अपने साथ—आत्म कथा—देवेन्द्र कुमार (क़िस्त:6)
आत्म कथा –- छह
आत्म कथा –- छह
पांचवीं क़िस्त – पृष्ठ 54 से 67 तक(अब आगे पढ़ें)
मैं आगरा से लौट आया
था. घर में माँ खडी थीं. उनसे बचने के लिए मैं हरना बाबा के घर में छिप गया, फिर
उनके पीछे--पीछे रामलीला मैदान जा पंहुंचा. उन्होंने अपनी पत्नी की मौत के बारे
में बताया.उनकी पत्नी ने मुझसे जो फोटो छीना था, वह उनके खो गए इकलौते बेटे का था.
मैं काफी देर बाद घर लौटा तो माँ चली गई थीं. कसूर मेरा था पर मैं उन्हें दोषी मान
रहा था. अगली सुबह मुझे पडोसी मकान की छत पर नया लड़का मोहन मिला. उसका काम देख कर
मैं चकित था...
‘‘कमाल है! यह सब तुमने बनाया है!’’ मैंने कहा।
‘‘हां मैने ही बनाया है इन्हें। वह चित्र
भी मेरा ही बनाया हुआ है। और भी बहुत से हैं। आओ देखो।’’ कहकर मोहन एक तरफ रखे कागज फैलाकर रखने
लगा- बहुत सारे चित्र थे-इमारतों के, रेलवे स्टेशन, पशु-पक्षी और यमुना नदी के चित्र। मैं देखता रह गया।
‘‘आओ, तुम्हें कुतुबमीनार दिखाऊं।’’ कहता हुआ वह मुझे छत के दूसरे कोने में ले गया।
अरे सचमुच....वहां कुतुबमीनार, बिरला मंदिर व जंतर-मंतर बने हुए थे। उसने तीलियों में छोटी-छोटी
कीलें लगाकर उनके माडल बना रखे थे। मैं मोहन का मुंह देखता रह गया। चित्रकार, कलाकार आखिर क्या नहीं था वह!
‘‘मैं तो ऐसी एक भी चीज नहीं बना सकता।’’ मैंने उससे कहा।
मोहन ने मेरा हाथ थाम लिया। बोला-‘‘एक बार बनाना शुरू करोगे तो सब आ
जाएगा। मैं सिखा दूंगा।’’
‘‘तुम कैसे बनाते हो? कब बनाते हो।’’
‘‘जब चाहता हूं ऊपर आ जाता हूं फिर बनाता
रहता हूं।’’
‘‘और स्कूल...होमवर्क...’’
‘‘स्कूल...स्कूल...’’ मोहन ने सिर झुका लिया...--वह तो मैं
कभी-कभी...’’ मेरा मन जैसे एकदम उछल पड़ा। ‘‘तो तुम स्कूल...’’
‘‘हां, मैं स्कूल...’’
‘‘मैं भी स्कूल... मैंने हंसकर कहा,-‘‘लाओ मिलाओ हाथ...’’ एक ऐसा लड़का जो मेरे जैसा था। और
कितने मजे की बात थी, वह
हमारे घर के पीछे ही रहता था। वाह क्या बात थी।
सचमुच मोहन के ‘मोहन नगर’ में कोई
विषैली मकड़ी नहीं थी। वह स्कूल न जाकर इतना कुछ कर लेता था। कितने सुंदर-सुंदर
चित्र बना रखे थे उसने। उसके बनाए कुतुबमीनार, बिरला मंदिर के माडल तो कमाल के थे... और मैं...मैं स्कूल नहीं जाता
था, लेकिन इसके अलावा तो मैं कुछ भी नहीं
करता था। मुझे कुछ भी नहीं आता था। यह सोचकर मन उदास हो गया।
तभी कानों में जैसे कोई बोला...यह झूठ
कह रहा है, ये सारी चीजें इसकी बनाई हुई नहीं हैं।
किसी और की उंगलियों का जादू है। इन अद्भुत चित्रों और माडलों को बनाने वाला कहीं
गया है, वह अभी आ जाएगा और अपने को मोहन बताने
वाले इस लड़के की पोलपट्टी खुल जाएगी।
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‘‘आज तुम स्कूल नहीं गए?’’ मोहन ने पूछा।
‘‘हां, नहीं गया...और तुम?’’
‘‘मैं... जाता हूं लेकिन....’’ वह अटक-अटक कर बोल रहा था।
तभी कहीं दूर से आवाज उभरी, ‘‘देवन, देवन, कहां
गया ?’’
‘‘नानी, अभी आ रहा हूं।’’ मैंने मुंडेर से अपनी छत पर झांकते हुए जोर से कहा।
नीचे नानी घबराई खड़ी थीं।
‘‘हे मेरे भगवान, तू वहां कब पहुंच गया। जानता नहीं, तुझे बुखार है।’’ नानी ने कहा और सबसे ऊपर वाली छत की
सीढि़यां चढ़ने लगीं।
‘‘तुम ऊपर मत आओ, थक जाओगी। बस, मैं पांच मिनट में आ रहा हूं।’’ मैंने नानी को ऊपर आने से रोकने की
कोशिश करते हुए कहा। मैं नहीं चाहता था कि वह ऊपर आकर मोहन की बनाई चीजों को
देखें। इसके बाद जो कुछ वह पूछने वाली थीं उसका उत्तर मेरे पास नहीं था।
‘‘मैं फिर आऊंगा।’’ मोहन से यह कहकर मैं मुंडेर फांदकर
अपनी छत पर चला आया, हालांकि
मेरा मन अभी उसी के साथ रहने का था।
नीचे पहुंचते ही नानी ने पकड़कर चारपाई
पर लिटा दिया। पहले माथा छूकर देखा, फिर कलाई पकड़कर बुखार देखने लगीं। मैंने देखा उनकी आंखों में आंसू
थे। मैं जानता था मेरी तबियत जरा भी खराब होती थी तो वह एकदम घबरा जाती थीं। कहा
करती थीं-‘‘अरे, मैं तुझे ही देखकर तो जी रही हूं, वरना मेरी जिंदगी में क्या बचा है अब। तू पढ़-लिखकर कुछ बन जाए तो
मैं चैन से मर सकूं।’’ और
मैं हाथ से उनका मुंह बंद कर दिया करता था। पिता के न रहने और मां के इस तरह चले
जाने के बाद नानी ही तो मेरा सहारा थीं। मैं उनके बिना रहने की कल्पना भी नहीं कर
सकता था।
मैंने उनका हाथ पकड़ लिया और हंस पड़ा।
मुझे हंसते देखकर नानी भी हंस दीं। बोलीं-‘‘जब तू हंसता है तो मैं मरती-मरती भी जी जाती हूं। हां, यह तो बता, दूसरों की छत पर क्या करने गया था?’’
मुझे कोई जवाब नहीं सूझा। फिर मैंने
कहा-‘‘एक नया लड़का पिछले मकान में रहने आया
है। वह स्कूल के बारे में कुछ पूछ रहा था, इसीलिए गया था उस तरफ।’’
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नानी चुप हो गईं। मुझे दुख हुआ कि वह
मेरे हर झूठ को एकदम सच मान लेती थीं। वह कहती थी मेरे अंदर उनके प्राण बसते थे।
क्या वैसे ही जैसे एक कहानी में तोते के अंदर राक्षस की जान बंद थी। लेकिन मैं
नानी की तुलना राक्षस से कैसे कर सकता था।
उस रात बहुत दिनों में पहली बार मुझे नींद
आई थी। सपने में मां की जगह मोहन का चेहरा दिखाई देता रहा था।
सुबह उठते ही मैं भागकर तिमंजिले जा
पहुंचा था। मैंने मुंडेर से झांककर देखा था। सामने तिरपाल पर परदा लटका हुआ था।
अफ्रीकी मकडि़यों के बारे में चेतावनी भी साफ पढ़ी जा सकती थी। मैं काफी देर तक
खड़ा रहा, तब कहीं मोहन दिखाई दिया। आंखें मिलते
ही हौले से मुसकराया। मेरी आंखों का प्रश्न शायद उसने पढ़ लिया था। बोला-‘‘मुझे पता था, तुम छत पर खड़े होगे, पर क्या करूं, रात को मां की तबीयत कुछ खराब हो गई
थी। वह आज काम पर भी नहीं जाएंगी। पर उन्होंने मुझे जाने को कह दिया है।’’
‘‘कहां जाने को कह दिया है?’’ मैंने झिझकते हुए पूछा।
‘‘अरे, और कहां, स्कूल
जाने को कह दिया है।’’
‘‘ओह!’’ और हम दोनों हंस दिए।
कुछ देर बाद हम गली के बाहर मिले। वैसे
मैं उसके ‘मोहन नगर’ स्टेशन को और पास से देखना चाहता था, लेकिन घर में रहने पर नानी के सवालों
का जवाब देना मुश्किल होता। इसलिए घर से जाना ही ठीक था।
मैं और मोहन नई दिल्ली स्टेशन जा
पहुंचे। पुल उतर कर प्लेटफार्म पर चले गए। अभी-अभी ट्रेन आई थी, इसलिए काफी भीड़ थी। मोहन मेरा हाथ थामकर यों चल रहा था जैसे यहां का
कोना-कोना उसका देखा-भाला हो।
मोहन मेरा हाथ थामे हुए एक के बाद
दूसरी पटरी पार करता जा रहा था, जबकि हमारे अगल-बगल से गाडि़यां खट-खट करती गुजर रही थीं। मुझे डर लग
रहा था। उसने कई बार मेरा हाथ थपथपाकर जैसे मेरी हिम्मत बंधाई। आगे झाडि़यों के
पीछे एक टीला था जिस पर गोल-गोल छोटे-छोटे पत्थर बिखरे हुए थे। मैं सोच रहा था हम
कहीं रुकेंगे भी या चलते ही जाएंगे।
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मेरी बात मोहन के मन ने जैसे सुन ली।
वह टीले की चोटी पर जाकर रुक गया। वहां एक छोटा सा मंदिर था। पता नहीं उसमें किसकी
मूर्ति थी। मैंने देखा मंदिर में एक दीपक जल रहा था, कुछ फूल बाहर घास पर बिखरे हुए थे। मैंने अपना बस्ता घास पर टेक दिया
और उससे कमर टिकाकर सामने देखने लगा-रेल लाइनें दूर तक फैली थीं। उन पर एक के बाद
दूसरी ट्रेनें धड़ाधड़ करती हुई आ जा रही थी। वहां से स्टेशन का मुख्य प्लेटफार्म
दिखाई दे रहा था। एकाएक लगा जैसे मैं अपने सामने मोहन का बनाया हुआ ‘मोहन नगर’
स्टेशन देख रहा हूं।
मोहन ने झुककर मंदिर के अंदर से कई
ब्रश और रंगों की प्लेट निकाल ली। एक तरफ मिट्टी की दो कटोरियों में रंगीन पानी
भरा था। मुझे देखते हुए बोला-‘‘यह मेरे भगवान हैं, मंदिर भी मेरा है। अपना चित्रकारी का सामान भगवान की पहरेदारी में
रखता हूं।’’
‘‘अगर कोई चुराकर ले जाए तो...’’
‘‘आज तक ऐसा हुआ नहीं।’’
‘‘और यह रंगीन पानी...चिडि़या, कबूतर इसे पीकर बीमार हो सकते हैं।’’
‘‘पीएंगे तो उनकी चोंच भी रंगीन हो
जाएगी।’’ कहकर मोहन जोर से हंसा-‘‘यह भी पता चल जाएगा कि वे परिंदे यहां
आते हैं।’’ उसकी बाकी बात तेज गड़गड़ाहट में खो
गईं। एक गाड़ी शोर करती हुई पास से गुजरी तो पूरी जगह थरथरा गई। सब तरफ काला-काला
कसैला धुआं और गरम भाप का बादल छा गया। चारों तरफ एक चादर तन गई। ‘‘बाप रे!’’ मेरे मुंह से निकला।
‘‘क्यों क्या हुआ?’’
‘‘कुछ नहीं... मैंने धुएं तथा भाप के
बादल के पार देखने की कोशिश करते हुए कहा। घर से दूर इस अनजान जगह पर बैठते हुए डर
लग रहा था। मान लो अगर मोहन से किसी बात पर झगड़ा हो जाए और वह मुझे यहां छोड़कर
चला जाए तो क्या होगा। मैं खूब जानता था कि मैं अकेला रेल लाइनों के बीच से होकर
घर सुरक्षित कभी नहीं पहुंच पाऊंगा। आखिर ऐसा बार-बार क्यों होता है कि मैं दूसरों
के पीछे-पीछे चला जाता हूं। जैसे जुबैदा मुझे ले गई थी और फिर अपने घर में छोड़कर
न जाने कहां गायब हो गई थी। फिर जूही का चेहरा सामने आकर रुक गया। पहले वह
मुसकुराई जैसे मेरी हंसी उड़ा रही हो, फिर उसकी आंखों से आंसू बहते दिखाई देने लगे। मैं चाहकर भी दोबारा
उससे नहीं मिल सका था। क्या मैं फिर कभी उससे मिल सकूंगा? कौन जाने..
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एकाएक मोहन की आवाज कानों में पड़ी-‘‘अरे, कहां खो गए दोस्त!’’
मैं चौंक पड़ा। देखा वह कागज पर चित्र
बनाने में जुटा था। मैं देखता रहा, दो बड़ी-बड़ी आंखें उभरती आ रही थीं।
‘‘यह किसका चित्र है?’’ मैंने पूछा तो बोला-‘‘चित्र कहां, बस आंखें हैं।’’
‘‘आंखें ही क्यों?’’
‘‘एक दिन मैं यहां बैठा चित्र बना रहा
था। एकाएक देखा,
सामने
वाली झाड़ी के पीछे से दो आंखें मुझे देख रही हैं। मैं चुप बैठा रहा। बस कागज पर
मैंने दो आंखें बनानी शुरू कर दीं। उसका चेहरा मैं नहीं देख पाया।
मैं सोचता बैठा रह गया, किसकी आंखें होंगी। कहीं जूही की तो
नहीं। फिर अपने बेतुके ख्याल पर मैं जोरों से हंस पड़ा। भला ऐसा कभी हो सकता था!
कहां आगरा और कहां नई दिल्ली रेलवे स्टेशन। भला कैसे और क्यों आएगी जूही यहां।
मेरे हंसने पर मोहन हाथ रोककर मुझे
देखता रह गया। बोला-‘‘क्यों, क्या हुआ?’’
‘‘कुछ नहीं, चित्र देखकर एक पुरानी बात याद आ गई थी
बस...’’ पर लगा जैसे मोहन को मेरी बात पर भरोसा
नहीं हुआ हो। उसने कुछ कहा नहीं, सिर झुकाकर चित्र बनाने में लग गया। टीले से थोड़ी दूर गढ्डे में
बरसात का पानी भरा हुआ था। उसमें दो भैंसें गरदन तक डूबी खामोशी से खड़ी थीं। मेरे
पास कुछ करने को था नहीं। काश, मैं भी मोहन की तरह चित्र बना सकता...लेकिन...मैं वैसा कुछ भी नहीं
कर सकता था। हां शायद एक बात में मैं उससे आगे था--किताबें पढ़ने में। मन हुआ
पूछकर देखूं कि उसने कितनी किताबें पढ़ी थीं। पर मैं चुप रहा। घूमता हुआ टीले के
छोर पर जा खड़ा हुआ और वहां बिखरे छोटे-छोटे गोल पत्थर उठाकर पानी में फेंकने लगा, फेंकता रहा, फेंकता रहा।
एकाएक मोहन की आवाज आई-‘‘अरे, यह तो गड़बड़ हो गई। मां ने जो काम बताया था उसे तो मैं भूल ही गया।’’
‘‘कैसा काम?’’ मैंने पूछा। मोहन का चेहरा धूप में चमक
रहा था, वह बातें मुझसे कर रहा था पर उसकी
आंखें जैसे कहीं दूर देख रही थीं। मैंने घूमकर पीछे देखा कि मोहन क्या देख रहा है।
पर पीछे तो ऐसी कोई खास चीज थी नहीं। बस दूर तक फैली पटरियों पर रेलगाडि़यां तेजी
से आ-जा रही थीं। पीछे गड्ढे में भरे पानी में गरदन तक डूबी खड़ी भैंसे अब चली गई
थीं। पोखर सुनसान था। कुछ देर पहले मैं यहीं पत्थर फेंक-फेंककर पानी को हिलाता रहा
था।
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इतनी देर में मोहन ने सामान समेट लिया
और चलने को तैयार हो गया। मैं अभी कुछ देर और वहां बैठना चाहता था, लेकिन अगर मैं वहां रुकता तो फिर अकेले
रेल लाइनों के जाल को पार करके घर पहुंचना मेरे लिए मुश्किल होता-इसलिए मैं भी उठ
खड़ा हुआ।
‘‘कहां जाना है?’’
‘‘पद्मनगर तीन बटा छह’’, मोहन ने कहा और फिर सिर झुका कर चलने
लगा।
‘‘यह कौन सी जगह है?’’
‘‘पता नहीं।’’
‘‘तो फिर क्यों जा रहा है?’’
‘‘बस जाना है, क्योंकि मां ने कहा था।’’
मैंने और कुछ नहीं पूछा। उसकी मां ने
कहा था इसलिए उसे तीन बटा छह की खोज में जाना था। पर मेरा क्या काम था वहां। मेरी
मां ने तो कभी कुछ कहा ही नहीं था मुझसे। मैंने कहा--तुम चले जाओ।’’
उसने झट मेरा हाथ थाम लिया। बोला ‘‘तू मेरा दोस्त है न। मुझे अकेले डर
लगेगा।’’
‘‘डर क्यों लगेगा? कैसी जगह है वह जहां मां के कहने से
जाना है?’’ मैंने पूछा।
उसके मुंह से ‘डर’ शब्द सुनना कुछ अजीब लग रहा था। अब तक जो कुछ देखा था उससे तो यही लग
रहा था कि और चाहे जो कुछ भी हो जाए पर मोहन को डर कभी नहीं पकड़ सकता, फिर क्या
वह कोई खतरनाक जगह है जहां मोहन जाते हुए डर रहा था, और इसीलिए मुझसे साथ चलने की जिद कर रहा था। एक बार मुझे भी कुछ डर
लगा फिर जैसे किसी ने मन में कहा, --“क्या वह जगह जूही और जुबैदा के घर से
भी बुरी होगी, जहां पता नहीं क्या होता रहता था।’’
मोहन चुप खड़ा था और मैं सोच रहा था।
पता नहीं सच था या मेरा वहम, मुझे लगा जैसे उसकी आंखों में पानी जैसा कुछ भर गया है। धूप में उसका
पूरा चेहरा चमक रहा था। वह जल्दी-जल्दी आंखें मिचका रहा था। शायद उसे मुझसे जवाब
चाहिए था।
मैंने हाथ बढ़ाकर मोहन की कलाई थाम ली।
वह कुछ हंसा और हम मंदिर वाले टीले से जल्दी-जल्दी उतरने लगे। तभी न जाने क्या हुआ, वह लुढ़क गया। सामान उसके हाथ से छूट
कर इधर-उधर बिखर गया।
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‘‘मोहन!’’ मैं चीख पड़ा। और तेजी से उस तरफ दौड़ा जहां वह
पसरा हुआ पड़ा था। आंखें बंद थीं। कहीं यह बेहोश न हो गया हो। तब मैं इसे रेल
लाइनों के पार कैसे ले जाऊंगा। मैंने उसे हिलाया-डुलाया, पर वह चुप पड़ा रहा। मैं घबराहट में
इधर-उधर देखने लगा। आसपास काफी लोग थे, पर हमारी ओर कोई नहीं देख रहा था। जब मुझे कुछ और न सूझा तो मैं
गड्ढे की तरफ दौड़ गया, जिसमें
ऊपर तक पानी भरा था। मैंने अपना खाने का डिब्बा निकाला। उसमें रखा खाना एक तरफ
फेंक दिया। फिर डिब्बे में पानी भरकर वापस जल्दी-जल्दी मोहन के पास जा पहुंचा। वह
घास पर वैसे ही पड़ा था। मैंने डिब्बे में भरा पानी उसके चेहरे और सिर पर छिड़क
दिया। मुझे पता नहीं था इससे क्या हो सकता था। पर एक कहानी में जरूर पढ़ा था। फिर
मैं झुक कर देखने लगा। चेहरे पर पानी के छींटे पड़ते ही मोहन का बदन कांप उठा। फिर
झटके से उसने आंखें खोल दीं। उसने मुंह पर उंगलियां फिराईं। फिर बैठने की कोशिश
करने लगा। मैंने उसे सहारा दिया। कुछ देर वह हाथों से सिर को दबाता हुआ बैठा रहा।
फिर बोला-‘‘चलें?’’
मैंने कहा-‘‘कैसे जाओगे, तुम्हें चोट तो नहीं आई? पता है तुम बेहोश हो गए थे।’’
‘‘हां, हड़बड़ी में पैर फिसल गया था। फिर पता नहीं क्या हुआ! लेकिन अब मैं
ठीक हूं।’’
‘‘अब हमें घर चलना चाहिए। जहां मां ने
कहा है, वहां फिर कभी चले जाना।’’
उसने गुस्से से मेरी तरफ देखा-‘‘तुम्हें नहीं चलता है तो न सही, मुझे तो जाना ही है। नही तो मैं मां से
क्या कहूंगा।’’ कहता हुआ वह एक तरफ चल दिया, मैंने दौड़कर उसे पीछे से पकड़ लिया, ‘‘अरे, मैं मना नहीं कर रहा हूं। मैं तो तुम्हें चोट लगने की वजह से कह रहा
था। अच्छा ठहरो,
तुम्हारा
सामान इधर-उधर बिखर गया है, उसे तो उठा लेने दो।’’
मोहन ने घूमकर देखा फिर अपनी बिखरी
चीजें उठाने लगा। कुछ देर बाद हम दोनों हाथ पकड़े चल रहे थे। वह तेज-तेज चल रहा
था। मैं बार-बार पीछे रह जाता था। मैं सोच-सोच कर हैरान था कि वह चोट लगने के बाद
भी इतनी तेजी से कैसे चल पा रहा है।
रेलवे क्रासिंग पार करने के बाद हम एक
नाले के साथ-साथ चल रहे थे। मोहन जैसे कुछ हिसाब लगाता हुआ चल रहा था-‘‘रेल फाटक के बाद गंदा नाला, फिर पेड़ के पास नाला पार करके आगे
बाईं तरफ शिव मंदिर...वहां से...’’
‘‘अरे तुझे तो पूरा रास्ता पता है।’’
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‘‘हां, मां ने बताया था...’’
‘‘तो तेरी मां यहां आ चुकी हैं क्या?’’ मैंने पूछा।
‘‘पता नहीं, पर इतना रास्ता तो उन्होंने ही बताया
है।’’
नाले के साथ-साथ जाने पर एक बड़ा पेड़
नजर आया। शायद यहीं से हमें नाले के दूसरी तरफ जाना था। लेकिन पार जाने के लिए कोई
पुल तो नजर आ नहीं रहा था। नाला काफी चौड़ा था, उसमें से दुर्गंध उठ रही थी। यह कुछ वैसा ही था जैसा हमारी गली और
रामलीला मैदान के बीच बहता था और जिसकी पुलिया से होकर हम रामलीला मैदान जाया करते
थे। पर यहां तो ऐसी कोई पुलिया नहीं थी। फिर...फिर दिखाई दिया...नाले के ऊपर दो
लंबी-लंबी लकडि़यां आर-पार पड़ी थीं। उन पर लकड़ी के छोटे-छोटे तख्ते रखे हुए थे।
तो क्या यही वह पुल था जिसे हमें पार करना था।
‘‘आओ।’’ मोहन ने कहा।
‘‘अरे नहीं, इस पर से तो गिर सकते हैं। ऐसा पुल तो
मैंने आज तक नहीं देखा।’’ मुझे
डर लग रहा था।
‘‘मैं इसे दौड़कर पार कर सकता हूं। लो
देखो।’’ और इतना कहकर मोहन सचमुच दौड़ता हुआ
नाले को पार कर गया।
‘‘तुम हो कर आओ, मैं यहीं बैठा हूं।’’ मैंने कहा और नाले के किनारे लगे पेड़
के सहारे खड़ा हो गया।
‘‘वाह रे डरपोक, पिद्दी राम!’’ मोहन ने नाले के पार से चिल्लाकर कहा
और फिर जैसे दौड़ता हुआ पार गया था, उसी तरह लौट कर मेरे पास आ खड़ा हुआ। वह तेज-तेज हांफ रहा था। अगले
ही पल उसने मेरा हाथ पकड़ा और उस पुल की तरफ खींचने लगा जिसे किसी भी तरह पुल नहीं
कहा जा सकता था।
‘‘देखो, अब तुम ठीक हो और तुम्हें रास्ता भी मालूम है। इसलिए तुम अकेले भी जा
सकते हो।’’ मैंने कहा। इतना कहते ही मोहन का चेहरा
फिर उदास हो गया। बोला-‘‘तू
दोस्त होकर मुझे यों छोड़कर चला जाएगा, बोल।’’
मैं चुप रहा।
‘‘मैंने कहा न कि मुझे अकेले वहां जाते
हुए डर लग रहा है।’’ वह
बोला।
अब इन्कार करना मुश्किल था। मैं उसके
साथ-साथ चल दिया। नाला पार करके हम आगे बढ़े।
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सामने कूड़े का बड़ा ढेर था। कुछ-कुछ
रेल लाइनों के बीच में बने टीले जैसा जो अपनी जगह द्वीप जैसा लगता था। जहां मोहन
अक्सर बैठकर काम किया करता था। कूड़े के ढेर के बीच कई सुअर व कुत्ते घूम रहे थे।
वहीं दो छोकरे बैठे कूड़े के बीच से छांट कर न जाने क्या बोरी में डाल रहे थे। वे
दोनों मोहन और मेरे जितने ही रहे होंगे। मैं सोचता रहा, क्या कभी हमें भी ऐसा गंदा काम करना
पड़ सकता है। आंखें मिलते ही उनमें से एक छोकरा हंस पड़ा। उसके दांत काले थे। शायद
वह दांत साफ नहीं करता होगा। मैंने सुना वह कुछ गा रहा था। कूड़े के ढेर से तेज
बदबू उठ रही थी। ‘‘चल न हमें देर हो रही है।’’ मोहन ने हाथ खींचते हुए कहा। देर उसे
हो रही थी पर मेरा मन हो रहा था कि उस छोकरे से कुछ बात करूं जो मुझे देखकर
मुस्कराया था। आखिर क्यों हंसा था वह?
पर ज्यादा सोचना न हो सका। मोहन मुझे
खींचे लिए जा रहा था। आगे एक तिराहा था वहाँ एक पेड़ के नीचे कुछ लोग ताश खेल रहे
थे। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था| मोहन सिर खुजाता हुआ खड़ा था। शायद वह रास्ता
भूल गया था या रास्ता उसे मालूम नहीं था।
‘‘क्या हुआ?’’
‘‘लगता है, रास्ता पूछना पड़ेगा।’’ कहते हुए वह ताश खेलते आदमियों के पास जा खड़ा हुआ।
‘‘क्या है बे?’’ उनमें से एक ने पूछा, हालांकि अभी तक हमने कुछ नहीं पूछा था।
‘‘3/6 पद्म नगर...’’ मोहन ने कहा और एक आदमी जोर से हंसा। ‘‘3/6 में जाएगा... अभी से चक्कर चला
लिया रे!’’
‘‘चक्कर नहीं, हमें कुछ काम है।’’ मैंने कहा। मेरी समझ में नहीं आ रहा था
कि वह ऐसे क्यों बोल रहा है।
‘‘तो तुम दोनों को 3/6 में जाना है और
इतना कहते ही ताश खेलते बाकी लोग भी जोर से हंस पड़े।
‘‘वहां कौन है?’’ एक ने पूछा।
‘‘कोई नहीं...’’
‘‘तो फिर क्यों आया है? जल्दी बता...’’
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मुझे कुछ डर लगने लगा था। पेड़ के नीचे
दो बोतलों में लाल पानी सा था। कुछ गिलास भी थे। वे बारी-बारी से उसी को पी रहे
थे। हवा में एक दुर्गंध थी। वह मुझे कूड़े के ढेर से उठती गंध से भी ज्यादा बुरी
लग रही थी।
‘‘मुझे मां ने भेजा है।’’ मोहन कह गया...।
‘‘तेरी मां ने तुझे 3/6 में भेजा है।’’ कहने वाले ने अपने साथियों की तरफ देखा
और फिर सभी जोर-जोर से हंसने लगे।
‘‘चलो यहां से।’’ मैं मोहन का हाथ खींचते हुए फुसफुसाया।
उस आदमी ने सामने की तरफ संकेत किया।
बोला-‘‘सभी 3/6 हैं, चाहे जिसमें चला जा लेकिन अभी कौन
होगा...जा...।’’
कहकर
उसने फिर से ताश के पत्ते उठा लिए, और अपने सामने रखे गिलास को झट से खाली कर दिया।
उन लोगों से पूछने का कोई फायदा नहीं
हुआ था। भला सभी मकानों का एक ही नंबर कैसे हो सकता था। वह हमें बहका रहा था। पर
एक बात थी, यह जगह पद्मनगर ही थी। क्योंकि सड़क के
किनारे लगे बोर्ड पर यही नाम लिखा था। अब हम एक गली में मकानों के पीछे बढ़ रहे थे।
‘‘अरे, हमें सामने से चलना चाहिए। हो सकता है, वहां पूछने पर कोई ठीक-ठीक बता दे।’’ मैंने कहा।
‘‘अगर वहां मुझे देख लिया तो...’’ मोहन ने कहा। उसकी बात मेरी समझ में
नहीं आ रही थी। किसने देख लिया, कौन देख लेगा। पर वह मकानों के पीछे लिखे नंबर देखता हुआ बढ़ा जा रहा
था । वहां से गुजरते हुए एक फेरी वाले से उसने 3/6 पूछा तो फेरी वाले ने एक मकान
की तरफ इशारा कर दिया। देखने में वह दूसरे मकानों जैसा ही पुराना लग रहा था। दूसरे
मकानों की तरह उसका दरवाजा भी बंद था। उसके बंद दरवाजे से थोड़ा पीछे हट कर एक
भारी भरकम पेड़ था। पेड़ आगे-पीछे और भी थे, पर वह कुछ ज्यादा ही बड़ा और घना था।
मोहन ने अपना थैला मुझे थमा दिया, फिर पेड़ के नीचे खड़ा होकर ऊपर की तरफ
देखने लगा।
‘‘तू पेड़ पर चढ़ सकता है? लेकिन तेरे चढ़ने से होगा भी क्या?’’कहकर मोहन ने चप्पलें उतार दीं और पेड़
पर चढ़ने लगा।
7 7
‘‘अरे पागल, क्या कर रहा है? जल्दी से उतर।’’ मैंने कहा। शाम ढल रही थी। उस पेड़ पर
परिंदे उतर रहे थे। मोहन पेड़ पर चढ़ा तो पक्षी शोर करते हुए उड़ गए। अब तक वह
काफी ऊपर चढ़ गया था और मुझे दिखाई नहीं दे रहा था। बस पत्तों में खड़खड़ हो रही
थी। एक-दो डालियां टूटकर मेरे ऊपर आ गिरी थीं। ऊपर देखते हुए मेरी गरदन दुखने लगी
थी। और अब पत्तों में होने वाली खड़खड़ाहट भी बंद हो गई थी। ऐसा लगता था जैसे मोहन
ऊपर ही ऊपर कहीं गायब हो गया था।
मैं घबरा गया। आखिर वह पेड़ पर क्यों
चढ़ा था और अब उसकी आवाज क्यों नहीं आ रही थी? तभी पत्ते फिर हिले और मोहन की आवाज सुनाई दी-‘‘तेरे पास कुछ पत्थर हैं?’’
‘‘पत्थर...पत्थर... लेकिन क्यों?’’ मैंने पूछा। भला पत्थर क्यों मांग रहा
था वह। पेड़ के पत्ते फिर खड़खड़ाने लगे और फिर मोहन नीचे आ कूदा। वह एक तरफ दौड़
गया। वहां टूटी हुई ईंटों के कुछ टुकड़े बिखरे पड़े थे। उसने कुछ टुकड़े उठा कर
कमीज और नेकर की जेबों में भर लिए।
‘‘यह क्या हो रहा है, ईंटें किस लिए?’’
मोहन ने मेरी किसी बात का जवाब नहीं
दिया और फिर से पेड़ पर चढ़ने लगा। मैं पेड़ के नीचे सोचता हुआ खड़ा था। तभी कहीं
कुछ टकराने की आवाज आई। फिर कोई तेज आवाज में चिल्लाया-‘‘वह कौन पत्थर फेक रहा है?’’ अगले ही पल मोहन जमीन पर आ कूदा और
भागता हुआ बोला-‘‘चल जल्दी...वरना...’’ मैं कुछ पूछना चाहता था, पर वह तो आगे दौड़ा जा रहा था। कुछ दूर
तक मोहन और मैं भागते रहे और कूड़े के ढेर के पास से होते हुए फिर से उसी ‘पुल’ तक आ पहुंचे जिसे, मैंने बहुत मुश्किल से पार किया था।
मेरे मन में बेचैनी हो रही थी। में
जानना चाहता था कि आखिर मोहन ने पेड़ पर चढ़कर पत्थर क्यों फेंके थे। क्या उसकी
मां ने उससे कहा था कि पद्म नगर के मकान नं. 3/6 के पीछे वाले पेड़ पर चढ़कर पत्थर
फेंके। बीच में एक-दो बार चलते-चलते रुककर मैंने मोहन से इस बारे में कुछ जानना
चाहा, पर वह तो किसी पुतले की तरह सड़क पर
आंखें गड़ाए चलता जा रहा था। साफ था वह मुझे कुछ बताने वाला नहीं था। मैं इतना
बेवकूफ नहीं था जो इतनी सी बात भी न समझता। लेकिन एक बात थी, जब मुझे कुछ बताना नहीं था, तो फिर साथ लाने का मतलब? इसी ऊहापोह में हम दोनों बाजार से होते
हुए
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मोहल्ला इमली में आ पहुंचे। वहां से वह कूचा
ख्यालीराम में घुस गया और मैं गली लेहसवा में चला आया। अलग-अलग गली में होने पर भी
हमारे मकानों की छतें एक-दूसरे से मिलती थीं।
रोज की तरह नानी ने मुझसे कुछ नहीं
पूछा। उन्हें मुझ पर पूरा भरोसा था। वह समझती थीं कि मैं कोई गलत काम नहीं
करूंगा-लेकिन क्या मैं उन्हें बता सकता था कि मैं मोहन के साथ कहां-कहां और क्यों
गया था। उस रात बहुत देर तक नींद नहीं आई, रह-रहकर एक आवाज कानों से टकराती रही-‘‘अरे,
ये
पत्थर कौन फेंक रहा है?’’ और
फिर मोहन का और मेरा वहां से भागना...
रात को एकाएक नींद खुल गई। मैं छत पर
सोया हुआ था। नानी की तबीयत ठीक नहीं थी इसलिए वह आंगन में सो रही थीं। आकाश में
बादल छाए थे। पता नहीं कैसे क्या हुआ, मैं लेटा न रह सका। पैर दबाता हुआ तिमंजिले की छत पर जा पहुंचा।
आसपास के मकानों की छतों पर बहुत लोग सोए हुए थे। हमारे मकान के सामने वाला बड़ा
पीपल इस समय खामोश था। शायद उस आधी रात के समय बस मैं ही जाग रहा था। मैंने मुंडेर
के पार दूसरी छत पर झांका तो हैरान रह गया। मोहन छत पर मौजूद था। वह इधर से उधर
चक्कर लगा रहा था। उसने मुझे जरूर देखा होगा क्योंकि एक बार वह मेरी तरफ बढ़ा पर
फिर न जाने क्यों वापस लौट गया। लगा जैसे मुझसे बात नहीं करना चाहता था, वरना मुझे देखकर यूं वापस न चला जाता।
उसके इस व्यवहार से मुझे चोट सी लगी। मैं भी मुड़ा और सीढि़या उतर कर नीचे चला आया, बिस्तर पर जा लेटा, फिर न जाने कब नींद गई। नींद में कई
बार मुझे मोहन दिखाई दिया।
सुबह उठते ही मैंने सबसे पहले यह प्रण
किया कि अब मोहन से कभी नहीं मिलूंगा। आखिर मैं उससे दोस्ती रखूं तो किसलिए? इसीलिए न वह अपने उल्टे-सीधे काम में
मुझे जबरदस्ती ले जाए और फिर कुछ न बताए।
मैंने यह प्रण किया ही था कि मोहन
सीढि़यों से उतरकर आ खड़ा हुआ।
‘‘क्यों आए, क्या फिर कहीं जा कर पत्थर फेंकने हैं? मुझे तुमसे कोई बात नहीं करनी है।
हमारी-तुम्हारी दोस्ती खत्म।’’
‘‘ऐसा क्यों कहते हो। मैं तो तुम्हें कल
ही सब बता देना चाहता था पर कुछ सोच कर रुक गया था,’’ कहते हुए मोहन ने मेरा हाथ पकड़ लिया। मुझे लगा
जैसे वह रोता रहा हो। उसकी आंखें लाल थीं।
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‘‘क्या बात है?’’ मैंने पूछा।
‘‘आओ, मैं तुम्हें कुछ दिखाना चाहता हूं।’’ उसने कहा।
मैं कुछ पूछता, इससे पहले ही नानी की आवाज सुनाई दी।
वह जोर-जोर से मेरा नाम पुकार रही थीं। अब बिना जवाब दिए ऊपर ठहरना मुश्किल था।
मैंने कहा-‘‘फिर आऊंगा।’’ और झटाझट सीढि़यां उतर गया।
बीच में दो दिन मोहन से मिलना नहीं
हुआ। जब उसने आवाज लगाई तो मैं नहीं जा सका, और जब मैं मौका निकाल कर छत पर गया तो वह अपने ‘मोहन नगर’ में नहीं
मिला। बस हर बार सूनी छत पर अफ्रीकी मकडि़यों की चेतावनी देने वाला परदा लटका हुआ
मिला। तीसरे दिन शाम को वह छत पर दिखा। उसने बुलाया तो मैं मुंडेर फांदकर उसकी छत
पर चला गया। उसने कहा-‘‘आओ
दोस्त, देखो तो मैंने क्या कर डाला है।’’
मेरा हाथ पकड़कर वह अपने कोने में ले
गया जिसे वह ‘मोहन नगर’ कहता था। वहां का हाल देखकर मैं भौंचक्का रह गया। यह क्या
कर डाला था किसी ने। मोहन का बनाया खिलौना स्टेशन, रेलगाड़ी के डिब्बे, काले रंग का इंजन सब उलटे-पुलटे पड़े थे। सब जगह फटे हुए चित्रों के
टुकड़े बिखरे थे।
‘‘यह क्या है! किसने किया यह सब?’’
मोहन मुस्कराया...‘‘और कौन करेगा? मेरे अलावा कौन कर सकता है, यह सब मैंने किया है।’’
‘‘तुमने...लेकिन क्यों?’’ मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो
रहा था।
‘‘सब बताता हूं। उस शाम पद्म नगर से
लौटने के बाद मैं सीधा यहीं आया था। मन हो रहा था कि आग लगा दूं। बस यहां आकर अपने
बनाए सारे चित्र फाड़ दिए। रेलगाड़ी उलट दी। सब कुछ तोड़-फोड दिया। यह सब करने के
बाद ही मैं मां के पास गया था। उन्हें बताया कि पद्म नगर हो आया हूं।’’
‘‘लेकिन...यह सब क्यों? आखिर...’’
‘‘कहा न, मुझे बहुत गुस्सा चढ़ा हुआ था। मैं और कर ही क्या सकता था। मन कर रहा
था, अपने मुंह पर थप्पड़ मारता जाऊं। बाल
नोच लूं।’’
‘‘क्या तुमने मां को बताया पेड़ पर चढ़कर
पत्थर फेंकने के बारे में?’’
‘‘हां!’’ मेरे इतना कहते ही उनका करारा थप्पड़ पड़ा था
गाल पर। फिर वह रोने लगी थीं।
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मैं चुप खड़ा उसकी ओर देख रहा था।
एकाएक उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। और बोला-‘‘जानता हूं, तुम
नाराज हो, इसलिए न कि मैंने अब तक तुम्हें कुछ भी
नहीं बताया है। लो सुनो।’’
‘‘नहीं मुझे कुछ नहीं सुनना। उस सबको
रहने दो, मैं तो बस यही कहना चाहता हूं तुम्हें
यह तोड़-फोड़ नहीं करनी चाहिए थी। यह सब करने से क्या फायदा? तुमसे ज्यादा कौन जानता है इन्हें
बनाने में कितनी मेहनत और समय लगा होगा।’’
मोहन सिर झुकाए सुन रहा था जैसे कोई
छात्र अध्यापक से डांट खा रहा हो। फिर बोला-‘‘आओ मेरी मदद करो।’’ और झुककर अस्त-व्यस्त चीजों को ठीक करने लगा। मैं भी बैठ गया। मैंने
कहा-‘‘मुझे यह सब नहीं आता। संवारने लगूंगा
तो और ज्यादा गड़बड़ हो जाएगी। तुम खुद ही करो।’’
मेरी बात सुनकर मोहन हंस पड़ा। बोला-‘‘इसीलिए तो तुम मुझे पसंद हो। एकदम सीधी
बात कहते हो, कुछ भी नहीं छिपाते।’’
‘‘तुम्हारी तरह...’’ मेरे मुंह से निकल गया।
‘‘फिर वही बात...जब मैं बताने लगता हूं
तो सुनने से मना कर देते हो और बाद में शिकायत करते हो।’’
‘‘अगर बताना था तो पहले कहते, अब रहने दो।’’ मैंने कहा और देखने लगा, वह किस तरह बिखरी हुई चीजों को ठीक-ठाक
कर रहा था। थोड़ी देर की मेहनत के बाद अपने ‘मोहन नगर’ को उसने काफी कुछ सुधार
दिया। इंजन के पीछे डिब्बे सीधे खड़े हो गए। प्लेटफार्म पर लाल बजरी फिर से बिछ
गई। सिग्नल वाली डोरी खींचकर वह खिलौना रेलगाड़ी को आगे-पीछे करता हुआ सीटी बजाने
लगा।
‘‘यह तो हुआ, लेकिन उन चित्रों का क्या होगा जिन्हें
तुमने फाड़ दिया है।’’
‘‘हां, उन्हें सुधारना तो मुश्किल है। नये सिरे से ही बनाना होगा।’’ कहकर वह फटे हुए चित्रों के टुकड़े
उलट-पलट कर देखने लगा। वह फटे हुए चित्रों को देख रहा था और मैं उसे। मैंने देखा, धीरे-धीरे उसके होंठों से हंसी गायब हो
गई, फिर होंठ कांपने लगे। उसकी आंखें झुकी
हुई थीं, मैं समझ गया, वह अपने को रोने से रोकने की कोशिश कर
रहा था। मैंने उसके कंधे पर हाथ रख दिया, बस फिर क्या था, एकदम जोर से रो पड़ा। रोते-रोते मोहन ने मेरा हाथ पकड़ लिया।
मैंने कहा, ‘‘चुप हो जाओ। आंसू पोंछ लो। ऐसे चित्र न
जाने तुम कितने बना सकते हो। बना लोगे, यह मैं जानता हूं।’’
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‘‘पर मैंने इन चित्रों को इस तरह क्यों
फाड़ दिया?’’ वह मुझसे पूछ रहा था।
‘‘पागल! इसलिए कि तुम्हें गुस्सा आ रहा
था। शायद पत्थर फेंकने से भी तुम्हारा गुस्सा ठंडा नहीं हुआ था।
‘‘ठंडा कैसे होता, और भी बढ़ गया था।’’ कहकर वह दांत भींचने लगा। मुझे लगा वह
फिर से सब चीजों को तोड़-फोड़ देगा। मैं उसका हाथ पकड़कर पीछे खींच लाया।
‘‘क्या तुम अब भी नहीं पूछोगे कि मैंने
पत्थर क्यों फेंके थे पेड़ पर चढ़कर।’’
‘‘नहीं उसे रहने दो।’’
‘‘तो मां के पास चलो। वह मुझसे नाराज हो
रही हैं कि मैं तुम्हें अपने साथ क्यों ले गया। वह कहती हैं, मैंने तुम्हें सारी बात क्यों बताई।’’
‘‘लेकिन तुमने तो कुछ भी नहीं बताया
मुझे। और मैंने कुछ पूछा भी नहीं।’’
‘‘तो यही बात जाकर मां से कह दो। वह इसी
बात पर मुझसे नाराज है।’’
मैंने और कुछ नहीं कहा। उसके पीछे-पीछे
नीचे उतरता गया। मन में कुछ डरा हुआ भी था कि पता नहीं मोहन की मां मुझसे क्या कह
दें। जाते ही डांटने लग जाएं तो फिर मैं क्या करूंगा। मोहन मुझे लेकर एक अंधेरे
कमरे में घुसा। एकाएक रोशनी से अंधेरे कमरे में जाते ही कुछ भी साफ-साफ दिखाई नहीं
दिया। मैं एक तरफ खड़ा हुआ आंखें मिचमिचाता रहा। तभी मोहन की आवाज आई-‘‘मां, मेरे साथ देवन है।’’ मेरा दिल तेज-तेज धड़कने लगा। मैंने देखा कोने में पड़ी चारपाई पर
कोई बैठी थी, शायद वही मोहन की मां होंगी। वह खांस रही थीं। मोहन बढ़कर उनकी कमर सहलाने लगा। खांसी
कुछ रुकी तो वह बोलीं-‘‘आओ
बेटा...घबराओ मत। तुम तो मेरे मोहन जैसे हो।’’
मुझे कुछ चैन मिला। मोहन ने कंधा दबाकर
बैठने का इशारा किया, फिर
लालटेन जलाने लगा। कमरे में पीली रोशनी फैल गई। एक चारपाई, बगल में मेज पर सिलाई मशीन, दूसरे कोने में पानी भरी बाल्टी और कुछ
बरतन रखे थे, खूंटियों पर कपड़े लटक रहे थे।
‘‘जी, मोहन तो उस दिन मुझे अपने साथ ले जाना नहीं चाहता था, पर मैं ही जबरदस्ती चला गया था। घूमने
का मन था इसलिए।’’ ( क़िस्त छह समाप्त==आगे और है)
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