे, यह कौन था? मैंने देखा सामने ही अनाथालय का फाटक नजर आ रहा था। वहीं खड़ा एक छोकरा मुझे देख-देख कर हंस रहा था। मुझे उसकी सूरत पहचानी सी लग रही थी।
मैं कुछ सोचता हुआ खड़ा रह गया कि उसे कहां देखा था। तभी कमर पर धक्का लगा। कोई चिल्लाया, ‘‘सड़क के बीचोंबीच इस तरह खड़े रहोगे तो चोट लगेगी।’’ चौंक कर पलटा. एक ठेले वाला बड़बड़ाता हुआ आगे जा रहा था। वह सामान से लदा ठेला खींच रहा था। बाजार में काफी .भीड़ थी। सड़क के दोनों ओर पटरियों पर फेरी वाले जगह घेर कर बैठे थे। मैं सड़क से हट कर उस लड़के की तरफ बढ़ आया। एकाएक याद आ गया, यह उन्हीं में से एक था। हरना बाबा और मैं पूरियां और केले ले कर आए थे। मैंने देखा था अनाथालय में रहने वाले बच्चे आंगन के नंगे फर्श पर बैठकर पूरियों के साथ-साथ दाढ़ी वाले के हंटर भी खाते रहे थे। हां, उन्हीं में से था वह लड़का। मुझे तो उसे पहचानने में इतना समय लग गया था पर उसने दूर से देख कर पहचान लिया था। और वे दोनों शैतान कहां थे, जिन्होंने मुझे मारा था।
मैंने कहा-‘‘आज तो कुछ नहीं है। वैसे उस दिन भी मैं नहीं, बाबा लेकर आए थे खाना। मैं तो तब पहली बार यहां आया था।’’
‘‘तो क्या हुआ तुम आए तो थे।’’ उसने कहा और मुस्कराया। अनाथालय के लंबे--चौड़े आंगन में उस दिन की तरह कबूतरों का झुंड दाना चुग रहा था। वे बार-बार फड़-फड़ करते हुए उड़ते और फिर उतर कर दाना चुगने लगते। हवा में फड़फड़ और गुटरगूं का शोर था। कोने में लगे हैंडपंप पर चार बच्चे पानी उछालते हुए नहा रहे थे.
आप से आप मेरी नजर लायब्रेरी के खुले दरवाजों की ओर उठ गई। कदम उस तरफ बढ़ गए। सब कुछ उस दिन जैसा ही था। लंबी काली मेज पर फैले फड़फड़ाते अखबार, किताबों से भरी लंबी-ऊंची काली अल्मारियां जिन पर ताले लगे थे और कुर्सी पर बैठा ऊंघता हुआ आदमी-कुछ भी तो नहीं बदला था। मैं जैसे फिर से उसी दिन में वापस जा पहुंचा था। मैंने देखना चाहा शायद मेज पर अंगूठे जितने बड़े लड़के वाली किताब पड़ी हो। पर किताब नहीं थी। कुर्सी पर बैठा ऊंघता हुआ आदमी भी तो उस दिन वाला नहीं था। यह तो कोई और ही था। हां, उसी की तरह ऊंघ जरूर रहा था। इतनी बड़ी लायब्रेरी और पढ़ने वाला एक भी नहीं।
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मुझे लगा इससे तो हमारी गली की चबूतरे वाली लायब्रेरी कहीं ज्यादा अच्छी है। वहां न मेज है, न कुर्सियां लेकिन फिर भी कितने लोग आते हैं अखबार पढ़ने और बातें करने के लिए।
‘‘हंटरतोड़ से नहीं मिलोगे?’’ पीछे से आवाज आई तो मैं चौंक पड़ा। यह कैसा नाम था-हंटरतोड़! नजर मिलते ही वह मुस्कराया। फिर बोला, ‘‘अरे वही, जो रोज खाना देते समय हम सबको हंटर से पीटा करता था।’’
तुरंत मेरी आंखों के सामने एक दाढ़ी वाले आदमी की सूरत उभर आई। हाथों में पतली छड़ी और लाल-लाल आंखें। तो उसी को हंटरतोड़ कह रहा था यह लड़का। उससे मिलने को क्यों कह रहा है भला? मैं तो ऐसे आदमी से कभी बात नहीं करूंगा। जरूर यह हमारे स्कूल के गणित अध्यापक जयमलसिंह का भाई होगा। वह भी तो ऐसे ही मारते हैं बच्चों को। उन्हीं की पिटाई के डर से मेरा मन स्कूल जाने का नहीं करता था।
मेरा मन अब घर लौटने का हो रहा था। लेकिन रुकना पड़ा। न जाने कब उस लड़के ने मेरा हाथ पकड़ लिया था और सीढि़यों की तरफ खींचे लिए जा रहा था। सीढि़यों पर अंधेरा था। उसने कहा-‘‘धीरे-धीरे आना। सीढि़यां बीच-बीच में टूटी हुई है। पैर मुड़ सकता है जैसे हंटरतोड़ का मुड़ा था। कितनी जोर से गिरा था बदमाश। ऊपर वाली सीढ़ी से लुढ़कता हुआ सीधा नीचे आया था। हाय...हाय चिल्लाता रहा था, पर हममें से कोई उसे उठाने नहीं आया था। लेकिन बाद में हमारे एक साथी ने आकर उठाया था हरामी हंटरतोड़ को।’’ वह सीढि़यां चढ़ता हुआ बोल रहा था। मैं संभल-संभल कर पैर रखता हुआ ऊपर जा पहुंचा। सीढि़यां एक गलियारे में खत्म होती थीं जहां कूड़े का बहुत बड़ा ढेर लगा हुआ था। सारे में दुर्गंध फैली थी। मक्खियां भिनभिना रही थीं। पास में कोई जोर-जोर से बोल रहा था।
‘‘वह सामने पड़ा है...’’ उसने एक कमरे की तरफ इशारा किया, फिर पास के खुले दरवाजे से न जाने कहां गुम हो गया।
मैं गलियारे में खड़ा सोचता रहा कि क्यों ऊपर आया। तभी आवाज आई-‘‘कौन है?’’ फिर कोई जोर से कराह उठा। अब जवाब न देना मुश्किल था। मैंने दरवाजे पर हाथ रखा तो वह अंदर की तरफ खुल गया। मैं हिचकता हुआ दरवाजे पर खड़ा था, पता नहीं मुझे अंदर जाना चाहिए था या नहीं।
‘‘कौन है, अंदर आओ।’’ दीवार के साथ बिछे तख्त पर लेटे आदमी ने कहा। मैं उसे झट पहचान गया। यह वही था जो उस दिन अनाथालय के आंगन में खाना खाते हुए बच्चों को छड़ी से पीट रहा था।
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मैंने उसके प्रश्न का जवाब न देते हुए पूछ लिया-‘‘आप कैसे हैं? सुना था आप सीढि़यों से गिर गए थे?’’
शायद दाढ़ी वाला मुझे पहचानने की कोशिश कर रहा था। उसने आंखें मिचमिचाते हुए मेरी ओर देखा। बोला-‘‘मैंने पहचाना नहीं।’’
‘‘मैं पास ही रहता हूं।’’
‘‘हां, मैं सीढि़यों से गिर गया था। बस, तभी से पैरों में तकलीफ है। चला नहीं जाता। हर समय दर्द होता रहता है।’’
मैंने देखा तख्त पर एक तरफ छड़ी रखी थी। क्या यह वही छड़ी थी जिससे वह बच्चों को मारा करता था, या शायद अब वही छड़ी चलते समय सहारे का काम देने लगी थी। मैं चुप खड़ा था, समझ में नहीं आ रहा था कि वहां क्यों आ गया हूं। आगरे की तरह, जैसे जुबैदा मुझे अपने सेब के बाजार वाले घर में छोड़कर गायब हो गई थी, वैसे ही अनाथालय का छोकरा भी मुझे यहां तक पहुंचाकर न जाने कहां चला गया था।
तभी सीढि़यों पर आहट हुई। एक लड़का कमरे में घुस गया। मुझे देखकर वह कुछ झिझका। दाढ़ीवाले ने कहा-‘‘चले आओ सुखदेव, यह मुझसे मिलने आए हैं। आज कई दिनों के बाद कोई आया है मेरे पास।’’
सुखदेव ने हाथ का थैला दाढ़ीवाले के पास रख दिया। उसमें से एक शीशी निकालकर खोली, और एक चम्मच दवा उसे पिला दी। दाढ़ी वाला मुंह पोंछकर लेट गया। मैंने देखा सुखदेव का दायां हाथ एक तरफ लटका हुआ था। वह सारा काम बाएं हाथ से कर रहा था। उसने संतरे की फांकें दाढ़ी वाले को खाने के लिए दीं फिर जाकर छिलके बाहर फेंक आया। कमरे में कुछ देर चुप्पी छाई रही। ‘‘कहीं सामान पहुंचाना है। दो घंटे बाद आऊंगा।’’ और फिर मेरी ओर देखे बिना कमरे से बाहर निकल गया। मैं उसके पीछे-पीछे बाहर आ गया। न जाने क्यों, वहां खड़े रहना अजीब सा लग रहा था।
सुखदेव मेरे आगे-आगे था। मैंने पुकारा-‘‘क्या तुम भी यहीं अनाथालय में रहते हो?’’ ‘‘नहीं, पहले रहता था। मैं गुरुजी की देखभाल करता हूं। इसलिए यहां रहने वाले साथी मुझसे नाराज हैं।’’ उसने कहा।
‘‘गुरुजी...’’
‘‘वहीं जो बिस्तरे पर लेटे थे। फूलचंद गुरु।’’ अनाथालय के मैनेजर हैं। जब से सीढि़यों से गिरे हैं, यहां की देखरेख के लिए कोई और आ गया है।’’    ( आगे और है)
                         111                 ( क़िस्त _ आठ  = पृष्ठ 97  से 111 )
        

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