शनिवार, 14 दिसंबर 2019



अपने साथ

       -देवेन्द्र कुमार
आत्म कथा – 12( अंतिम अंश )

 क़िस्त  11 – पृष्ठ 141 से  156== अब आगे पढ़ें

गली में नाटक मण्डली आई पर नाटक नहीं हो सका, मंडली का एक कलाकार किसी लड़की को लेकर भाग गया. शायद उसी चक्कर में किसी की हत्या हो गई. अखबारों  की कोठरी में रखी शराब की बोतल मुझसे टूट गई. बोतल रामभज ने रखी थी. वह मुझे मारने भागा तो लट्टू चौधरी ने बचाया. रामभज ने माफ़ी मांग ली .नानी ने उन्हें घर में रहने की जगह दे दी. रामभज और मेरी दोस्ती हो गई. रामभज अच्छी बांसुरी बजाते थे.उन्होंने मुझसे पूछा- क्या मैं जानता हूँ कि प्यार कैसे करते हैं? सुनकर मेरे कान गरम हो गए.आँखों के सामने कई चेहरे तैरने लगे.                                                                  

रात को मैं और रामभज तिमंजिले की छत पर चले गए। वहां से मोहन की छत वाला कोना दिखाई दे रहा था। आकाश में दूर बादलों में बिजली कौंध रही थी, पर हमारी छत के ऊपर तारे छिटके हुए थे खूब चमकदार। मुझे बारूमल बाबा की सुनाई कहानियां याद आ रही थीं। कुछ समय पहले वह हमारे मकान से कहीं और चले गए थे।
एकाएक रामभज ने पूछा-‘‘देवन, तू गाना जानता है?’’
‘‘नहीं तो, लेकिन आप तो जानते हैं। सुनाइए न।’’
और रामभज गाने लगे। उनकी आवाज मीठी थी। मेरा मन हुआ कि मैं भी गाऊं। मैं गुनगुनाने लगा। रामभज ने गाना बंद कर दिया। बोले-‘‘यार, तेरी गुनगुन मेरे गाने से अच्छी हैं सुना जल्दी सुना...।’’
मैंने मना किया, फिर गाना शुरू कर दिया। मैंने आगरे में राधे भाई को तलत महमूद की गजल गुनगुनाते सुना था। मैं वही गाने लगा। मेरी आंखें बंद हो गईं। मैं गाता रहा। रामभज चुपचाप सुनते रहे। मैंने गाना बंद किया तो उन्होंने मेरा कंधा दबाकर कहा-‘‘तू गाते-गाते रो क्यों रहा था?’’
‘‘मैं क्यों रोऊंगा भला।’’ में शरमा गया। मैंने महसूस किया मेरी आंखें गीली हैं, गाल भी गीले हैं। आखिर क्यों रो रहा था मैं। अगले दिन रविवार था। रामभज ने कहा-‘‘इतवार की सुबह यमुना पर नहाने जाता हूं। तू भी चल ना।’’
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लेकिन मैं कैसे जा सकता था। लाइब्रेरी की ड्यूटी छोड़कर जाने की तो मैं सोच भी नहीं सकता था। रास्ता रामभज ने निकाला। बोले-‘‘हम लाइब्रेरी खोलने के बाद चलेंगे और ग्यारह बजे से पहले लौट आएंगे।’’
सुबह लाइब्रेरी में अखबार डालने के बाद शास्त्री जी खिड़की पटनामल की तरफ निकल गए। मेरा मन था उनसे रशीद की जूही की तबियत का हाल पूछूं। यों रशीद रोज हमारे घर में दूध देने आता था। मैं उस समय बाहर लाइब्रेरी में होता था। लेकिन उससे मैं कभी न पूछ पाता। तब शायद वह भी जूही की मां की तरह नाराज हो जाता।
रामभज मुझे साइकिल पर अपने पीछे बिठाकर यमुना जी ले गए। वैसे इससे पहले भी मैं कई बार वहां आ चुका था। यमुना बाजार में संत हरिहरानंद की कथा होती थी। नानी उन दिनों सुबह चार बजे गली की कुछ औरतों के साथ पैदल ही कथा सुनने जाया करती थीं। कभी-कभी मैं भी चला जाता था। संत हरिहरानंद के आश्रम का भवन बनना शुरू हो चुका था। पर उन दिनों वह गुजरात गए हुए थे। तब नानी भी वहां नहीं जाती थीं।
हम एक घाट पर चले गए। वहां कुछ लोग बैठे चंदन घिस रहे थे। एक तरफ छोटा सा मंदिर था। उसे देखकर मुझे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के टीले वाले मंदिर की याद आ गई, पर मैं ज्यादा नहीं सोच सका। दोनों सिपाहियों की बदतमीजी और मोहन की चालाकी की बात मुझे परेशान करने लगी।
रामभज ने कपड़े उतारे और मेरा हाथ खींचकर घाट की सीढि़यों की तरफ बढ़ लगे। मैं घबरा गया। इससे पहले मैंने दो बार गंगा में स्नान किया था और दोनों बार मेरा चश्मा पानी में गिरते-गिरते बचा था।
मैंने कहा-‘‘मुझे डर लगता है। आप नहाइए। मैं बैठकर देखूंगा।’’
‘‘क्या छोकरियों जैसी बात करता है। इसमें भला डरने की क्या बात है। अच्छा मुझे देख।’’ कहकर वह घाट के ऊंचे चबूतरे पर जाकर खड़े हो गए। उसके नीचे यमुना का पानी तेजी से बहता जा रहा था। दूर रेलवे पुल पर गाड़ी गुजरने की धड़-धड़ सुनाई दे रही थी। नदी में खूब पानी आया हुआ था।
रामभज कुछ पल खड़े रहे फिर मुड़कर दूसरी ओर देखने लगे और नदी में छलांग लगा दी। कुछ पल तो उनका पता ही न चला, फिर दूर सिर दिखाई दिया। वह हाथ हिलाते हुए चिल्ला रहे थे।
रामभज ने ऊपर आकर कई बार छलांग लगाई। वह बहुत अच्छे तैराक थे।
‘‘अब आ जाओ, मैं तुम्हें देखते-देखते थक गया हूं।’’ मैंने कहा।
‘‘पर मैं तो नहीं थका हूं देखते-देखते।’’
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‘‘क्या?’’
‘‘ऊपर आकर बताऊंगा।’’ कहकर रामभज फिर पानी में गायब हो गए। काफी देर बाद ऊपर आए तो उनका गीला बदन धूप में चमक रहा था।
‘‘आपने इतनी देर क्यों लगा दी?’’ मैंने पूछा।
‘‘मैं देख रहा था।’’ उन्होंने कहा।
‘‘क्या?’’
‘‘तू मेरे साथ होता तो तू भी उसका मजा लेता।’’
‘‘कैसा मजा?’’
‘‘नहाने का और कैसा?’’ कहकर वह फिर हंसे। और दोबारा पानी में कूद गए फिर तेजी से बगल वाले घाट के सामने तैरने लगे। मैं देख रहा था वह बार-बार पानी में डुबकी लगाते और दूर जाकर बाहर निकलते। मैंने देखा घाट की दीवार पर चढ़कर कई लड़के दूसरी तरफ देख रहे थे। कई जने एक पेड़ पर चढ़े हुए थे। पता नहीं ऐसी क्या खास बात थी। हर इतवार को मैं और रामभज बिरला मंदिर भी जाते थे। वहां मंदिर के पीछे सुंदर बाग था। एक रंगशाला भी थी। बांसुरी सदा उनके साथ रहती थी। वहां देर तक बजाते-गुनगुनाते रहते थे।
रामभज मुझे बताया करते थे कि वह बिहार के एक गांव से दिल्ली आए थे नौकरी के लिए। घर में मां और दो बहनें थीं। उन्हें उम्मीद थी कि जल्दी ही रुपए कमाकर भेजने लगेंगें।
बिरला मंदिर में कई गुफाएं बनी थीं। उनके अंदर झरोखों से मद्धिम उजाला भी आता था। वहां हम देर-देर तक बैठे रहते थे। एक दिन रामभज गुफा के ऊपर वाली जगह पर बैठे बांसुरी बजा रहे थे। मैं नीचे फूलों से खेलता हुआ सुन रहा था। कुछ देर बाद वह नीचे उतरे तो मैंने देखा कि एक लिफाफा उनकी जेब से गिर पड़ा, पर उन्हें कुछ पता न चला। मैंने लिफाफा उठाकर जेब में रख लिया। मुझे लगा कि इसमें रुपए होंगे, पर उसमें कुछ फोटो थे। मैं दूर जाकर फोटो देखने लगा। अरे, उसमें तीन फोटो थे। तीनों लड़कियां थीं। तीनों अलग-अलग। मैंने लिफाफा जेब में रखा और उनके पास जाकर बैठ गया।
‘‘देवन, कहां चला गया था?’’
‘‘मैं देख रहा था।’’ मैंने हंसकर कहा।
‘‘क्या?’’ रामभज ने पूछा। उन्हें अब भी कुछ पता नहीं चला था।
‘‘वहीं जो आप घाट पर देख रहे थे।’’ मैंने यूं ही कह दिया।

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‘‘शैतान तेरी आंखें बड़ी तेज हैं।’’ कहकर रामभज ने मेरी कमर पर धीरे से मुक्का जड़ दिया और मुसकुरा उठे। मैंने फोटो वाला लिफाफा उन्हें थमा दिया। मैं ध्यान से उनका चेहरा देख रहा था। एक बार लगा जैसे वह उसी दिन की तरह गुस्से में आ गए हैं और अब मुझे मारने के लिए हाथ उठाने वाले हैं। मैं कुछ पीछे हटा। कुछ देर रामभज मुझे घूरते रहे फिर जोर से हंस पड़े। देर तक हंसते रहे।
मेरे बाल सहलाकर बोले-‘‘बदमाश, लगता है तेरे पास भी ऐसे ही फोटो हैं।’’
‘‘नहीं तो।’’ मैंने कह दिया। मेरे सामने जूही और जूही की तस्वीरें घूमने लगीं। क्या मैं भी उन्हें इसी तरह अपने पास रख सकता था?
‘‘ये तीनों कौन हैं? क्या इनसे शादी करोगे?’’
‘‘शादी तो एक से ही हो सकती है, और वैसे भी अभी मेरी शादी की बात ही कहां उठती हैं। पहले दोनों बहनों का ब्याह करूंगा। उसके लिए पैसे चाहिएं। दिल्ली में जितनी भी तनख्वाह मिलती है वह तो खर्च हो जाती है। मैं मां के पास कुछ नहीं भेज पाता हूं।’’ रामभज भैया ने कहा। और तीनों लड़कियों के फोटो अपने सामने फैलाकर रख दिए।
‘‘अच्छा तुमसे अगर पूछा जाए तो इनमें से किसको पसंद करेगा?’’
मैं बारी-बारी से तीनों फोटो देखता रहा। मुझे जूही और जूही की याद आती रहीं। दोनों जूही बीमार थी और यह तीनों तो स्वस्थ दिखती थीं। पर फिर भी...
‘‘क्यों क्या हुआ?’’ रामभज भाई ने पूछा। ‘‘कुछ समझ में आया?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘अच्छा, अगर इस काम में मैं तेरी मदद लेना चाहूं तो?’’ वह हंस रहे थे।
‘‘मैं कुछ नहीं करूंगा।’’ मैंने कहा।
एकाएक रामभज भैया ने घड़ी देखी। हड़बड़ा कर बोले-‘‘अरे, मुझे तो कहीं पहुंचना था, याद ही नहीं रहा। आओ चलें।’’ मैंने झोला उठाया और हम बाहर की तरफ चल दिए। तभी रामभज भैया रुक गए। वह कहीं दूर देख रहे थे। मैंने उन्हें कहते सुना- ‘‘यह यहां, इस समय...। देवन, तू यहीं ठहर।’’ उन्होंने मेरे हाथ पर दो रुपए रख दिए। ‘‘जब तक मैं लौटूं कुछ खा-पी ले। मैं सीढि़यों के पास मिल जाऊंगा।’’ और तेज कदमों से चले गए। मैं उनके पीछे-पीछे चल दिया। मैंने उन्हें दूर फव्वारे के पास किसी से बात करते देखा। मैं चेहरा नहीं देख पा रहा था। वह लिफाफे वाली लड़कियों में से कोई थी या रामभज भैया के पास चौथा फोटो भी था?

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
मैं रामभज भैया से कितना नाराज था, यह किसी को बताने की जरूरत नहीं थी। मैंने प्रण कर लिया था कि मैं उनका मुंह न देखूंगा। हालांकि मैं जानता था कि मुंह न देखने के प्रण पर अड़ना बहुत मुश्किल था। सबसे बड़ी आफत यह थी कि इस बारे में नानी से कुछ भी नहीं कह सकता था, क्योंकि इसके बाद वह जो कुछ पूछतीं उसका उत्तर मेरे पास नहीं था।
रात को नानी आंगन में खटोला बिछाकर लेटी थीं। मैंने उनकी छाती के ऊपर अपना सिर रख लिया था। वह मेरा सिर थपकते हुए गुरुजी का नाम स्मरण कर रही थीं। मैं देख रहा था अभी रामभज नहीं लौटे थे। आंगन में चारपाई पर लेटकर रात को तारे देखते हुए उन्हें गिनना मुझे पसंद था। तारे आज भी थे पर मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। तभी ऊपर से कोई चीज आकर मेरे सिर से टकराई। मैं हड़बड़ाकर उठा। हाथ से उठाकर देखा तो वह कागज की एक गेंद सी थी। टीन शेड में अंधेरा था। मैं समझ न पाया कि यह शरारत किसकी थी? मैंने कागज की गेंद उठाकर एक तरफ उछाल दी। तभी ऊपर से आवाज आई-‘‘अरे, मार डाला रे। फुटबाल से सिर फोड़ दिया रे।’’
यह रामभज भैया थे। वह ऊपर छज्जे में खड़े थे। फिर उनकी हंसी सुनाई दी। मुझे जूही की मां फातिमा की गालियां याद आ गईं। वह भी तो ऐसे ही बोल रही थी उस दिन। लेकिन वह गुस्से में थी और रामभज भैया हंस रहे थे।
‘‘नीचे आ रामभज।’’ नानी ने कहा। ‘‘मैंने तेरी पसंद की सब्जी बनाई है।’’
‘‘अभी आया नानी।’’ कहते हुए रामभज भैया नीचे आ गए। नानी रसोई में चली गई थीं आंगन में लालटेन जल रही थी।
‘‘माफ करना दोस्त। जानता हूं तुम बहुत गुस्से में हो, लेकिन क्या बताऊं ऐसी गलती फिर कभी नहीं होगी। आओ, ऊपर चलो तो सब बताऊं।’’
नानी ने कटोरी में सब्जी रामभज को थमा दी। उन्होंने एक हाथ में कटोरी पकड़ी और दूसरे से मुझे जबरदस्ती ऊपर ले गए।
‘‘मैं आपसे बात नहीं करूंगा।’’ मैंने कहा।
‘‘मत करना, पर मेरी बात तो सुन लो।’’ फिर उन्होंने बताया-‘‘उस दिन बहुत गड़बड़ हो गई। हम दोनों को रात में मिलना था लेकिन मैंने देखा वह तो वहीं मौजूद थी बिरला मंदिर में।‘’

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‘‘फिर?’’
‘‘फिर यही कि उसके रिश्तेदार आ गए थे। वे लोग उसे जबरदस्ती बिरला मंदिर ले गए थे। उसने मुझे देख लिया था। मेहमान लोग मंदिर घूमना चाहते थे, पर उसने बहाना बना दिया कि उसके पैर में एकाएक दर्द हो गया है, वह चल नहीं सकती। इसलिए वह बाग में बैठेगी। इस इस तरह मुझे उसके साथ रहने का मौका मिल गया।’’
‘‘तो तुम उसके साथ शादी करने वाले हो? क्या नाम है उसका?’’
‘‘नाम है पूनम। पर शादी की कोई बात नहीं।’’
‘‘तब पूनम से मिलते क्यों हो?’’ मैंने पूछा।
‘‘क्योंकि हम दोनों मिलना चाहते हैं।’’ यों बातें करते-करते रामभज भैया छत पर चले गए। तेज हवा चल रही थी। मुझे अच्छा लगा। एकाएक जोर की आवाज हुई। किसी की चीख सुनाई दी। लगा कुछ लोग तेजी से बातें कर रहे हैं। और हमारे घर के पीछे आकाश चमकने लगा। चमक धीरे-धीरे बढ़ रही थी। न जाने यह क्या था।
रामभज भैया दौड़कर सबसे ऊपर वाली छत पर जा पहुंचे। कुछ देर तक देखते रहे, फिर बोले-‘‘कहीं आग लगी है। पता नहीं क्या बात है?’’ उनकी बात सुनकर मैं भी उनके पास जाकर खड़ा हो गया। सचमुच एक तरफ आकाश लाल-लाल दिख रहा था। आवाजें लगातार आ रही थीं। पर क्या बोला जा रहा था यह समझ में नहीं आ रहा था।
फिर हमारा दरवाजा जोर-जोर से खटखटाने की आवाज आई। इसके साथ ही नानी की पुकार सुनाई दी- ‘‘रामभज, देवन, दोनों ऊपर ही रहना।’’
‘‘क्यों नानी?’’ मैंने ऊपर से ही पूछा।
‘‘नीचे मत आ, नीचे खतरा है।’’ नानी की आवाज आई।
‘‘क्या बात है?’’ मैंने रामभज से जानना चाहा।
‘‘पता नहीं।’’ मैं नीचे जाकर देखता हूं।
‘‘मैं भी साथ चलूंगा।’’
‘‘नहीं।’’ कहकर रामभज भैया नीचे उतर गए, पर मैं रुका नहीं। सीढि़यां उतर कर नानी के पास चला गया। वह हाथ में लालटेन लिए हुए आंगन में खड़ी थीं।

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नानी ने कहा-‘‘हिन्दू-मुसलमानों का दंगा हो गया है। बहुत से लोग मारे गए हैं। तू कहीं नहीं जाएगा। कान खोलकर सुन ले।’’ कहकर उन्होंने मेरा हाथ कसकर पकड़ लिया।
‘‘क्या मैं गली में भी नहीं जा सकता?’’
‘‘हां, कहीं भी नहीं जाना है।’’
मैं रामभज भैया से पूछना चाहता था, पर वह तो गली में निकले हुए थे।
नानी ने दरवाजे का कुंडा लगा दिया था। मैंने नानी से पूछा-‘‘क्या आगरे में भी दंगा हुआ होगा?’’
‘‘पता नहीं।’’ उन्होंने कहा और दूसरी तरफ चली गईं।
मुझे जूही का ख्याल आ रहा था। इतना तो मैं भी जानता था कि जुबैदा और जूही मुसलमान थीं जैसे दिल्ली में रशीद, फातिमा और उनकी बेटी जूही। हम लोग हिंदू थे। नानी बताया करती थीं कि हम लोग मुसलमानों से अलग हैं। पर यह पता नहीं चला कि कितने अलग थे हम। कम से कम मुझे तो उनमें और अपने में कोई फर्क नहीं लगा।
मैं सोच रहा था, अगर आगरे में भी दंगा हो गया तो बाबूजी जुबैदा के घर कैसे जाएंगे। मान लो वह जुबैदा के घर में बैठे हों और तभी दंगा छिड़ जाए तो वह रातवपाड़े कैसे वापस आएंगें?
तभी दरवाजे पर खटखट हुई। मैंने दौड़कर खोल दिया। बाहर रामभज भैया और दो जने खड़े थे। उन्हें मैंने पहले कभी नहीं देखा था।
रामभज भैया ने नानी से कहा-‘‘घबराने की जरूरत नहीं। हम सब रात भर गली में रखवाली करेंगे। आप दो-तीन पतीली दे दीजिए।’’
‘‘किसलिए?’’ नानी ने पूछा।
‘‘सिर बचाने के लिए सिर पर बांधेगे ताकि अगर कोई लाठी मारे या पत्थर फेंके तो सिर पर चोट न आए।’’ रामभज बोले।
मैं रसोई से छोटी-बड़ी पतीलियां निकाल लाया। रामभज और उनके दोनों साथी पतीलियों को टोपी की तरह सिर पर पहन कर देखने लगे। एक पतीली मैंने सिर पर रखी तो मेरा सिर उसमें फंस गया रामभज भैया हंस पड़े। बोले-‘‘अब तेरा सिर इसी में रहेगा।’’
कुछ देर बाद वे तीनों चले गए।
नानी और मैं अंदर बैठे थे, पर गली का शोर अंदर तक आ रहा था। कभी-कभी हर-हर महादेव का नारा सुनाई दे रहा था। मैं नानी की गोद में सिर रखे आंगन में लेटा था। ऊपर आकाश में तारे बिखरे हुए थे। सब तो रोज जैसा था, लगता था आकाश में कभी कुछ नहीं बदलता था। रह-रह कर दोनों जूही आंखों में आ जातीं। मैं कभी आगरे में होता तो कभी रशीद के घर में...फिर न जाने कब नींद आ गई।
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मैं झटके से उठ बैठा। दिन निकल आया था। नानी और पड़नानी सोई हुई थीं। मैंने धीरे से कुंडा खोला और दहलीज में निकल आया। फिर बाहर से कुंडा लगा दिया। गली में निकलने से पहले मैं ऊपर जाकर देख आया था। रामभज भैया घर में नहीं थी। तो कहां थे वह? गली में काफी भीड़ थी। चबूतरों पर लोग थे। गली में आते-जाते लोगों के हाथों में डंडे थे पर रामभज भैया कहीं नजर नहीं आए।
शास्त्रीजी लट्टू चौधरी से बातें कर रहे थे। आज उनकी साइकिल और अखबार नहीं थे। मैं पास गया तो वह हंस पड़े, ‘‘आज तुम्हारी लाइब्रेरी बंद। क्योंकि अखबार नहीं आए।’’
‘‘वह क्यों?’’
‘‘शहर में हिंदू-मुस्लिम दंगे हो रहे हैं। कई जगह कर फ्यू लगा है। ऐसे में आना-जाना मुश्किल है।’’
मेरा मन उदास हो गया। क्या गली वाली लाइब्रेरी अब कभी नहीं खुलेगी। मेरी आंखें रामभज भैया को ढूंढ़ रही थीं। मैंने देखा खिड़की पटनामल के पास काफी लोग खड़े थे। मैं वहां जा खड़ा हुआ। वहां का तो हुलिया ही बदल गया था। जिसे हम खिड़की पटनामल कहते थे वह एक बिना पल्लों का दरवाजा था जो गली के बीचोंबीच बना हुआ था। इस समय उसे लकडि़यों के लट्ठे तथा तख्ते लगा कर बंद कर दिया गया था। मैंने देखा रामभज भैया दीवार पर चढ़े हुए थे। उनके हाथ में कंटीला तार था जिसे वह दीवार के ऊपर लपेट रहे थे।
मुझे देखकर भैया ने कहा-‘‘अरे देवन, तू यहां कैसे। ठहर, मैं नीचे आ रहा हूं।’’ वह दीवार से कूद कर मेरे पास आ खड़े हुए। उनके चेहरे से लग रहा था वह रात में सोए नहीं हैं। उनकी आंखें लाल थीं और बाल बिखरे हुए थे।
‘‘रात में आप कहां थे।’’ मैंने कहा।
‘‘तुझे क्या पता हम कहां-कहां गए थे।’’ उन्होंने कहा।
‘‘हम...’’
‘‘हां, यह काम अकेले नहीं होता।’’ उन्होंने कहा।
‘‘कैसा काम?’’
‘‘अरे, तू अभी छोटा है, नहीं समझेगा, फिर कभी बताऊंगा।
‘‘पर खिड़की पटनामल क्यों इस तरह बंद कर दी?’’ मैंने पूछा।
‘‘जिससे उस तरफ से कोई आकर हमारे घरों पर हमला न कर सके।’’
मुझे फिर से बीमार जूही की याद आई। रशीद दूध वाला, फातिमा.... गली के नुक्कड़ पर चाय वाला...‘‘कौन करेगा हमला? क्यों करेगा?’’
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‘‘क्या पता, कोई भी हो सकता है। इसीलिए इस ओर से रास्ता बंद किया है।’’ रामभज ने कहा। फिर हंस कर बोले-‘‘लेकिन हम उस तरफ जा सकते  हैं। वहां चुपचाप जाने का रास्ता है हमारे पास।’’
उनकी बात मेरी समझ में नहीं आई। वह मेरा हाथ पकड़कर घर में चले आए। नानी से बोले-‘‘नानी, चाय बना दो बदन टूट रहा है। रात भर...’’ फिर चारपाई पर लेटते ही खर्राटे भरने लगे। मैं पास खड़ा उन्हें देखता रहा। मैं सोच रहा था-क्या रशीद और उसके घर वाले होंगे वहां? रशीद कई दिनों से दूध देने नहीं आया था। आखिर क्यों? जूही कैसी होगी? क्या वह अब भी होगी वहां? कोई मुझे जाने दे तो मैं जाकर उसका पता लगा सकता था। मुझे याद था, मैंने जूही के मकान के बाहर कोयले से गोल निशान बना दिया था। मैं उसके मकान को जरूर खोज लूँगा। लेकिन जाऊंगा कैसे? खिड़की पटनामल तो बंद कर दी गई थी। अब हमारी तरफ से कोई भी उधर नहीं जा सकता था।
दिन में रामभज भैया से मैंने पूछा था- ‘‘क्या मैं उस तरफ जा सकता हूं?’’
‘‘क्या मरना चाहता है?’’
‘‘कौन मारेगा?’’
‘‘वही लोग जो मस्जिद के पीछे वाली गली में रहते हैं। उन्होंने चाकू-छुरे तैयार कर रखे हैं।’’
‘‘लेकिन वहां तो रशीद दूध वाला रहता है।’’ मैंने कहा।
‘‘हां, मैं जानता हूं।’’ कहकर रामभज भैया बाहर चले गए। उन्होंने नानी से कहा-‘‘हो सकता है मैं रात में न आऊं। बहुत काम है।’’ गली में लोग हाथों में डंडे लिए लगातार मौजूद थे। जब तब मैं भी उनके बीच जाकर बातें सुनता था। आग, कफ्र्यू और मरने-मारने की बातें लगातार होती थीं। लट्टू चौधरी  के चबूतरे के सामने बहुत भीड़ थी। इधर-उधर से आ कर सब वहीं खड़े हो रहे थे।
तभी किसी ने कहा-‘‘हर हर महदेव!’’ गली में जितने भी थे सब चिल्लाए-हर हर महादेव!’’ दो जने नकली लड़ाई करने लगे। लट्टू चौधरी ने कहा- ‘‘हां, इसी तरह अपने को बचाना चाहिए।’’ वह दोनों को शाबाशी दे रहे थे। मैं फिर से खिड़की पटनामल के पास जा खड़ा हुआ। उसके आगे लकडि़यों का ढेर लगा था। वहीं ईंट-पत्थर पड़े थे। दीवार पर कंटीला तार लटक रहा था। खिड़की पटनामल के रास्ते से रशीद दूधवाले की तरफ जाना नहीं हो सकता था। बगल वाली आर्य समाज गली से एक पतला रास्ता ठीक रशीद वाली गली के सामने निकलता था। पर क्या उसे भी बंद नहीं कर दिया गया होगा।
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गली में बच्चे भी घूम रहे थे। स्कूलों में छुट्टी थी। किसी ने कहा-‘‘स्कूल न जाने कब तक बंद रहेंगे।’’ सुन कर अच्छा लगा। कम से कम मास्टर जयमल सिंह बच्चों की पिटाई तो नहीं कर सकेगा। रात हुई तो नानी ने बाहर का दरवाजा बंद कर दिया। मैंने कहा-‘‘रामभज भैया कैसे आएंगे?’’
‘‘अरे, वह अभी आने वाला नहीं।’’ कहकर नानी ने लालटेन जला दी। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं? मैं सब से ऊपर वाली छत पर चला गया। आसपास के मकानों की छतों पर लोग खड़े होकर न जाने क्या देख रहे थे। भला अंधेरे में क्या दिखाई पड़ सकता था।
मैं भी बहुत देर खड़ा हुआ अंधेरे में देखता रहा, पर कुछ पता न चल सका। हां, दूर दो जगह आकाश का काला रंग लाल-लाल जरूर दिखाई दिया और कुछ आवाजें भी सुनाई दीं। पर कहां क्या हो रहा था, इस बारे में कुछ कहना मुश्किल था। नानी जब नीचे से पुकार कर थक गईं तो मुझे बुलाने ऊपर चली आईं और कुछ देर बाद थककर वापस चली गईं। मैं छत पर ही लेट गया।
एकाएक मेरी नींद खुल गई। कोई मोहन वाली छत से हमारे घर की छत पर कूदा।
मैं हड़बड़ाकर उठ बैठा। मुझे एकदम मोहन का ध्यान आया। हां, वही हो सकता था, लेकिन...वह तो अपनी मां के साथ कभी का मकान से जा चुका था। तब कौन रात के समय हमारी छत पर कूदा था। कौन? डर से मैं कांप उठा। मैं इस समय छत पर अकेला था और...
‘‘देवन...’’ आवाज आई। अरे, यह तो रामभज भैया थे। अंधेरे में उनका चेहरा साफ-साफ दिखाई नहीं पड़ रहा था, पर आवाज तो उन्हीं की थी। तब उन्होंने आगे आकर मेरा हाथ पकड़ लिया। हाथ एकदम गरम-गरम लगा।
‘‘भैया!’’ मैंने कहा।
‘‘अरे चुप...धीरे बोल।’’ और वह मेरे पास बैठ गए।
‘‘क्या बात है? आप इधर से क्यों आए? अपने दरवाजे से क्यों नहीं आए?’’ उनका इस तरह आना मेरी समझ में नहीं आ रहा था। तभी मोहन की छत पर किसी की आवाज सुनी। किसी ने धीरे से पुकरा, ‘‘रामभज!’’
रामभज भैया झट मुंडेर के पास जा खड़े हुए। उधर भी कोई खड़ा था। दोनों धीरे-धीरे बात करने लगे। जब रामभज पुकार सुनकर जल्दी से उठे थे तो उनकी जेब से कुछ गिरा, खट् की आवाज हुई। मैंने उठाया। वह एक चाकू था। रामभज भैया की जेब में चाकू! बंद चाकू भी काफी भारी और बड़ा लग रहा था। मुझे डर लग रहा था।
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दूसरी तरफ खड़े आदमी से चुपचुप बात करने के बाद रामभज मेरे पास आकर बैठ गए। मैंने कहा-‘‘भैया, आपकी जेब से यह गिरा था।’’ और चाकू उन्हें थमा दिया।
‘‘अरे, यह कहां मिला तुझे।’’ रामभज हड़बड़ाकर बोले।
जब आप मेरे पास से उठकर मुंडेर की तरफ गए थे तो यह आपकी जेब से गिरा था।’’ मैंने कहा।
रामभज ने चाकू फिर से जेब में डाल लिया। और चुप होकर न जाने क्या सोचने लगे। मोहन की छत से कई लोगों के बातें करने की धीमी आवाजें आ रही थीं। सब तरफ अंधेरा था। हां, दूर कहीं आकाश एकदम लाल दिखाई दे रहा था। फट-फट की आवाजें सुनाई दीं जैसे किसी ने पटाखे छोड़े हों।
मैं जानना चाहता था कि इतनी रात गए रामभज भैया कहां से आए थे। हालांकि मोहन और हमारे मकान की छतें आपस में मिली हुई थीं, पर उसके मकान का दरवाजा दूसरी गली में था। अगर उस मकान के दरवाजे से जाना हो तो काफी घूमकर जाना पड़ता था।
मैंने फिर पूछा, ‘‘आप अपने घर के दरवाजे से क्यों नहीं आए। छत पर बैठे लोग कौन हैं?’’
रामभज ने कहा-‘‘अपने मकान का दरवाजा अंदर से बंद है। और मैं नानी को चौकाना भी नहीं चाहता। पत नहीं वह क्या-क्या सवाल पूछने लगें । मैं उनके किसी सवाल का जवाब नहीं दे सकूंगा।’’
‘‘हां, आप कई दिन से घर नहीं आए हैं आखिर क्या बात है? नानी आपके लिए चिंता कर रही थीं। शहर में दंगे हो रहे हैं, और आप घर में नहीं हैं। चलिए नीचे नानी के पास।’’ मैं रामभज का हाथ खींचने लगा।
‘‘अरे, पागल न बन। अगर नानी यहां आ गईं तो मुश्किल होगी।’’
‘‘और आपके पास यह चाकू! आपने पहले तो कभी नहीं बताया कि आप चाकू भी जेब में रखते हैं।’’
‘‘रखता नहीं था, पर इधर कुछ दिनों से रखने लगा हूं।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘जाने दे। इस क्यों का जवाब नहीं दे सकता। बताऊंगा तो भी तू समझेगा नहीं। बड़ा होगा तो बहुत-सी बातें अपने आप समझ में आ जाएंगी।’’ कहकर रामभज भैया ने मेरा कंधा थपथपा दिया।
ठीक है वह मुझसे बड़े थे, लेकिन यह बात तो एक छोटा बच्चा भी जानता था कि चाकू-छुरी से दूर रहना चाहिए। और मैं तो इतना छोटा भी नहीं था जितना रामभज भैया मुझे समझ रहे थे।

167

‘‘फिर भी...’’
‘‘क्या बताऊं, कितना बताऊं। कहां तक बताना ठीक रहेगा। खैर सुन! पता है न शहर में हिंदू-मुसलमानों के बीच झगड़े हो रहे हैं। दोनों एक-दूसरे को मार रहे हैं, लूट रहे हैं।’’
मेरी आंखों के सामने आगरे वाली जूही और रशीद वाली जूही के चेहरे चमकने लगे। मैंने तो उन दोनों को ही बीमार देखा था, आगरे और दिल्ली में। क्या कोई जूही को भी मार सकता है? रशीद दूधवाला खिड़की पटनामल के पीछे रहता था मस्जिद के पास वाली गली में। पता नहीं वहां क्या हो रहा होगा? क्या रामभज भैया मुझे बता सकते थे कि उधर क्या हो रहा है। उन लोगों के हालचाल जानने का क्या तरीका था? ‘‘भैया, खिड़की पटनामल के पीछे...’’
‘‘हां, हां, वहीं मस्जिद के पीछे वाली बस्ती में...’’
‘‘हां, रशीद दूधवाला और उसका परिवार वहीं रहता है। वे लोग...’’मुझसे आगे न बोला गया।
‘‘हां, वही तो...वहां सफाई की जा रही है। इसलिए यह चाकू रखना जरूरी है।’’
‘‘सफाई, कैसी सफाई?’’
‘‘तूने देखा, हमने खिड़की पटनामल वाला रास्ता बंद कर दिया है। कोई चिडि़या भी मस्जिद की तरफ से इधर नहीं आ सकती, पर हम जा सकते हैं उधर...’’
‘‘रशीद दूधवाला...’’ मैंने कहा।
‘‘पता नहीं...कौन-कौन था। कौन गया, कौन रह गया और कौन आज की रात जाएगा...’’ रामभज ने रहस्यपूर्ण स्वर में कहा।
उनकी बातें सुनकर मुझे डर लगने लगा। मैं उठ खड़ा हुआ। मैंने कहा-‘‘मैं नीचे जाता हूं।’’
‘‘हां, तू जा, नानी के पास आराम से सो जा। लेकिन एक बात है, नानी को इस समय मेरे आने का पता नहीं चलना चाहिए। उन्हें कुछ मत बताना।’’
‘‘तो आप हमारे दरवाजे से घर में कब आएंगे।
‘‘अरे, उसी का इंतजाम करना है...जल्दी ही आना होगा। अब तू जा। मैं और मेरे साथी यहीं छत पर आराम करेंगे, फिर चले जाएंगे। हम बहुत थके हुए हैं पर अभी तो रात में बहुत काम करना है। तू जा...’’
मैं चुपचाप नीचे चला आया। मैंने नानी को छज्जे में खड़े होकर आवाज दी तो उन्होंने दरवाजा खोल दिया। मन हुआ रामभज भैया के बारे में सब बता दूं। उनकी जेब से जो चाकू गिरा था उसके बारे में भी... पर  फिर मैं चुप रह गया। रामभज ने मना जो किया था बताने से।

168

सुबह उठते ही मैं छत पर गया। देखा रामभज भैया और उनके साथ कहीं न थे। मोहन की छत पर माचिस की बुझी हुई तीलियां, अधजली बीड़ी के टुकड़े और एक बुझी हुई मोमबत्ती पड़ी थी। कभी इसी कोने में मोहन का खिलौना रेलवे स्टेशन था। मैं नीचे उतर कर गली में निकल गया। सब तरफ लोग खड़े थे। शास्त्री जी दिखाई दिए। वह बता रहे थे, आज भी अखबार नहीं आए थे। मेरे कदम आपसे आप खिड़की पटनामल की तरफ उठ गए। अगर वह रास्ता खुला होगा तो जल्दी से देख आऊंगा कि रशीद का घर कैसा है, जूही...और फिर गले तक काली चादर ओढ़कर जमीन पर लेटी जूही दिखने लगी। झरोखे से गिरती धूप में उसका चेहरा चमक रहा था।
पर आगे न जा सका। खिड़की पटनामल वाला रास्ता बंद था। उसके आगे बड़ी-बड़ी बल्लियां खड़ी थीं। ऊपर कंटीला तार लिपटा हुआ था। यानी उस तरफ से कोई इधर नहीं आ सकता था रात में।
मुझे देखकर शास्त्री जी पास चले आए। वह मुस्करा रहे थे। मेरे कंधे पर हाथ रखकर बोले-‘‘अभी पता नहीं कितने दिन अखबार नहीं आएंगे।’’
मैंने पूछा-‘‘यह खिड़की पटनामल वाला रास्ता कब खुलेगा?’’
शास्त्री जी बोले-‘‘जल्दी ही खुलेगा। कुछ लोग कह रहे थे उधर काफी काम हो गया है। अब वहां कोई ऐसा नहीं जिससे खतरा हो।’’
‘‘खतरा... कैसा खतरा।’’
शास्त्री जी चुप खड़े मुस्कराते रहे।
‘‘आप रशीद की लड़की का इलाज कर रहे थे। वह कैसी है? आप जाते थे न उसे देखने।’’
‘‘हां, लेकिन अब तो कई दिन से जाना नहीं हुआ। पता नहीं कैसे होंगे वहां लोग। सुनता हूं कल रात उस तरफ आग लगी थी।’’
‘‘आग!’’ मेरा मन कांप गया... क्या जूही के बारे में जानने को कोई उपाय नहीं था। भगवान करे, रशीद और जूही ठीक-ठाक हों, और फातिमा भी...’’
मैं खड़ा रहा, शास्त्री जी चले गए। तभी शोर मचा, ‘‘भागो...भागो, पुलिस आ रही है। कफ्र्यू...’’ सब इधर-उधर भागे। मैं भी अंदर आ गया। फिर ऊपर वाले कमरे के आगे छज्जे पर जा खड़ा हुआ। बात की बात में गली में सन्नाटा हो गया था। कई पुलिसवाले दिखाई दिए। वे खट-खट करते खिड़की पटनामल तक गए। फिर उसी तरह घूमकर चौराहे की तरफ वापस चले गए। क्या पुलिस वाले दूसरे रास्ते से मस्जिद के पास वाली गली में भी जाएंगे? शायद गए हों। अगर रात के समय पुलिस वाले उस गली में रहें तब तो कोई बाहर का आदमी नहीं आ सकेगा वहां।

169

पुलिस वालों के जाते ही लोगों की भीड़ गली में निकल आई। लोग जोर-जोर से बातें करते हुए हंस रहे थे। चार आदमी हाथों में लाठियां लेकर फिर से खिड़की पटनामल के आगे खड़े हो गए। वे सैनिकों की तरह खड़े थे, जैसे उन्हें उस तरफ से किसी हमले का इंतजार था।
रात को नानी ने बहुत कहा कि मैं नीचे उनके पास ही रहूं। पड़नानी ने भी बहुत समझाया, पर मैं जिद पर अड़ा रहा कि ऊपर जाकर ही सोऊंगा। असल में मुझे लग रहा था कि पिछली रात की तरह आज भी रामभज भैया मोहन के मकान की छत से आएंगे। मैं उन्हीं से जान सकता था कि कहां क्या हो रहा है। वह जेब में छुरा लेकर जो सारा दिन-रात इधर-उधर घूमते रहते थे।
पिछली रात की तरह आज भी रामभज भैया उसी तरह कूदकर आए तो मैं जाग ही रहा था। वह आकर मुंडेर के पास खड़े हो गए।
तभी उधर से दो पोटलियां हमारी छत पर फेक दी गईं। उधर कोई खड़ा था। रामभज भैया मुंडेर से सामान पकड़कर हमारी छत पर रखते गए। मैंने देखा-एक हारमोनियम, कई जोड़ी जूते, तबला, कालीन तथा दूसरी तरह-तरह की चीजें थीं।
‘‘यह सब क्या है? कहां से लाए?’’ मैंने पूछा तो उन्होंने चुप रहने का संकेत किया। ‘‘अभी चुप कर। बाद में बता दूंगा, पर खबरदार, नानी से कोई बात न कहना।’’
रामभज भैया का यों यह सब सामान चोरी-चोरी लेकर आना मुझे अच्छा न लगा, पर मैं कुछ कह न सका। उन्होंने मेरे साथ मिलकर सामान को टीन शेड में रखवा दिया, फिर बोले,- ‘‘अब ठीक है, ला ताला लगा दूं।’’
लेकिन ताला नहीं लगाया जा सका। अंधेरे में नानी की आवाज आई-‘‘पापी, हत्यारे। मैंने सब देख लिया है। बता, किसका घर लूटकर लाया है ये चीजें?’’
मेरा जी धक् से रह गया। रामभज भैया भी चुप खड़े रह गए। नानी ने कहा-‘‘सोचता क्या है?’’
‘‘नानी, मैंने किसी को नहीं मारा। जहां हम गए थे उस मकान में कोई न था। रहने वाले जाने कहां चले गए थे। वहीं से...’’
‘‘चोर, कमीने, मैं आज पछता रही हूं। तुझे मैंने जगह क्यों दी रहने के लिए। लट्टू चौधरी  की तरह भगा क्यों नहीं दिया। यह पाप की कमाई उठा और निकल जा...’’

170

‘‘नानी...मैंने कहना चाहा। नानी को इतने गुस्से में मैंने कभी नहीं देखा था। फिर मैंने उन्हें रोते हुए सुना। वह कह रही थीं-‘‘मुझे सबने दुःख ही दिया है। मैं कैसे जिंदा रहूं।’’
कुछ देर चुप्पी छाई रही। रामभज भैया किसी मूर्ति की तरह खड़े थे। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। फिर वह हिले और कुछ सामान लेकर नीचे चले गए। थोड़ी देर बाद खाली हाथ लौटे तो नानी ने पूछा-‘‘यह लूट का सामान गली में फेंककर आया है न? मेरे घर में एक टुकड़ा भी नहीं रहना चाहिए।’’ फिर मुझसे बोलीं-‘‘जा सारा सामान गली में फिंकवा दे और दरवाजा बंद करके अंदर आ जा।’’
सुबह गली में काफी लोग थे। कुछ लोग खिड़की पटनामल की तरफ से भागे आ रहे थे। हरेक के हाथ में कोई न कोई सामान था। तो क्या रामभज भैया भी उधर से ही यह सारा सामान उठाकर लाए थे। मैंने देखा घर की सीढि़यों पर बैठकर रामभज भैया रो रहे हैं। वह कह रहे थे-‘‘क्या कोई जानता है, मैंने किसी को भी हाथ नहीं लगाया। कुछ लोग दो औरतों को पकड़कर ले जा रहे थे। वे दोनों रो रहीं थीं मैंने उन दोनों को बहुत मुश्किल से दंगाइयों के हाथों से छुड़ाया।’’
‘‘कौन थीं वे?’’ मैंने पूछा। न जाने क्यों मुझे जूही और फातिमा का ख्याल आ रहा था।
‘‘क्या पता कौन थीं। हिंदू, मुसलमान पता नहीं। बस इतना जानता हूं कि वे चीख चिल्ला रही थीं। और अब नानी कह रही हैं...’’
फिर वह आंसू पोंछकर उठ खड़े हुए। मेरा हाथ थामकर बोले-‘‘मैं चलता हूं दोस्त।’’
‘‘कहाँ जा रहे हो?’’ मैंने पूछा।
‘‘कौन जाने?’’ रामभज भैया ने कहा और भीड़ में गुम हो गए। मैं पीछे-पीछे दौड़ा। मैंने देखा खिड़की पटनामल खुली थी। लकडि़यां हटा ली गई थीं। लोग दूसरी तरफ से हाथों में सामान उठाए तेजी से आ रहे थे। मैं चलता गया। अब मैं मस्जिद के पास वाली गली के बाहर खड़ा था। नुक्कड़ वाली चाय की दुकान का सामान फैला हुआ था।
गली में खुलने वाले सब मकानों के दरवाजे बंद थे। लोग अब भी न जाने कहां से चले आ रहे थे-उनके हाथों में, सिर पर पोटलियां थीं। हमारे सामने के मकान में रहने वाले मद्दी दूधवाले बहुत बड़ा फैंसी दर्पण सड़क पर घिसटाते हुए भाग रहे थे। उनके लिए इतने भारी और बड़े दर्पण को उठाना संभव नहीं था। सामान लाने वालों में कई हमारी गली के थे तो कई कूचा ख्यालीराम, नीलावाली गली और चौ राहे के। कायस्थों की धर्मशाला का सरियों वाला गेट बंद था। तभी किसी ने कहा-‘‘अरे देवन, उधर कहां जा रहा है।’’ मैंने देखना चाहा कि मुझे किसने पुकारा था, आगे न जाने की सलाह दी थी, पर मैं बढ़ता गया। इस समय तो शायद मैं नानी की बात भी मानने वाला नहीं था।

171

मैंने देखा रशीद दूधवाले की गली में एकदम सन्नाटा था। कोई न था, न आदमी, न गाय-भैंस, न बकरियां। जिस मकान के सामने से गुजरा उसी का दरवाजा खुला मिला। रोकने वाला कोई न था। क्या रशीद, फातिमा और जूही भी...
पूरी गली में लोहे के सरिए, तार, डंडे व ईंट-पत्थरों के टुकड़े बिखरे थे। एक तरफ नाली में एक फुटबाल कूड़े में पड़ी थी। क्या यह वही थी जो उस दिन आकर मेरे सिर से टकराई थी और फिर शायद रशीद के घर में जा गिरी थी। मेरी आंखें दरवाजे के पास दीवार पर कोई निशान खोज रही थीं। हां, मुझे खूब याद था,मैंने जूही के दरवाजे के बाहर दीवार पर कोयले से गोल निशान बनाया था, पर अब तो कहीं कोई वैसा निशान नजर नहीं आ रहा था। मैं देखता हुआ गली में आखिर तक चला गया। कुछ पता न चला। सब दरवाजे चौपट पड़े थे। टाट के परदे फटकर झूल रहे थे।
मैं अंदाजे से ही एक दरवाजे में घुस गया। लगा जैसे मैं पहले भी आ चुका हूं वहां। आंगन के फर्श पर गीला गोबर बिखरा था। हौज में ऊपर तक पानी था और सामने की दीवार के साथ था कालिख भरा चूल्हा। वहां सिर्फ राख थी। तो क्या सभी चले गए, जूही भी... कहां गए होंगे ये लोग? मैं झपटकर आंगन में एक तरफ बनी कोठरी में घुसा। सब तरफ कपड़े और बर्तन बिखरे पड़े थे- शायद यह रशीद  वाला मकान न हो। मैं भागते कदमों से बाहर आया और उसके बगल वाले मकान में घुस गया। यहां भी  ईटों के गीले फर्श पर गोबर फैला था,हवा में दुर्गंध थी। हूबहू वैसा ही दृश्य! तो क्या सभी मकान रशीद के थे। क्या सभी में रहता था वह और उसके लोग। सभी एकदम गायब क्यों हो गए थे?
मेरे कदम मुझे एक कोठरी में ले गए। लगा जैसे फर्श पर कोई लेटा हो, सिर तक चादर ओढ़े हुए। काले रंग की चादर। हां,मैं ठीक जगह आ गया था। यहीं सो रही थी जूही। मैंने उसे ढूंढ़ लिया था। अब कोई मुझे रोकने वाला नहीं था। उससे बात करने के लिए किसी से डरने की जरूरत नहीं थी, किसी से पूछना भी नहीं था। उसके सिरहाने वही खिड़की थी जिससे उस दिन धूप अंदर आ रही थी। उस दिन जूही के मुंह पर गिर रही थी धूप और आज...आज...  मुझे चादर हटाकर देखना चाहिए। आखिर कोई इस तरह कैसे सोया रह सकता है।
तभी पीछे हल्की सी आहट हुई। मैंने मुड़कर देखा कोई न था। मैं फिर घूम पड़ा। आज धूप फर्श पर नहीं गिर रही थी, मैं वहीं बैठा था, एकदम पास...फिर बादल गरजे, कहीं जैसे बिजली गिरी...बूंदें पड़ने लगी थीं-वे टीन पर बज रही थीं, और मैं बैठा था वहीं।
बाहर कोई मुझे मेरे नाम से पुकार रहा था-देवन,ओ देवन- लेकिन मैं चुप रहा। चाहे कोई भी हो, अब मैं यहां से जाने वाला नहीं। मुझे उसकी नींद टूटने का इंतजार था।===

172
(आत्म कथा _ ‘अपने साथ’ ( समाप्त )
 
( अब आत्म कथा अपने साथ को एक साथ सम्पूर्ण रूप से पढ़ा जा सकता है)

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