अपने साथ
-देवेन्द्र
कुमार
आत्म कथा –9
(आठवीं क़िस्त –
पृष्ठ 97 से
111 तक)
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मोहन के बनाए
चित्रों और माडलों का मालिक मैं यानि नानी का दुलारा देवन बन गया था. नानी को
मैंने बहका दिया कि उन्हें मैंने बनाया है. बेचारी नानी,मेरे हर झूठ को सच मान
लेती थीं.जन्माष्टमी पर माडलों और चित्रों की झांकियां सजा कर मैं पूरी गली को
चौंका देना चाहता था. लेकिन एक दिन मोहन मेरे पीछे से आया और पैसे लौटा कर माडल और
चित्र ले गया. उसने नानी के सामने
मेरे झूठे सच की पोल खोल दी थी. पता नहीं
नानी अब मेरे साथ क्या करने वाली थीं. लेकिन उन्होंने हमेशा की तरह मुझे माफ़ कर
दिया.फिर हरना बाबा मुझे अखबार संभालने की जिम्मेदारी देकर बीमार भाई से मिलने दूसरे शहर चले गए. मैं उन्हें छोड़ने बाज़ार तक गया. अनाथालय
के घायल मैनेजर से मिला जो बच्चों को हंटर से पीटा करता था.==
मैं और सुखदेव अनाथालय के आंगन में
खड़े थे। आसपास दाना चुगते कबूतरों की भीड़ थी। यहां खुले में साफ दिखाई दिया कि
सुखदेव का दायां कंधा एक तरफ काफी लटका हुआ था। शायद उसने मुझे देखते देख लिया।
झिझकते हुए बोला-‘‘यह फूलचंद की कृपा है। बुरी तरह मारा
था मुझे। बस तभी से परेशानी है। दर्द बना रहता है। सारा काम बाएं हाथ से करता हूँ ।’’
‘‘उन्होंने तुम्हारे साथ यह किया लेकिन
तुम फिर भी...’’
सुखदेव मुस्कराया-‘‘वह तो पुरानी बात हुई। अब तो वह बहुत
परेशान है। यहां शहर में उनका कोई है नहीं। इसीलिए बीमार हो कर अनाथालय में पड़े
हैं। मैं बस थोड़ी दवा-दारू दे देता हूं। यह कोई बड़ी बात नहीं, पर देखो न इसी बात पर मेरे साथी इतने
खफा हैं कि मुझे यहां टिकने नहीं देते।’’
‘‘फिर...”
‘‘फिर क्या...बाजार में रात को ठेले खड़े
होते हैं। उन्हीं पर सो लेता हूं। नहाने धोने के लिए सरकारी नल है ही। कपड़ों की
पोटली एक दुकान के नीचे बनी खोली में टिका देता हूं। उसमें दरवाजा नहीं है, पर मेरा सामान किसी ने नहीं चुराया।’’
मैंने देखा आकाश में बादल घिरे थे।
बारिश आ सकती थी। एक खंभे के सहारे पटरी पर दो ठेले खड़े दिखाई दिए। मान लो अपने
को सुखदेव कहने वाला लड़का यहां सो रहा हो और बारिश आ जाए तो कहां जाएगा? सड़क पर ही नहाना-धोना-खाना-सोना और
दूसरे सारे काम करना।
सुखदेव ने जैसे मेरे मन में उभरते
विचार पढ़ लिए। बोला-‘‘हमें
सब तरह की आदत होती है। मिल गया तो खा लिया नहीं तो छुट्टी। अनाथालय में भी तो कई
बार खाना नहीं मिलता था।’’
‘‘ऐसे कब तक चलेगा?’’ मैंने पूछा।
‘‘जब तक भी चले। मेरे दोस्त चाहे जो कहें, पर मैं गुरुजी की देखभाल जरूर करूंगा।
जब वह ठीक हो जाएंगे उसके बाद तो मैं यहां पैर रखने वाला नहीं।’’ सुखदेव ने कहा।
‘‘तो क्या इसी तरह सड़क पर सोते रहोगे?’’ मैंने हैरानी से पूछा|
‘‘और क्या करूंगा, कहां जा सकता हूं?’’ मैं चाहूं भी तो मेरे साथी लोग मुझे
अपने साथ रहने नहीं देंगे। कहने की बात नहीं है, पर वे तो फूलचंद गुरु को मारने पर तुले हैं। बहुत नाराज हैं उनसे।
वैसे वे गलत भी नहीं हैं। पहले दिन में दो बार खाने के समय किसी न किसी बहाने से
हमें हंटर से पीटा जाता था। उनकी
इस क्रूरता को कोई कैसे भूल सकता है भला|”
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‘‘फिर...?’’
‘‘फिर क्या...कुछ नहीं...’’ कहकर वह जोर से हंसा। तभी आवाज आई-‘‘ओ सुक्खू, चल जल्दी नही तो सामान पहुंचाने में
देर हो जाएगी।’’
‘‘बस अभी आया।’’ कहकर सुखदेव या सुक्खू ने एक बार हंसते
हुए मुझ पर नजर डाली, फिर
तेजी से भागता हुआ भीड़ में कहां खो गया, पता नहीं चल सका। मैं अनाथालय के सामने से गुजरा तो अंदर से चीखने की
आवाजें सुनाई दीं। यह फूलचंद गुरु हंटरतोड़ नहीं हो सकता था। तो फिर क्या अनाथालय
में फूलचंद हंटरतोड़ जैसा ही कोई और भी था।
रात में आंख खुली तो तेज बारिश हो रही
थी। तिमंजिले के टीन शेड पर बूंदों की पड़-पड़ टन-टन सारे में गूंज रही थी। थोड़ी
सी बारिश होते ही हमारी गली में घुटनों-घुटनों पानी भर जाता है। मुझे एक ही चिंता
थी। तेज बारिश में खुले चबूतरे पर तो सारे अखबार भीग जाएंगे। तब लोग अखबार कैसे
पढ़ेंगे।
मैं अंधेरे में टटोलता हुआ रसोई घर में
गया और तवा उठा लाया। उसे उल्टा करके आंगन में बीचोंबीच रख दिया। नानी ने इस टोटके
को कई बार आजमाया था। उनका कहना था, उल्टा तवा रखने से इंद्र देवता बारिश रोक देते हैं। उनकी ऐसी बातें
सुनकर मैं खूब हंसता था, कहता
था-‘‘कहां की गप्पें सुनाती हो नानी।’’ पर आज मैं खुद वही कर रहा था, लेकिन इस खामोशी से कि नानी न देख लें।
मैं तो बस यही चाहता था कि लायब्रेरी खुलने के समय बारिश रुक जाए, भले ही इसके लिए कोई भी उपाय क्यों न
करना पड़े।
साढ़े पांच बज गए थे और पानी अब भी
तेजी से बरस रहा था। मैं आंगन में आया तो एकदम भीग गया। दालान में रखी लालटेन
बुझने को हो रही थी। मैंने धीरे से दरवाजे की कुंडी खोली, तभी आवाज आई-‘‘ले छाता लेता जा, नहीं तो भीग जाएगा।’’ यह नानी की आवाज थी। वह कितना ध्यान
रखती थीं मेरा। कोई भी बात मेरे मुंह से निकलने की देर थी, नानी उसे तुरंत पूरा करने की कोशिश में
जुट जाती थीं।
‘‘तो तुम भी जाग रही थीं। कब से?’’
‘‘जब तू उठा तभी से। मैंने तुझे तवा आंगन
में रखते हुए देखा था।’’ कहकर
वह हंस दीं। तो उन्होंने सब कुछ देख लिया था। मैंने नानी के हाथ से छाता लिया और
गली में निकल गया। वहां घुटनों तक पानी भरा था। सब तरफ बूंदें पड़ने की तेज आवाज
हो रही थी। उस समय जैसे हल्का-हल्का उजाला भी छा रहा था बूंदों के साथ। मैं पानी
भरी गली को पार करके सामने हरना बाबा के चबूतरे तक जा पहुंचा और उचककर उस पर चढ़
गया। चबूतरे के पत्थर बारिश की बौछार से एकदम गीले हो रहे थे।
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मैंने देखा अखबारों का बंडल वहां नहीं था।
बरसात के दिनों में शास्त्री जी अखबारों को लपेट कर दीवार में बने आले में रख जाया
करते थे। लेकिन आज वहां कुछ नहीं था। इसका मतलब था, शास्त्री जी अखबार डालने नहीं आए या फिर अखबारा डालना ही भूल गए थे।
तभी शास्त्री जी की आवाज सुनाई दी। वह
अखबार का मुख्य समाचार दोहरा रहे थे। मैंने कान लगाए। उनकी आवाज मुझसे दूर जा रही थी।
इसका मतलब था कि वह लायब्रेरी के सामने से गुजर चुके थे, यानि आज वह अखबार डालना भूल गए थे। ऐसा
कैसे हुआ? आज से पहले तो शास्त्री जी ने कभी ऐसी
भूल नहीं की थी। तो क्या आज लायब्रेरी आने वालों को पूरे दिन अखबार पढ़ने को नहीं
मिलेंगे। यह तो गलत होगा। मुझे कुछ नहीं सूझा तो मैं दौड़ता हुआ वापस घर में चला
गया।
‘‘क्या हुआ?’’ नानी ने पूछा।
मैंने उन्हें पूरी बात बता दी। ‘‘अब क्या होगा?’’
‘‘तो इसमें घबराने की क्या बात है। हो
सकता है शास्त्री जी भूल गए हों। गली में अखबार डालने के बाद वह रुककर चाय पीते
हैं। कुछ देर आराम करते हैं। दूध वाले रशीद की गली के बाहर चाय की दुकान है।
शास्त्री जी तुझे वहीं बैठे हुए मिल जाएंगे।’’
‘‘लेकिन अगर उन्होंने आने से मना कर दिया
तो?’’ मुझे भरोसा नहीं हो रहा था था कि
शास्त्री जी मेरी बात मानकर आ जाएंगे। मैं सोचता खड़ा रह गया, तभी नानी ने कहा-‘‘अब देर क्यों कर रहा है। कहीं आगे न
निकल जाएं। जल्दी से चला जा।’’
बारिश अब जरा धीमी हो गई थी। गली में
भरा पानी भी कम हो गया था, पर पूरी तरह से निकला नहीं था। मैं संभल कर तेज-तेज भागता हुआ खिड़की
पटनामल के दूसरी तरफ निकल गया। कायस्थों की धर्मशाला के नीचे वाली दूध की दुकान
खुल चुकी थी। उससे कुछ ही आगे मस्जिद थी। उसके बगल से एक संकरी गली अंदर चली गई
थी। शायद वहीं रहता होगा रशीद दूधवाला। मेरी आंखें शास्त्री जी को ढूंढ़ रही थीं।
गली के नुक्कड़ पर अंगीठी दहक रही थी। कुछ लोग बेंच पर बैठे चाय पी रहे थे पर
उनमें मुझे शास्त्री जी नजर नहीं आए।
कैसे पता चले कि शास्त्री जी कहां है? हो सकता है वह चाय पीकर निकल गए हों।
मैं चाय की दुकान के पास जा खड़ा हुआ। चाय वाले ने मेरी ओर देखा फिर पूछने लगा-‘‘चाय?’’
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‘‘नहीं, नहीं, चाय
नहीं, शास्त्री जी...’’ मैंने हिचकिचाते हुए कहा।
‘‘वो अखबार वाले शास्त्री जी, उन्हें तो रशीद अपने घर ले गया है।’’ उसने चाय छानते हुए कहा और गर्दन से
गली की ओर संकेत कर दिया। तो उस गली में रहता था रशीद दूधवाला। उस गली में भी पानी
भरा हुआ था। गली के बीच में दो बकरियां खड़ी मिमिया रही थीं। छोटे-छोटे मकानों
वाली एक लंबी गली। किससे पूछूं? छप-छप करते कई लोग आ-जा रहे थे।
तभी मुझे शास्त्री जी की आवाज सुनाई
दी। पहले ऐसा लगा जैसे दूर से आ रही हो, फिर उनकी आवाज पास आती हुई लगी। मैं यह जानने की कोशिश करने लगा कि
आवाज किधर से आ रही है। साथ में एक दूसरी आवाज भी थी। शास्त्री जी की तेज आवाज को
तो मैं खूब पहचानता था। तभी कुछ दूरी पर एक दरवाजे पर पड़ा टाट का परदा हटा और
शास्त्री जी गली में निकल आए। उनके पीछे रशीद दूधवाला था।
मैं कुछ आगे बढ़ा तो शास्त्री जी ने
मुझे देख लिया। चौंककर बोले-‘‘अरे देवन, तू
यहां क्या कर रहा है। क्या आज लायब्रेरी नहीं खुलेगी?’’
मैंने कहा-‘‘इसीलिए तो आपके पीछे आया हूं। आज आप अखबार
डालना ही भूल गए।’’
‘‘क्या कहते हो। मैं अभी-अभी अखबार डालकर
आ रहा हूं। चबूतरे के ऊपर वाले आले में अखबारों का बंडल मैंने अपने हाथ से रखा था।
हो सकता है किसी ने उठा लिया हो।’’
‘‘कौन उठाएगा? अभी तो गली में कोई है ही नहीं।’’ मैंने कहा।
शास्त्री जी टोपी को सिर पर आगे-पीछे
करते हुए जैसे कुछ सोच रहे थे।
‘‘आपको नानी ने बुलाया है।’’ मैंने कहा।
शास्त्री जी बोले-‘‘तुम घर पहुंचो, मैं अभी आता हूं।’’
अभी तक बारिश पूरी तरह थमी नहीं थी, पर कम जरूर हो गई थी। जगह-जगह गड्ढों
में पानी इकट्ठा था। लायब्रेरी वाले चबूतरे के सामने कई लोग खड़े थे। वे कह रहे
थे-‘‘अखबार कहां हैं? कहां हैं अखबार? क्या लायब्रेरी हरनारायण के जाने के
साथ ही बंद हो गई।’’
मन हुआ पुकार कर कहूं-‘‘लायब्रेरी कभी बंद नहीं होगी। बस आपको
कुछ देर इंतजार करना होगा।’’ पर मेरे गले से आवाज नहीं निकली। मैंने देखा-‘‘लट्टू चौधरी चबूतरे पर गद्दी बिछाकर
बैठे हुए थे। वह रह-रहकर मुसकरा रहे थे, फिर उन्होंने जोर से कहा-
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‘‘लायब्रेरी बंद है। आप लोग क्यों अपना
समय बरबाद कर रहे हैं।’’ अब
मैं वहां खड़ा न रह सका। मेरे पैर कांप रहे थे। मैं अंदर जाकर नानी के पास बैठ
गया। थोड़ी देर बाद शास्त्री जी भी अंदर आ गए। उन्होंने नानी से कहा-‘‘कहिए। क्या बात है? क्यों बुलाया है?’’
‘‘अखबार।’’
‘‘मैं डालकर गया हूं। मैं कभी भूलता
नहीं। किसी ने उठा लिए हैं।’’
‘‘भला अखबार कोई क्यों उठाएगा।’’ नानी ने कहा।
शास्त्री जी चुप बैठे कुछ सोच रहे थे। ‘‘मुझे याद आ रहा है, एक दिन लट्टू चौधरी ने मुझे अखबार देने
से रोका था। कहा था-‘अब
यह लायब्रेरी ज्यादा दिन चलने वाली नहीं। मैं इसे बंद करा दूंगा।’ तब मैंने उनकी बात पर कुछ ध्यान नहीं
दिया था।’’ यह सुनकर मैंने भी नानी को बता दिया कि
लट्टू चौधरी बाहर अखबार पढ़ने आए लोगों से क्या कह रहे थे। मुझे डर लगने लगा। कहीं
वह झगड़ा न करें। शास्त्री जी ने भी मेरी बात ध्यान से सुनी। बोले-‘‘मैं भी तो यही कह रहा हूं। गुस्सैल
आदमी है लट्टू चौधरी। उससे उलझने में कोई फायदा नहीं।’’
नानी ने मेरी और शास्त्री जी बात ध्यान
से सुनी, पर बोली कुछ नहीं। मुझे लगा वह कुछ सोच
रही थीं। मैं समझ न पाया कि वह क्या सोच रही हैं। बीच में शास्त्री ने एक-दो बार
मेरी ओर देखा फिर सिर की टोपी को आगे-पीछे करने लगे।
एकाएक नानी ने कहा-‘‘शास्त्री जी, आपके पास आज के अखबार हैं?’’
‘‘अखबार तो...।’’ शास्त्री जी ने फिर टोपी को आगे-पीछे
किया। “सब खत्म हो गए। शायद एक पड़ा हो।’’
‘‘तो वही दे दो।’’
मैं अचरज से नानी का मुंह देख रहा थ।
अखबार का भला क्या करेंगी नानी?
‘‘मैं अभी दे जाता हूं।’’ कहते हुए शास्त्री जी उठ खड़े हुए।
‘‘मैं आपको बाहर मिलूंगी। अखबार वहीं
डालना है हरना के चबूतरे पर।’’ नानी ने कहा और दहलीज की तरफ बढ़ीं। मैं उनके पीछे-पीछे चला।
शास्त्रीजी की साइकिल गली में खड़ी थी। नानी बाहर निकलीं। मैंने देखा लायब्रेरी
वाले चबूतरे के आस-पास कोई न था। अखबार पढ़ने आए लोग जा चुके थे। शायद उन्होंने
समझ लिया था कि आज के बाद अखबार पढ़ने को नहीं मिलेंगे।
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नानी ने मुझसे हरना बाबा की बैठक का
दरवाजा खोलने को कहा। मैंने ताला खोल दिया तो वह बैठक में आ गईं। उन्होंने एक बार
अखबार रखने वाली कोठरी की ओर देखा फिर चौखट पर बैठ गईं। तब तक शास्त्रीजी ने
उन्हें अखबार पकड़ा दिया। नानी बैठक की चौखट पर बैठी-बैठी अखबार उलटने-पलटने लगीं।
मैं देख रहा था,
अपने
चबूतरे पर बैठे चौधरी की नजर नानी पर टिकी हुई थी। गली में आने-जाने वाले लोग भी
नानी को देखते हुए जा रहे थे। मैंने भी उस दिन पहली बार नानी को अखबार पढ़ते हुए
देखा था। हमारे घर में अखबार नहीं आता था। नानी ने शास़्त्रीजी से कहा-‘‘कोई कुछ भी कहे आप अखबार देना बंद न
करें। पहले की तरह देते रहें।’’
‘‘जी अच्छा।’’ कहते हुए शास्त्रीजी ने लट्टू चौधरी की
ओर देखा फिर साइकिल पर बैठकर चले गए। मुझे नानी का यों अखबार पढ़ना अजीब लग रहा
था। तभी उन्होंने पूछा-‘‘तू
अखबार कितने बजे उठा कर अंदर रखता है?’’
मैंने बता दिया। नानी ने कुछ देर पढ़ने
के बाद अखबार चबूतरे पर डाल दिया, और उसी तरह बैठी रहीं। ठीक ग्यारह बजे मैंने अखबार उठाकर कोठरी में
रख दिया। नानी चबूतरे पर खड़ी हो गईं। उन्होंने मुझसे कोठरी में ताला लगाने को कहा
फिर चबूतरे से नीचे उतर आईं। शायद उन्होंने न देखा हो, पर मैं लगातार लट्टू चौधरी की ओर देख
रहा था। जब मैं और नानी अपनी दहलीज में घुसे तो पीछे से किसी ने कहा-‘‘हे भगवान, अब औरतें भी गली में इस तरह अखबार
पढ़ेंगी।’’ आवाज सुनकर नानी ठिठक गईं जैसे उस बात
का जवाब देना चाहती हों, पर
फिर चुपचान आंगन में चली आईं। मैंने पूछा-‘‘नानी, क्या
तुमने इससे पहले कभी गली में बैठकर अखबार पढ़ा था?’’
‘‘नही तो...’’
‘‘तो फिर आज...’’
‘‘तूने देखा नहीं लट्टू चौधरी हरना की
बहू की लायब्रेरी बंद कराना चाहते हैं। मैं क्या समझती नहीं कि अखबारों का बंडल
कहां गया।’’
‘‘पर सुबह तो गली में अंधेरा होता है।
मैं...’’
नानी ने हंसकर मेरे बाल सहला दिए। ‘‘तेरी लायब्रेरी कोई बंद नहीं करा सकता।
जा कुछ पढ़ ले।’’
अगली सुबह मैं उठा तो पिछले दिन की तरह
बारिश हो रही थी। मुझे लग रहा था, कहीं आज भी शास्त्री जी को ढूंढ़ने न जाना पड़े। मैं उठा तो देखा
नानी पूजा कर रही हैं।
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‘‘नानी, आज इतनी जल्दी पूजा क्यो?’’
नानी चुपचाप पूजा करती रहीं। मैं बाहर
की तरफ चला तो वह भी साथ चलीं और गली में जा कर चबूतरे के सामने खड़ी हो गईं।
लट्टू चौधरी वाले चबूतरे पर कोई नहीं था। गली में सन्नाटा था। तभी शास्त्रीजी की
तेज आवाज सुनाई दी। वह चौराहे की तरफ से बढ़े आ रहे थे ताजी खबर दोहराते हुए।
तभी लट्टू चौधरी का दरवाजा खुला और वह
बाहर निकल कर अपने चबूतरे पर खड़े हो गए। उन्होंने नानी की ओर देखा पर बोले कुछ
नहीं। शास्त्री जी आकर रुके और अखबारों को बंडल से निकालने लगे। उनकी नजर नानी पर
गई। वह चौंक गए,
पर
बोले कुछ नहीं।
मैंने हमेशा की तरह अलग-अलग अखबार
चबूतरे पर पास-पास रख दिए। मैं अभी यह कर ही रहा था कि अखबार पढ़ने वाले आ गए।
शास्त्री जी एक तरफ खड़े देख रहे थे। लोग उनसे पूछने लगे-‘‘कल क्या बात हुई थी? कल...’’
शास्त्री जी ने कोई जवाब नहीं दिया।
साइकिल पर बैठते हुए जोर से पुकार उठे-‘‘आज की ताजा खबर...’’ और खिड़की पटनामल की ओर बढ़ गए।
लोग पहले की तरह अखबार पढ़ने में जुट
गए थे। नानी कुछ देर हरना बाबा की बैठक में बैठी रहीं, फिर नीचे उतर कर घर में चली गईं। मैंने
घूम कर देखा लट्टू चौधरी नहीं थे। न जाने कब चले गए थे। अब मुझे कोई डर नहीं था।
और उस दिन के बाद से अखबार कभी गायब
नहीं हुए। मना करने पर भी नानी मेरे साथ सुबह ही साढ़े पांच बजे गली में आ जाती थीं।
मैंने नानी से कई बार कहा कि अब उन्हें
बाहर जा कर खड़े रहने की जरूरत नहीं है। पर वह रोज आ जाती थीं, चाहे मौसम कैसा भी क्यों न हो।
मैं ग्यारह बजे अखबार कोठरी में रखने
के बाद दरवाजे पर ताला लगा रहा था। तभी शास्त्री जी आ गए। इस समय वह खामोश थे। खबर
तो वह सुबह-सुबह ही सुनाते थे अखबार डालते हुए।
मुझे देखकर रुक गए। मुस्कराए। इशारे से
पूछा-‘‘सब ठीक तो है न?’’
‘‘जी...” मैंने कहा।“ आप कहां जा रहे हैं?’’
‘‘जरा रशीद दूध वाले की बिटिया जूही को
देखना है।“
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‘‘जूही! कौन जूही?’’ मैंने झट पूछा।
‘‘जूही उसकी बेटी का नाम है।’’ शास्त्री जी ने कहा। उन्होंने साइकिल
हमारे घर के आगे खड़ी कर दी और पैदल ही खिड़की पटनामल की तरफ बढ़ चले।
‘‘आपकी साइकिल।’’ मैंने पुकारा।
‘‘वहां बच्चे शैतान हैं। मैं जब भी रशीद
के घर के बाहर साइकिल खड़ी करता हूं तो हवा निकाल देते हैं। इसलिए...’’
पता नहीं मन में क्या आया, मैंने पूछ लिया, ‘‘मैं भी चलूं उसे देखने...।’’ मुझे एक और जूही याद आ रही थी।
शास्त्री जी ने मुड़ कर मेरी ओर देखा-‘‘अरे, तुम क्या करोगे? फिर भी चलना चाहते हो तो चलो।’’ मैं बिना बोले उनके पीछे-पीछे चल दिया। एक बार
रशीद ने मुझसे कहा था अपने घर चलने के लिए। यह भी कहा था कि अगर नहीं चलोगे तो
जबरदस्ती ले जाऊंगा। तब मैं डर गया था। पर आज तो शास्त्री जी के साथ खुद जा रहा
था। शास्त्री जी कई काम करते थे। नानी उनसे भविष्यफल पूछती थीं। वह ब्याह कराते थे
और दवा भी देते थे, जैसे
रशीद की बेटी का इलाज कर रहे थे।
रशीद की गली में घुसते हुए मुझे
बार-बार एक ही बात याद आ रही थी। जूही...जूही...जूही। कहां दिल्ली कहां
आगरा...जुबैदा का घर तो बहुत शानदार था और रशीद...
उसके मकान के दरवाजे पर टाट का परदा
झूल रहा था। गली में कई मकानों के बाहर बकरियां बंधी थीं। छोटे-छोटे बच्चे शोर
मचाते हुए इधर से उधर दौड़ रहे थे। शास़्त्री ने बाहर से पुकारा-‘‘रशीद हो क्या?’’
तुरंत परदा हटा और रशीद बाहर निकल आया।
वह नंगे बदन तहमद पहने हुए था। ‘‘सलाम शास्त्री जी।’’ उसने कहा और मुस्कराते हुए मुझे देखने लगा।
‘‘देखो तो कौन आया है। मैंने इसे
तुम्हारी बेटी की बीमारी के बारे में बताया तो यह भी देखने चला आया।’’
‘‘आओ भैया, आओ...। बिटिया ठीक है अब।’’
रशीद के कच्चे आंगन में दो भैंसे पूंछ
से मक्खियां उड़ाती हुई खड़ी थीं। सारे में गोबर और पेशाब फैला था। दुर्गंध उठ रही
थी। एक तरफ एक औरत चूल्हे पर रोटियां बना रही थीं। पास में एक बच्चा बैठा कुछ खा
रहा था। वहीं एक हौज बना था। उसमें एक बकरी गरदन तक डूबी खड़ी थी। पर बीमार लड़की
कहीं नहीं दिखाई दी मुझे, जिसका नाम जूही था। हमें देखते ही रोटी पकाती हुई औरत उठी। उसने
शास्त्री जी के सामने हाथ जोड़ दिए। रशीद ने कहा-‘‘फातिमा, यह
देवन बाबू हैं। इनके घर मैं रोज दूध देने जाता हूं।’’
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उसका मुझे यों देवन बाबू कहना अच्छा
लगा। भले ही उसका घर गंदा था, पर वह अच्छी तरह बोल रहा था। नानी रशीद से अक्सर कहती थीं-‘‘तुम दूध में पानी क्यों मिलाते हो?’’
तब वह कानों को हाथ लगा कर कहता था-’’अम्मां, आपका यह बेटा इतना नालायक नहीं।’’ पर न जाने क्यों मुझे लगा अगर वह दूध में इसी
हौज का गंदा पानी मिला दे तो कौन देखने
वाला है। मैं सोचने लगा-क्यों आया यहां? तभी उस औरत ने मेरे सिर पर हाथ फिराया। बोली, ‘‘आओ भैया...’’ उसकी आवाज बहुत मीठी थी। मुझे याद आया
आगरे में जुबैदा ने भी तो मुझे कैसे अपनी गोद में बिठाया था। तब उसके कपड़ों से
कितनी अच्छी खुशबू आ रही थी। लेकिन यहां तो सब तरफ बदबू थी।
फातिमा के साथ शास्त्री जी एक कोठरी
में चले गए। मैं पीछे-पीछे था। फर्श पर मैली सी चादर ओढ़े एक लड़की लेटी थी। उसकी
आंखें बंद थीं। उसने गले तक काले रंग की चादर ओढ़ रखी थी। मैं उसे देखते ही चौंक
उठा-सचमुच जैसे जूही लेटी हो। हूबहू जूही जैसी लग रही थी।
‘‘बिटिया जूही, आंखें खोलो। शास्त्री जी तुम्हें देखने
आए हैं।’’ आवाज सुनकर फर्श पर लेटी लड़की ने
आंखें खोलकर देखा,
फिर
उठने की कोशिश करने लगी। ‘‘लेटी रहो बिटिया, कैसी हो?’’ शास्त्री
जी ने पूछा।
उस लड़की ने धीमी आवाज में कहा। मेरी
आंखें उसके चेहरे से हट नहीं रही थीं। आखिर इसका नाम जूही क्यों है? क्या आगरे वाली जूही और यह आपस में
बहनें हैं। नही तो दोनों के नाम और शक्लें एक जैसी कैसे हैं।
शास्त्री जी ने जूही की कलाई थामकर
उसका बुखार देखा,
फिर
फातिमा से बोले-‘‘तुम्हारी बेटी एकदम ठीक है। बस इसके
खाने-पीने का ध्यान रखो।’’
‘‘यही तो आफत है, यह निकम्मी कुछ खाती ही नहीं।’’ कहते हुए फातिमा ने जूही का सिर अपनी
गोद में रख लिया और उसके उलझे हुए बालों में उंगलियां फिराने लगी। तभी रशीद बाहर
से एक पत्ते पर मिठाई और नमकीन लेकर आया, फिर दो गिलासों में शरबत। बोला-‘‘लीजिए शास्त्री जी। तुम भी खाओ देवन बाबू।’’
मैं अपनी जगह जैसे जम सा गया। नानी कहा
करती हैं, मुसलमान के घर नहीं खाना चाहिए, क्योंकि वे मांस-मच्छी खाते हैं। उसके
बार-बार कहने पर भी मैंने हाथ नहीं बढ़ाया। लगा जैसे नानी पास खड़ी मेरे कान में कह रही हैं-‘‘खबरदार। अगर मुसलमान की दी हुई कोई चीज
खाई तो चमड़ी उधेड़ दूंगी।’’
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‘‘चख लो भैया।’’ फातिमा ने हंसकर कहा। उसकी हंसी मुझे
बहुत अच्छी लगी। पर मैंने फिर भी हाथ नहीं बढ़ाया। मैंने देखा जूही ध्यान से मेरी
ओर देख रही है। फिर उसने कहा-‘‘खा लो न भाई।’’
एक पल को हाथ रोकना चाहा, फिर मैंने एक टुकड़ा उठा लिया।
शास्त्रीजी पहले ही खाना शुरू कर चुके थे। मैं सोच रहा था, अगर नानी को पता चल जाए कि शास्त्रीजी
रशीद दूध वाले के घर में बैठकर खाते-पीते हैं तो शायद वह उन्हें घर में ही न आने
दें। और उनसे पूजा-पाठ कभी न करवाएं।
जूही के सिर के ऊपर दीवार में एक झरोखा
था। उसमें से होकर धूप उसके मुंह पर गिर रही थी। मैं उसके चेहरे से आंखें नहीं हटा
पा रहा था। कैसी होगी आगरे में जूही?
शास्त्रीजी उठ खड़े हुए। मुझे भी उठना
पड़ा। मन चाहता था कुछ देर और बैठा रहूं। मैं बाहर निकलने लगा तो फातिमा ने मेरे
सिर पर हाथ फेरा। बोली-‘‘भैया, फिर आना। इसे भी अपना ही घर समझना।’’
मुझे अच्छा लगा।
‘‘मैं तुम्हारी नानी को जानती हूं। कई
बार मैं खुद दूध देने जाती हूं। एक-दो बार तो जूही भी जा चुकी है तुम्हारे घर।’’
सुनकर मैं चौंक गया। मैंने तो कभी नहीं
देखा था जूही को अपने घर में। क्या उसकी मां सच कह रही है। तब मैं कहां था जब जूही
आई थी।
शास्त्री जी के पीछे-पीछे मैं बाहर आ
गया। बादल फिर गरज रहे थे। टपाटप बूंदें पड़ने लगी थीं। क्या मैं फिर कभी यहां आ
सकूंगा। कैसे पता चलेगा कि आगरे में जूही कैसी है और कहां है? उसे भला कहाँ याद होगा कि मैं कभी उसके
घर आया था।
बारिश तेज हो गई थी ।
+++
अब नानी सुबह मेरे साथ आकर नहीं बैठती
थीं। क्योंकि लट्टू चौधरी कुछ नहीं कहते थे। लेकिन वह हमसे नाराज हैं यह उनके
देखने के ढंग से ही पता चल जाता था। पहले वह शास्त्री जी से रोज अखबार खरीदा करते
थे। पर कुछ दिन से उनसे लेना बंद कर दिया था। उनके नमस्कार का भी जवाब नहीं देते
थे, जबकि पहले उनके आते ही पूछते थे-‘‘नई खबर सुनाओ शास्त्री महाराज!”
121
’
गली में एक और अखबार वाला आता था।
लट्टू चौधरी ने कुछ दिन उससे अखबार लिया। पर एक दिन मैंने लट्टू चौधरी को उसे गाली
देते हुए सुना। पता नहीं क्या बात थी। लट्टू चौधरी चीख-चीख कर बोल रहे थे-‘‘मैं तेरा गली में घुसना बंद कर दूंगा।
मुझसे बदमाशी करता है...लट्टू चौधरी से?’’
पता नहीं क्या बात थी। बाद में मैंने
शास्त्री जी से पूछा तो हंसने लगे। बोले-‘‘वह रोज लट्टू चौधरी को
पुराना अखबार दे जाता था। वह जानता है कि चौधरी कभी अखबार नहीं पढ़ते। वह मुझे
अपना गुस्सा दिखाना चाहते थे इसलिए उससे अखबार लेने लगे थे।’’
‘‘तो लट्टू चौधरी को आज कैसे पता चला कि
अखबार पुराना है।’’
मैंने
पूछा।
‘‘अरे, किसी ने बता दिया होगा और क्या...’’ कहकर शास़्त्रीजी हंस पड़े।
उस समय लट्टू चौधरी का चबूतरा खाली था।
शास्त्री जी चलने लगे तो मैं पूछते-पूछते रुक गया कि जूही कैसी है। लगा, शायद मेरा पूछना शास्त्री जी को अच्छा
न लगे और नानी से कुछ कह दें। अगर नानी को यह पता चल जाए तो आफत ही आ जाएगी।
मैं चुप खड़ा देखता रहा। शास्त्री जी
साइकिल हमारे दरवाजे पर खड़ी करके चले गए। उनके पैर में तकलीफ थी इसलिए लंगड़ाकर
चलते थे। मैं उन्हें खिड़की पटनामल से दूसरी तरफ जाते हुए देखता रहा था।
मैं लायब्रेरी वाले चबूतरे के पास खड़ा
था। वह अब दिखाई नहीं दे रहे थे। पर मैं उन्हें देख पा रहा था। वह मस्जिद के पास
वाली गली में घुस कर रशीद के घर के बाहर जा खड़े हुए थे। उसे आवाज दे रहे थे। रशीद
बाहर आया था और उसने सलाम में अपना हाथ माथे से लगाया था। अब शास्त्री जी अंदर चले
गए थे। आंगन में भैंसे खड़ी पूंछ हिला रही थीं। सामने की कोठरी में लेटी थी जूही।
काली चादर गले तक ओढ़े हुए। उसकी आंखें बंद थीं। शास्त्री जी की आवाज सुन कर उसने आंखें
खोलीं। सिरहाने वाली छोटी खिड़की से धूप उसके मुंह पर गिर रही थी। आज वह ठीक लग
रही थी। उसकी मां ने कुछ कहा तो वह हंस दी थी। उसके दांत एकदम सफेद हैं आगरे वाली
जूही की तरह। क्या वे दोनों सचमुच आपस में बहन-बहन हैं। दोनों ही तो मुसलमान हैं।
यह हो भी सकता है।
एकाएक मेरे सामने आगरे वाली जूही आ
खड़ी हुई। उसी तरह चारपाई पर लेटी हुई। तो क्या वह अब तक बीमार है? मैंने कितना कहा पर शैतान तांगे वाला
मुझे लेकर वहां नहीं गया। उसने कैसे झूठ बोला था कि उस घर में कोई जूही नहीं है।
वह वहीं है, जरूर है। अगर मैं किसी तरह फिर से आगरा
जा सकूं तो हो सकता है वहां भी जाने का मौका मिल जाए। लेकिन...लेकिन...
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तभी आवाज आई... ‘‘देवन...देवन... क्या सारा दिन लायब्रेरी
में ही रहेगा।’’
मैं
भाग कर घर में घुस गया। कैसी मुश्किल थी। मैं बहुत सोच चुका था पर रशीद के घर जाकर
जूही को देखने की तरकीब नहीं सूझ रही थी। शास्त्री जी भला मुझे क्यों ले जाते और
अकेले उसके घर जाने का तो सवाल ही नहीं था। रात को लेटा तो बारी-बारी से दोनों
दिखाई देने लगीं। कभी रशीद का घर, कभी जुबैदा का। नींद नहीं आई।
पर सुबह तो कमाल हो गया। मैं कोठरी में
अखबार रखकर घर में गया तो नानी ने कहा-‘‘जा रशीद के घर चला जा। कल की तरह आज भी दूध फट गया है, जरूर पानी मिलाता होगा।’’ नानी के इतना कहते ही मेरी आंखों के
सामने उसके घर का गंदा आंगन घूम गया। हौज में गरदन तक डूबी खड़ी बकरी। कहीं उसने
हौज का पानी ही तो नहीं मिला दिया हमारे दूध में।
‘‘क्या कहूं उससे।’’ मैंने पूछा।
‘‘कहना क्या है, कह देना नानी ने बुलाया है। दो दिन से
दूध फट रहा हैं, देना है तो ठीक से दे, नहीं तो मैं दूध लेना बंद कर दूंगी।’’
मैं नानी की ओर देखता रहा। क्या नानी
सचमुच रशीद से दूध लेना बंद कर देंगी। यह तो गलत होगा। आखिर दूध रोज तो फटता नहीं।
वह कितने सालों से हमारे घर दूध देता आ रहा है। आज से पहले तो मैंने कभी नानी को
इस तरह दूध की शिकायत करते नहीं सुना था।
मेरा मन खुशी से झूम उठा। फटे हुए दूध
का ही बहाना सही,
कम
से कम मैं रशीद के घर में जा सकता था। अब वहां जाने का कोई और बहाना सोचने की
जरूरत नहीं थी।
मैं दौड़ता हुआ गली में निकला और तेजी
से बढ़ चला। खिड़की पटनामल से बाहर निकल कर मस्जिद तक जाने में बस कुछ ही मिनट
लगे। मैंने देखना चाहा कि चाय की दुकान पर कहीं शास्त्री जी न बैठे हों। शास्त्री
जी को न देख कर मैंने चैन की सांस ली। मेरी समझ में यह नहीं आ रहा था कि नानी की
शिकायत किस तरह कहूं जिससे रशीद को बुरा न लगे।
मैं गली में घुस गया। सब कुछ उस दिन
जैसा ही था, पर एक गड़बड़ हो गई। मुझे यह याद नहीं
आ रहा था कि रशीद का घर कौन-सा था। मैं गली के बीचों-बीच खड़ा हुआ देख रहा था। याद
कर रहा था कि उस दिन मैंने शास्त्रीजी को किस मकान से बाहर निकलते हुए देखा था।
देखने में मुझे सारे मकान एक जैसे लग रहे थे।
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तभी न जाने कहां से आकर एक फुटबाल मेरे
सिर पर लगी। फिर उछल कर किसी आंगन में जा गिरी। खड़-खड़ की आवाज हुई फिर कोई चीख
उठा। ‘‘अरे, यह फुटबाल किसने फेंकी रे! अरे सिर फोड़ दिया रे...कौन हरामी
है...मैं बाहर आकर उसकी टांगें तोड़ती हूं।’’
फिर कई दरवाजों के सामने लटके टाट के
परदे हट गए और कई मरद-औरतें बाहर आ गए। बात की बात में ढेर सारे बच्चे भी आ जुटे।
वे शोर मचा रहे थे। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि बात क्या है। मैंने किसी से पूछ
लिया-‘‘रशीद दूध वाला...’’
‘‘कौन है...क्या चाहिए...’’ कहती हुई एक औरत आगे आई। मैं उसे पहचान
गया। वह फातिमा थी, जूही
की मां...उसे देखकर मैं मुस्कराया पर वह गुस्से में थी। मुझे लगा उसने मुझे पहचाना
नहीं था।
मैंने कहा-‘‘रशीद भाई कहां हैं। हमारा दूध फट गया।
नानी...’’
‘‘कैसा दूध...किसका दूध...’ वह चीखी।
मुझे घबराहट होने लगी। मैं क्या सोच कर
आया था और यहां क्या सुनने को मिल रहा था। मैं रशीद की खोज में इधर-उधर देखने लगा।
अगर वह मिल जाता तो मुझे जरूर देवन बाबू कहकर घर में ले जाता और फिर...शायद मैं
जूही का हाल-चाल ले सकता था। गली में काफी लोग थे, पर रशीद उनमें नहीं था। शायद घर में नहीं था, वरना शोर सुन कर बाहर जरूर आ जाता।
क्या मैं रशीद के घर में जा सकता था? ऊंहूं... कभी नहीं। मैंने एक बार फिर फातिमा से कुछ कहना चाहा, पर उसने गुस्से से घूर कर मेरी तरफ
देखा और तेजी से एक तरफ चली गई।
तभी मैंने देखा रशीद के घर के दरवाजे
पर पड़ा टाट का परदा जरा हटा और कोई परदे के पीछे से झांकने लगा। मैं उधर ही देखता
रहा। अगर वह जूही हो तो? परदा
हटा कर एक लड़की बाहर निकल आई। मेरा दिल धक से रह गया। सचमुच वह जूही ही थी। वह
शोर सुन कर घर से निकली थी।
मैं जूही की ओर देख रहा था पर वह कहीं और देख
रही थी। उलझे हुए बाल, लगता
था कई दिन से नहाई नहीं थी। उसके कपड़े भी मैले थे। उन पर सलवटें पड़ी थीं। वह
सीधी बिस्तर से ही उठ कर आ गई थी। इसका मतलब था कि अभी वह बीमार थी वरना दिन में
कोई बिस्तर पर क्यों लेटेगा। पहले मन में कुछ हिचक हुई फिर मैं तेजी से बढ़कर उसके
पास जा पहुंचा। मैं सोच रहा था अगर अपनी मां फातिमा की तरह इसने भी न पहचाना तो
कैसे क्या कहूंगा।
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मैं पास जा खड़ा हुआ। वहां से आंगन में
खड़ी भैंसें दिखाई दे रही थीं पूंछ हिलाती हुई। मैंने देखा उसकी आंखें मुझे पहचान
रही थीं। उसके होंठों पर एक हल्की मुस्कान आकर चली गई। होंठ जरा से खुले और सफेद
दांत दिखाई दिए। मैं भी हंस पड़ा। ‘‘कैसी हो जूही?’’ मैंने पूछा।
‘‘पहले से ठीक हूं। तुम, तुम आए थे न हमारे घर शास्त्री जी के
संग।’’
मेरा मन खुशी से भर गया। उसने सचमुच
मुझे पहचान लिया था। उसकी आवाज में मिठास थी, पर वह बहुत धीरे-धीरे बोल रही थी जैसे थकी हुई हो।
‘‘तुम कहां रहते हो? तुम्हें मेरा नाम कैसे पता है?’’
वह हैरान थी कोई अनजान लड़का उसका नाम
जानता था।
‘‘मैं देवन हूं, पीछे गली में रहता हूं। रशीद हमारे घर
दूध देने जाते हैं। मैं कहने आया था कल और आज हमारे घर में दूध फट गया था।’’
‘‘दूध तो हमारे घर में भी फट गया था।’’ कहकर वह हंस पड़ी। इस बार दांत ज्यादा
दिखाई दिए। छोटे-छोटे, सफेद
और एक जैसे। मैं रुक गया। यह मैंने गड़बड़ कर दी थी। यह दूध फट जाने की बात मैंने
क्यों कह दी। मैं यह भी तो कह सकता था कि उसे देखने आया हूं। भला यह भी कोई बात थी
कहने की।
मैं चाहता था जूही मुझसे घर के अंदर
चलने को कहे। जहां मैं खड़ा था वहां गोबर की बदबू फैली थी। मैंने पूछ लिया-‘‘कोई आगरे में भी हैं तुम्हारे?’’
‘‘आगरे में...हैं तो। कुछ दिन पहले हम सब
एक शादी में गए थे आगरा।’’
जूही ने कहा और हंस दी। अब वह बिलकुल
भी बीमार नहीं लग रही थी। मुझे खुशी हुई कि वह ठीक हो गई थी और आगरे में इसके
रिश्तेदार भी थे। कहीं यह आगरे वाली जूही की बहन तो नहीं। अगर ऐसा हो तो कितना
अच्छा रहे। तब तो मैं इससे उस जूही के बारे में पूछ सकता हूं। पता नहीं वह कैसी
होगी। और मुझे सेब के बाजार वाला जुबैदा का घर आंखों के सामने दिखाई देने लगा। पर
ज्यादा देर तक ऐसा न हो सका। तभी फातिमा तेजी से चलती हुई अपने घर की तरफ आई।
दरवाजे पर रुक कर उसने मुझे घूर कर देखा। मैं सोचता था उसने मुझे पहचान लिया है, लेकिन उसने जूही का हाथ थामा और खींच
कर अन्दर ले गई. जोर की आवाज़ हुई.
125
( क़िस्त = 9
== समाप्त ) आगे और है
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