रविवार, 15 दिसंबर 2019

अपने साथ---आत्म कथा—देवेन्द्र कुमार(क़िस्त:3)     

आत्म कथा - 
दूसरी क़िस्त – पृष्ठ 14 से 28 तक-- अब आगे पढ़ें



एक थे राघव. वह जब मिलते तो मुझे खूब प्यार करते . लेकिन हमारे घर में उनका आना मना था.मैंने नानी से राघव के बारे में पूछा तो उन्होंने राघव को खूब बुरा भला कहा. मुझे कसम दिला दी कि में राघव से कभी न मिलूं. जब पता चला कि राघव को चोट लगी है तो मैं नानी से छिप कर उनसे मिलने चला गया. राघव ने मुझे माँ का फोटो दिखाया, वह माँ से शादी करके मुझे अपने साथ रखना चाहते थे पर नानी ने उनकी बात नहीं मानी नानी ने ऐसा क्यों किया था मैं जानना चाहता था.  


उस दिन मैं चुप कोठे में बैठा रहा। फिर नानी से नजर बचाकर सीधा ऊपर छत पर चला गया। अंधेरा होने तक मैं छत पर ही रहा। नानी मुझे बाहर ढूंढ़ती फिर रही थीं, पर मैं उन्हें नहीं मिला। मैं किसी से भी नहीं मिलना चाहता था। मैं जिनके पास रहना चाहता था वे मुझसे दूर थीं. और आखिर सच क्या था? क्या मां को मुझसे दूर भेजने के लिए नानी जिम्मेदार थीं? वह अपने अकेलेपन को भरने के लिए मुझे अपने साथ रखना चाहती थीं। इसलिए उन्होंने मां को राघव के साथ नहीं जाने दिया था, क्योंकि तब शायद वह मुझे खो देतीं। क्या नानी सचमुच इतनी स्वार्थिन थीं? मुझे सच कौन बताएगा? क्या सभी झूठ बोल रहे थे?
फिर न जाने कब मुझे नींद आ गई। लगा जैसे कोई धीरे-धीरे माथे को थपक रहा हो। वह नानी ही थीं. मैं उठकर बैठ गया। मैंने उनका हाथ झटक दिया। ‘‘तुमने झूठ कहा है। राघव ने मुझे सच बता दिया है। उनके पास मां का फोटो है।’’
नानी जोर-जोर से रोने लगीं। वे अपनी छाती पर मुक्के मारने लगीं। उन्होंने मुझे जोर से लिपटा लिया। उनका पूरा बदन कांप रहा था। उन्होंने कहा-‘‘कौन जानेगा सच क्या है? तेरी मां का फोटो वह ले गया था तो क्या वह सच्चा हो गया और मैं झूठी? बोलता क्यों नहीं।’’ और वह मेरे हाथ पकड़कर अपने
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 गालों पर मारने लगीं। उनका चश्मा दूर जा गिरा। वह फर्श पर पछाड़ें खा रही थीं, अपना सिर फर्श पर पटक रही थीं। ‘‘एक फोटो ने सच मिटा दिया। मैंने क्या किया? मेरे साथ क्या हुआ? तेरी मां के साथ क्या हुआ? कौन बताएगा यह सच?’’
नानी रोते-रोते बेहोश हो गईं। मैं डर गया.  क्या राघव ने झूठ कहा था, नानी भी झूठ नहीं कह सकती। तब सच क्या था? कौन बताएगा मुझे?
कुछ देर बाद नानी उठ बैठीं और मुझे गोद में लेकर रोने लगीं। मैं उनके आंसू पोंछता जा रहा था। आखिर मैंने कहा-‘‘नानी गलती हुई। अब मैं राघव के पास कभी नहीं जाऊंगा। मुझे नहीं जानना कि सच क्या था। मां के साथ सचमुच क्या हुआ था?
सुबह नानी एकदम ठीक थीं। घर में और किसी को कुछ पता नहीं था। घर से स्कूल के लिए निकला तो नानी ने कसम धरा दी कि मैं फिर कभी राघव के पास नहीं जाऊंगा। मैंने वादा कर दिया, पर वह सच्चा वादा नहीं था।
दो-तीन दिन मैंने जैसे-तैसे अपने को रोका, पर फिर एक दिन मैं राघव से मिलने जा पहुंचा। ऊपर गया तो देखा उनके घर का दरवाजा बंद था। मुझे खड़ा देख नीचे से किसी ने कहा-‘‘अरे भैया, वह चले गए। उनका भाई इलाज कराने के लिए दूसरे शहर में ले गया है।’’
मैं सोचकर आया था कि आज राघव से सच बात पूछकर रहूंगा। लेकिन अब...अब तो कोई उपाय नहीं बचा था। उसके बाद मैंने राघव के बारे में कभी कुछ नहीं सुना। शायद नानी को भी राघव के गली से चले जाने की बात पता चल गई थी। क्योंकि अब राघव को लेकर कसम धराना बंद कर दिया था उन्होंने। झूठ-सच मैं कुछ नहीं जानता। कभी पता भी नहीं चल सका। लेकिन एक बात जरूर सच थी-नानी मुझे बेहद प्यार करती थीं।===


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वह शाम अजीब थी। मैं घर में घुसा तो डर रहा था, कहीं नानी कुछ पूछ न लें, पर किसी ने मेरी तरफ ध्यान नहीं दिया। नानी ने बस एक बार मेरी ओर देखा, और फिर पड़नानी के संग बातें करने लगीं। मैंने पाया वह भी पास में खड़ी थी। वह यानी आगरे वालों की पत्नी। उन्हें पड़नानी कभी सुजानी तो कभी शकुंतला कहती थीं। पर उन्हें अपने गांव वाला नाम सुजानी ही पसंद था। मेरी नानी के आगरे वाले भाई को पड़नानी मुरारी कहती थीं। उनका नाम मुरारी लाल था। सुजानी वैसे सुंदर थीं पर उनका होंठ बीमारी के कारण टेढ़ा हो गया था। बोलते समय थोड़ा और लटक जाता था। मैं कभी-कभी सोचता था जब आगरे वाले उन्हें अपने संग नहीं ले जाते तो दोनों की शादी कैसे हुई।
लेकिन उस रात मैंने पड़नानी की आवाज सुनी-‘‘कला ने सुजानी को आगरे बुलाया है।’’ कला यानि कलावती-वही जिनके पास मुरारी लाल आगरे से आकर ठहरते थे-और पड़नानी मुझे सुबह-सुबह पैसों के लिए उनके घर भेजा करती थीं।
नानी बताया करती थीं कि कलावती अक्सर ही आगरे जाया करती थीं-पर सुजानी कभी आगरे नहीं गई थीं। मुरारी लाल ने उन्हें कभी बुलाया ही नहीं। तब फिर कलावती ने उन्हें आगरे क्यों बुलाया है? क्या कोई गड़बड़ है? कैसी गड़बड़ है। मैंने कुछ सोचना चाहा, पर बात मेरी समझ में नहीं आई।
सुबह उठा तो पता लगा मुझे सुजानी के संग आगरे जाना था। मुझे जागा हुआ देखकर सुजानी मेरे पास आ गईं। औरों की देखादेखी मैं भी उन्हें भाभी कहता था, हालांकि वह किसी भी तरह से मेरी भाभी नहीं लगती थीं। उन्होंने मेरे गाल सहलाए फिर माथा चूमकर बोलीं-‘‘तू मुझे आगरे ले चलेगा?’’
‘‘मैं...वह कैसे...’’
‘‘मैं अकेली नहीं तुझे अपने संग लेकर जाऊंगी, चलेगा मेरे साथ?’’
वह जिस तरह मुझसे बात कर रही थीं मुझे अच्छा लगा। कुछ इस तरह जैसे कोई अपने बराबर वालों से बात करे , जबकि बाकी सब मुझे छोटा सा बच्चा समझते थे।
मैंने नानी से पूछा था-‘‘हम आगरा क्यों जा रहे हैं?’’
नानी ने आकाश की ओर देखा था। फिर कहा था-‘‘अब ऊंट पहाड़ के नीचे जो आ गया।’’ बात मेरी समझ से बाहर थी। नानी किसे ऊंट और किसे पहाड़ कह रही थीं यह बात समझ में आज आई है,  उन दिनों से इतनी दूर आ चुकने के बाद।

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मुरारी लाल आगरे में रावतपाड़ा बाजार में रहते थे। वहां एक बड़ी और ऊंची इमारत में पहली मंजिल पर उनकी कागज कंपनी का दफ्तर था। छज्जे या बालकनी वाले बड़े कमरे में दफ्तर और पीछे वाले कमरों में घर। उस बड़ी इमारत को कोकनमल बिल्डिंग कहते थे।
हां, मैंने राधे भाई के बारे में तो बताया ही नहीं। वह मुरारी लाल के बड़े लड़के थे। कुछ समय पहले ही आगरा जाकर रहने लगे थे। देखने में सुंदर थे। मैंने उन्हें कभी पढ़ते नहीं देखा था। दिल्ली वाले घर में मैंने उन्हें देर-देर तक शीशे के सामने बाल बनाते देखा था। वह बढि़या कपड़े और चमचमाते हुए जूते पहना करते थे।
आगरा स्टेशन पर वही हमें लेने आए थे। मुझे देखकर मुस्कुराए फिर अपनी मां यानि सुजानी का हाथ पकड़कर बाहर की ओर ले चले जैसे अगर वह हाथ छोड़ देंगे तो सुजानी खो जाएंगी।
रावतपाड़े में मसाले और कागज की मंडी थी। हवा में मिर्च-मसाले की गंध थी। हमारा तांगा एक बड़े फाटक के सामने रुका। मकान में घुसते ही मुझे छींकें आने लगीं। आंखों से पानी बहने लगा। राधे भाई ने मेरे कंधे पर हाथ रखा और आंख दबाकर हंस पड़े।
मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि हम कहां आ पहुचे हैं। रास्ते भर सुजानी मुझसे खूब बातें करती हुई आई थीं। उन्होंने बताया था जब वह मेरे जितनी थीं तो ऐसे गांव में रहती थी जहां सड़क नहीं थी। गांव जाने के लिए एक नाला पार करना होता था जिस पर पुल नहीं था। अपने गांव के किस्से सुना  कर उन्होंने दिल्ली से आगरा के सफर में खूब हंसाया। लेकिन अब रावतपाड़े वाले मकान में पहुंचते ही एकाएक मुझसे दूर हो गई थीं। मैंने देखा, उनका चेहरा उदास हो गया था।
बड़े कमरे में दफ्तर था। हम उसे पार करके पीछे वाले कमरे में चले गए। वहां बिछे पलंग पर कोई सिर से पैर तक चादर ताने लेटा था। आहट सुनकर चादर हटी तो मैंने देखा, चारपाई पर लेटी थीं-कलावती। वह उठ बैठीं। उन्होने हाथ फैलाकर सुजानी को चिपटा लिया, फिर रो पड़ीं। सुजानी भी रो रही थीं। मैं राधे भाई का हाथ पकड़े खड़ा यह सब हैरानी से देख रहा था। मैंने उनकी ओर देखा तो झुककर मेरे कान में फुसफुसाए-‘‘दोनों पागल हैं।’’ रात को मुरारी लाल घर आए। मुझे देखकर हंसे-‘‘अच्छा, तू भी आ गया। तुझे भी ले चलूंगा एक दिन।’’
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नई जगह थी, रात को देर तक नींद नहीं आई। मुरारी लालजी रात में कहीं चले गए थे, उनके जाते ही राधे भाई शीशे के सामने खड़े होकर बात संवारने लगे, फिर नए कपड़े पहनकर खटखटं सीढि़यां उतर गए।
उस रात मैंने उन दोनों को बातें करते हुए सुना-मतलब सुजानी और कलावती को। सुजानी मुरारी लाल को बाबूजी कहती थी। घर में सब कोई उन्हें इसी तरह पुकारते थे। उस रात दोनों बाबूजी के बारे में बातें करती रहीं। न जाने बाबूजी और राधे भाई कहां चले गए थे।
बाबूजी कहां जाते थे यह अगले दिन पता चला। यह बताया कलावती ने। दिल्ली में जब मैं पड़नानी का भेजा हुआ उनके पास पैसे लेने जाता था तो वह मुझसे बहुत बुरी तरह पेश आती थीं, पर आगरे में वह मुझे देखकर हंसी थीं। फिर उन्होंने मेरे गाल थपथपाए।
दोपहर में खाना खाने के बाद मैं परदे के पीछे वाले पार्टीशन में सुजानी के संग बैठा था, फिर उनकी गोद में सिर रखे-रखे कब सो गया, पता न चला। एकाएक कोई आवाज सुनकर नींद टूट गई। परदे के बाहर दफ्तर में कोई औरत बैठी थी। साथ में बाबूजी (मुरारी लाल जी) की आवाज आ रही थी। मैं परदा हटाकर बाहर निकला तो देखा कुर्सी पर एक बहुत सुंदर औरत बैठी है और सामने बाबूजी बैठे हैं। दोनों हंस-हंसकर बातें कर रहे थे। सुजानी सुंदर थीं लेकिन यह जो बाबूजी के सामने बैठी थीं, मैं उनकी ओर देखता रह गया। वह तो बहुत ही सुंदर थीं। हंसी जैसे उनके होंठों से गिर रही थी किसी झरने की तरह। बाबूजी ने कहा-‘‘जुबैदा, यह देवन है, दिल्ली से आया है।’’
‘‘अरे दिल्ली से!’’ कहकर जुबैदा नाम वाली महिला ने मुझे अपनी गोद में बिठा लिया। उनके कपड़ों से बहुत अच्छी खुशबू आ रही थी। मैं शरमा गया।
जुबैदा ने बाबूजी से कहा-‘‘मुझे तो यह पसंद है। मैं तो इसे अपने घर में रखूंगी। बोल, रहेगा मेरे साथ?’’
‘‘तुम भला इसका क्या करोगी?’’ कहकर बाबूजी शरारत से मुस्कराए। जुबैदा ने हंसकर जवाब दिया-‘‘यह तुम्हें बताने की बात नहीं।’’
थोड़ी देर में जुबैदा नाम की महिला उठी तो उसने मुझे भी साथ-साथ उठा लिया।
‘‘थोड़ी देर बाद किसी के हाथों यहां भेज दूंगी। अभी तो ले जा रही हूं।’’ जुबैदा ने कहा।

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नीचे बाजार में परदों से ढंका हुआ तांगा खड़ा था। जुबैदा मुझे लेकर तांगे में बैठ गई। संकरे, भीड़ भरे रास्तों से तांगा चला जा रहा था। मैं आगरे की सैर कर रहा था। कहां ले जा रही थी जुबैदा मुझे?
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एकाएक तांगा झटके के साथ रुक गया। परदा पड़ा रहने के कारण कुछ दिख नहीं रहा था, पर बाहर से आवाजें आकर टकरा रही थीं। फिर परदा हटा तो रोशनी आंखों में भर गई। मैं आंखें मलते हुए नीचे उतरा-सब तरफ चकाचोंध , सजी हुई दुकानें-नई जगह। जिसके साथ आया था वह कहीं नहीं थी। तांगा हलवाई की दुकान के बगल में रुका था। वहां से ऊपर जाने की सीढि़यां दिखाई दे रही थीं। घोड़े को थपथपाकर तांगवाले ने सीढि़यों की तरफ इशारा कर दिया। मैं हिचकिचाते कदमों से ऊपर जा पहुंचा।
दरवाजा एक कमरे में खुलता था। वहां खूब रोशनी थी, फर्श पर चमचमाती हुई चादर बिछी हुई थी, कई गोल तकिए रखे थे। ज्यादा कुछ सोचना नहीं पड़ा, तभी दो लड़कियां हंसती हुई आ गईं-खूब सजी-धजी। देानों ने कहा-‘‘अच्छा तो आज तुम आए हो। चलो कोई बात नहीं।“ वे मुझे खींचती हुई दूसरी तरफ ले गईं। मेरी आंखें जुबैदा को खोज रही थीं जो मुझे लेकर आई थीं। पर वह तो जैसे एकदम गायब ही हो गई थीं। वहां कई लड़कियां थीं। सभी चमचमाते कपड़े पहने थीं। एक लड़की हाथ हिलाकर नाचती हुई आंखें मटका रही थी। कोई धमधम कर रही थी। मेरी समझ में नहीं आया कि मैं कहां आ गया हूं।
तभी सामने वाली कोठरी से एक लड़की दौड़ती हुई निकली और मुझे गाल पर चूम लिया। गरम-गरम खुशबू मेरी नाक और आंख में भर गई। पसीना और आंसू साथ आ गए। मैं हाथों में मुंह दबाकर वहीं बैठ गया।
तभी आवाज सुनाई दी-‘‘आओ भइया, यहां आओ।’’
अब देखा मैं जहां बैठा हूं वहीं एक छोटी चारपाई बिछी है। उस पर चादर ओढ़े एक लड़की लेटी है। वह बार-बार खांस रही थी। मैं उसे देखता रहा। वह इधर-उधर दौड़-भाग रही लड़कियों से एकदम अलग दिख रही थी। मैंने कसकर उसकी चारपाई की पाटी पकड़ ली, ‘‘मुझे घर जाना है।’’
वह धीरे से हंसी, ‘‘चले जाना। इस समय क्यों आए?’’
‘‘मैं आया नहीं, मुझे तो...’’
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‘‘ओ...तुम अम्मी के संग आए हो?’’
‘‘अम्मी...’’
‘‘हां, वह मेरी अम्मी ही तो हैं जो तुम्हें लेकर आई हैं। पर अब नहीं मिलेंगी वह। इस वक्त तो बहुत काम होता है। अब तो कल सुबह ही मिलना होगा उनसे।’’
मेरे कानों में बाबूजी के शब्द गूँज रहे थे, ‘‘शाम का वक्त है, काम का वक्त है।’’ मैं सोच रहा था तब वह मुझे लेकर क्यों आई?
‘‘मुझे तो घर का रास्ता पता नहीं।’’ मुझे डर लग रहा था, न जाने कैसी अजीब जगह थी वह...
बिस्तर पर लेटी लड़की ने धीरे से मेरा हाथ पकड़ लिया। बोली-‘‘मैं अभी कहती हूं। पर कुछ देर तो ठहरो, मुझे बहुत अकेला-अकेला लग रहा है। और कहते-कहते वह खांसने लगी।
जब उसने मेरा हाथा थामा तो मुझे बहुत गरम लगा। ‘‘कहीं तुम्हें...’’
‘‘हां, इधर बहुत दिनों से बुखार आ रहा है।’’ उसने कहा और हंस दी।
उसके दांत गोरे और चमकदार थे। हंसी अच्छी लगी लेकिन वह तो बीमार थी और कोई उसकी तरफ देख भी नहीं रहा था। मुझे नानी की याद आ रही थी। मेरी तबीयत खराब होते ही वह बहुत घबरा उठती थीं। तुरंत डाक्टर को बुलाया जाता था। पड़नानी मेरा सिर अपनी गोद में लेकर बैठ जाती थीं। बार-बार कहतीं, ‘‘मेरा जी घबरा रहा है।
पर यहां तो यह लड़की, पता नहीं इसका नाम क्या था, अकेली लेटी थी। यों घर में बहुत सारी सजी-धजीं लड़कियां धम-धम करती घूम रही थीं, पर इसकी तरफ कोई ध्यान नहीं दे रहा था। अगर यह जुबैदा की बेटी थी, अगर जुबैदा इसकी मां थी तो फिर ऐसा कैसे हो सकता था कि इसे बुखार था और किसी को इसका ध्यान नहीं था।
वह खांस रही थी, मैंने इधर-उधर देखा-सामने की कोठरी में शीशे के सामने खड़ी एक लड़की चेहरे पर कुछ लगा रही थी. दो लड़कियां तेजी से बातें करती हुई इधर-से उधर आ-जा रही थीं। पर वह...लेकिन वह भी तो कुछ नहीं कह रही थी, बस लेटी थी। मैं सोच रहा था अगर मुझे बुखार होता तो मैं पूरे घर को सिर पर उठा लेता।
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‘‘तुमने दवा ली?’’ मैंने पूछा।
‘‘वह पड़ी है।’’ उस लड़की ने सामने पड़ी पुडि़या की तरफ इशारा किया।
‘‘खाई क्यों नहीं?’’
‘‘खाकर क्या होगा?’’
देखने में वह मेरे जितनी ही थी, पर बात मेरी नानी की तरह कर रही थी।
‘‘लाओ, मैं देता हूं।’’
यह सब करते हुए मेरी घबराहट कुछ कम हो गई थी। लग रहा था जैसे मैं अपने घर के आसपास ही कहीं मौजूद हूं।
‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’ उसने पूछा।
‘‘देवन। मैं दिल्ली से आया हूं। और तुम...’’
‘‘मैं जूही...’’
मैंने पुडि़या खोलकर उसके मुंह में डाल दी। फिर पानी पिला दिया। जूही मुंह पोंछती हुई लेट गई। आंखें बंद कर लीं जैसे सो गई हो। सामने खिंचे तार पर कुछ पिंजरे झूल रहे थे। उनमें रंगबिरंगी चिडि़यां फुदक रही थीं।
कुछ देर बाद जूही चौंक कर उठ बैठी। उसके माथे पर पसीने की बूंदें चमक रही थीं। मैंने हौले से उसका हाथ पकड़ लिया। वह पसीने से भीगा हुआ था और कांप रहा था।
‘‘मुझे ठंड लग रही है।’’ जूही ने धीरे से कहा जैसे खुद से बोल रही हो।
मैंने इधर-उधर देखा फिर उसके पैरों के पास पड़ी चादर उठाकर उसे उढ़ा दी।
‘‘मैं घर कैसे जाऊंगा।’’ यह मैं था।
 ‘‘यहीं रह जाओ न।’’ कहकर वह बुखार में भी हंस दी।
‘‘भला यहां मैं कैसे रह सकता हूं, यह तो मेरा घर नहीं।’’
‘‘हां, यह तो मैं जानती हूं। मैंने तो ऐसे ही कह दिया।’’
‘‘क्या तुम स्कूल में पढ़ती हो?’’ मैंने पूछा।
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‘‘नहीं, घर पर रहती हूं। शाम को घर में काम होता है न। पर आजकल बुखार जो आ  रहा है।’’पीछे के कमरे में हारमोनियम पर गाने की आवाजें आने लगीं। पैरों की धमधम भी सुनाई दी। क्या हमारे दिल्ली वाले घर में किसी के बीमार होने पर ऐसा हो सकता था? कभी नहीं। तब क्या जूही जुबैदा अम्मी की और वह जूही की कुछ नहीं थी। हां, ऐसा ही लग रहा था। हो सकता है जूही ने जुबैदा को झूठमूठ अपनी मां बता दिया हो। क्या उसकी मां भी उसी तरह कहीं चली गई थी जैसे मेरी मां।
इतना सोचते ही मां झट से सामने आ खड़ी हुई। ऐसा कोई दिन नहीं जाता था जब मां मुझे दिखाई न दे। मुझसे बात न करे। हालांकि जब वह मेरे पास होती थी तो मैं अक्सर ही उससे रूठ जाया करता था।
पर आगे सोचना न हो सका। जूही फिर से उठ बैठी थी और जोर-जोर से हांफ रही थी। मैंने इधर-उधर देखा। कहीं कोई नहीं था। हारमोनियम और तबले की आवाजें आ रही थीं, लेकिन धीमी। थोड़ी देर पहले तक खुले दरवाजे अब बंद हो चुके थे। लग रहा था कहीं दूर किसी दावत में गाना-बजाना हो रहा है। सब वहीं चले गये थे जूही को बीमार और अकेली छोड़कर।
जब कभी मुझे बुखार आता था तो नानी मेरा सिर सहलाया करती थीं। उससे चैन मिलता था। मैं भी धीरे-धीरे जूही का सिर दबाने लगा। उसने हौले से मेरी कलाई पकड़ ली। उसका हाथ कांप रहा था। जूही की आंखें बंद थीं, पलकों के ऊपर कुछ गीला-गीला चमक रहा था।
एकाएक मैं परेशान हो उठा, रोना आ गया। भला मैं क्यों चला आया इस जगह। अजीब है जुबैदा! घर पर बाबूजी के सामने कैसी मीठी-मीठी बातें कर रही थी और यहां लाकर तो एकदम भूल ही गई है। भला कौन है यह हम लोगों की, बाबूजी की? दिल्ली में तो कभी नहीं देखा था इसे आते-जाते। रावतपाड़े वाले घर में रहती भी नहीं। क्या मेहमान के साथ ऐसा किया जाता है? लेकिन जो अपनी बीमार बेटी को यों अकेली छोड़कर गायब हो सकती थी वह तो कुछ भी कर सकती थी। फिर मुझे मां और जुबैदा साथ-साथ खड़ी दिखाई देने लगीं। हां, मां ने भी तो यही किया था। मुझे हमेशा के लिए छोड़कर चली जो गई थी। एक मां, दूसरी जुबैदा और तीसरी हरना बाबा की पत्नी। हां, वह भी तो मां थी उस लड़के को जिसका फोटो अखबार वाली कोठरी में पड़े बटुए के अंदर मिला था मुझे। पता नहीं पड़नानी उसे डायन क्यों कह रही थीं।
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सिर सहलाने से जूही को शायद आराम मिला था, लगता था वह सो गई थी। मैंने अपने को एक डरावनी जगह में फंस गया महसूस किया। तभी वही अंगूठे जितना बड़ा लड़का नजर आया। उसने मेरे कान में कहा-चलते हो जंगल में घूमने?
मैं भला कहां जा सकता था। तभी हारमोनियम की आवाज बंद हो गई। सामने वाला दरवाजा खुला और दो लड़कियां दौड़ती हुई दूसरी तरफ वाले कमरे में घुस गईं।
कोई जोर से चिल्लाया। फिर चुप्पी छा गई।
मैं डर से कांपता हुआ खड़ा हो गया। क्या यहां कोई झगड़ा हो रहा था। अब क्या होगा? मैंने जूही की ओर देखा। अरे, यह तो खामोश लेटी थी। फिर मेरा हाथ पकड़कर खींचते हुए बोली-‘‘डरो मत। कुछ नहीं। बस, यूं ही...’’
‘‘ऐसा तो होता ही रहता है। डरना क्या।’’
और सच कुछ ही देर में हारमोनियम की आवाज फिर आने लगी। मैंने देखा सामने से दौड़कर गई दोनों लड़कियां फिर वापस कमरे में चली गई थीं।
पर मैं बैठा नहीं। मैं तुरंत वापस जाना चाहता था। ‘‘तुम मुझे रास्ता बता दो, मैं चला जाऊंगा।’’ मैंने कहा।
‘‘अरे, तुम तो सचमुच डर गए। अच्छा ठहरो।’’
कहकर उसने घूमकर पुकारा-‘‘मतीन...मतीन’’
तेज कदमों की आहट हुई। एक लड़का भागता हुआ अंदर आया। वह ज्यादा बड़ा नहीं था। पर ढीले कुरते और पाजामें में बेडौल सा दिखता था। उसके चेहरे पर हंसी थी-और वह उधर से आया था जहां से शोर उभरा था।
‘‘कौन था?’’ जूही ने पूछा।
‘‘और कौन होगा, वही था। रोज का ही तमाशा है। आता है तो फिर हम खाली हाथ नहीं जाने देते।’’ कहकर मतीन नामक लड़का दांत झलकाकर हंस पड़ा। वह जो कुछ कह रहा था, वह मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आ रहा था। पर मैंने देखा जूही भी धीरे-धीरे मुस्करा रही थी। और फिर वह लड़का तेजी से सीढि़यां उतर गया। जूही को जैसे चेत हुआ। उसने कहा-‘‘अरे, तुम्हें तो घर जाना है न। मैं तो बातों में आकर मतीन से कहना ही भूल गई। खैर अभी बुलाती हूं।’’
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‘‘लेकिन मैं उसके साथ, वह मतीन या जो भी हो, नहीं जाऊंगा।’’ मैंने कह दिया। ‘‘अरे, डरो मत, तुम्हें ठीक-ठाक घर पहुंचा देगा। वैसे अगर तुम रुक जाते तो...’’ जूही बोली।
‘‘नहीं, कभी नहीं...मैं अकेला ही जाऊंगा।’’ कहकर मैं उस जीने की ओर बढ़ा जहां से उतरकर मतीन नीचे गया था।
जूही लपककर सीढि़यों पर जा खड़ी हुई। ‘‘वहां से कोई नहीं जा सकता। नीचे से कोई जाने ही नहीं देगा।’’ कहते-कहते वह हांफने लगी।
‘‘लेकिन मैं रुकने वाला नहीं। मैं तो आना ही नहीं चाहता था। वह मुझे ले आईं और फिर गायब हो गईं...’’ कहकर मैंने इधर-उधर देखा-सब कमरों के दरवाजे बंद थे। सीढि़यों वाला खुला था। पर वहां जूही खड़ी थी। ‘‘अच्छा ठहरो...मैं नीचे तक ले चलूंगी तुम्हें।’’
‘‘तुम्हें बुखार है। तुम कैसे जाओगी मेरे साथ।’’
‘‘अरे बाबा, साथ नहीं जाऊंगी, पर जो तांगेवाला अम्मी को रावतपाड़ा लाता-ले जाता है उसी से कह दूंगी। अब तो ठीक है? क्या तांगे वाले के साथ भी नहीं जाओगे?’’
‘‘चला जाऊंगा।’’ मैंने कहा।
‘‘फिर आओगे...कब?’’
‘‘कभी नहीं।’’ मैंने गुस्से से कहा।
‘‘क्यों?’’
‘‘जैसी तुम्हारी अम्मी वैसी तुम...कैसे हो तुम लोग!...’’
‘‘कैसे हैं हम लोग?’’ जूही की आवाज सुनकर मेरा ध्यान टूटा। उसके चेहरे पर गुस्सा था। उसकी आंखें एकदम बड़ी-बड़ी और डरावनी दिखाई दे रही थीं, जैसे आंखें किसी और की हों। कुछ पल उसी तरह एकटक मुझे देखती रही फिर आंखें झपक गईं और वह रो पड़ी। अरे, यह क्या! वह तो रो रही थी। उसकी आंखों से बड़े-बड़े आंसू गिर रहे थे। ‘‘यह तुमने कैसे कहा। कैसे हैं हम। तुम क्या जानते हो? कभी जानोगे क्या? शायद...’’कहते-कहते जूही का शरीर कांपने लगा, जैसे उसका बुखार तेज हो गया था।
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‘‘अरे लेट जाओ, तुम्हें बुखार है।’’ मैंने कहा और उसका हाथ पकड़ना चाहा तो फिर कुछ याद नहीं... उसका हाथ मेरे गाल से टकराया। आवाज हल्की थी, पर चोट लगी। मैं दंग रह गया। ‘‘आज तक मुझे किसी ने नहीं मारा। तुमने मुझे मारा कैसे? मैं बाबूजी से शिकायत करूंगा।’’ मैं बिफर उठा।
‘‘अरे नहीं भाई, ऐसा मत करना...वह अम्मी से कहेंगे और फिर... अम्मी तो मुझे कच्चा चबा जाएंगी। माफ कर दो। लो तुम बदले में मुझे दस थप्पड़ मार लो।... पर वादा करो बाबूजी से कुछ नहीं कहोगे, वरना... यह मैंने क्या कर दिया।’’ और मेरा हाथ पकड़कर अपने गाल पर जोर-जोर से मारने लगी।
मैं हैरान देखता रह गया। अगर उसे इस तरह माफी ही मांगनी थी तो फिर उसने मुझे थप्पड़ क्यों मारा। आखिर मैंने ऐसा क्या कह दिया था। क्या कह दिया था उससे। आखिर वह हमारे बाबूजी से इतना क्यों डरती थी? मैं तो उनसे बिल्कुल ही नहीं डरता था। वह मुझे बहुत प्यार करते थे। जब दिल्ली आते थे तो मुझे पैसे जरूर देते थे।
मैं चुप खड़ा था। वह रो रही थी। बार-बार एक ही बात कह रही थी-‘‘मुझे माफ कर दो। बस, वादा करो, अपने बाबूजी से मेरी शिकायत नहीं करोगे।’’
‘‘अच्छा बाबा नहीं करूंगा। हमारे बाबूजी तो बहुत अच्छे आदमी हें। तुम उनसे क्यों डर रही हो।’’
‘‘नहीं, मैं तुम्हारे बाबूजी से नहीं, अम्मी से डरती हूं। अगर उन्हें थप्पड़ वाली बात पता चलेगी तो...।’’ और वह फूट-फूटकर रोने लगी।
मैंने धीरे से उसका हाथ पकड़ लिया। थपथपाते हुए कहा--अच्छा कुछ नहीं कहूंगा...अब चुप हो जाओ। तुम्हारी अम्मी आ जाएंगी तो...’’
‘‘अम्मी नहीं आएंगी, कोई नहीं आएगा। लो, आओ, मैं चलती हूं तांगे वाले से कहने के लिए...’’
मुझे लगा इस सुनसान घर में मेरे जाने के बाद जूही एकदम अकेली रह जाएगी। ‘‘तुम्हें डर नहीं लगेगा?’’
‘‘मुझे कुछ नहीं होगा। आओ चलो।’’ और फिर सीढि़यों पर जल्दी-जल्दी उतरने लगी। यह तो दूसरी ही गली थी। वहां लगभग अंधेरा था पर फिर इधर-उधर लोग नजर आए। यह वह गली तो नहीं थी जहां मैं तांगे से उतरा था।
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मैं उसके पीछे-पीछे नीचे पहुंचा। वह किसी से बातें कर रही थी। कुछ देर में वहां एक तांगा आ खड़ा हुआ। उस पर परदा नहीं पड़ा था। जूही ने तांगे वाले से कुछ कहा तो वह बोला-‘‘हां, हां मैं खूब जानता हूं बाबूजी का घर रावतपाड़े में...’’
मैं बैठ गया। तांगा चल पड़ा। जूही एक तरफ खड़ी इधर ही देख रही थी। फिर अंधेरे में खो गई थी। तांगा चला जा रहा था।
रास्ते पर जूही का चेहरा आंखों के सामने बार-बार आता रहा। कभी रोती हुई, फिर बड़ी-बड़ी आंखों वाली उसकी मुद्रा, उसका थप्पड़ और फिर थप्पड़ मारने के बाद माफी मांगना। अब मुझे जूही पर गुस्सा नहीं आ रहा था, पर जुबैदा पर, जिसे वह अपनी मां कह रही थी, मेरा मन रह-रह कर उबल पड़ता था। वह मुझे अपने घर ले जाकर एकदम भूल क्यों गई थी। इससे भी ज्यादा गुस्सा था उसकी लापरवाही पर। अगर सचमुच वह जूही की मां थी, फिर तो जूही को यों बीमार और अकेली छोड़कर चले जाने के लिए माफ नहीं किया जा सकता था।         ( क़िस्त –तीन समाप्त )                        ( आगे और है,)
 

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