अपने साथ—आत्म कथा—देवेन्द्र कुमार(क़िस्त: 7)
-
आत्म कथा – सात
छठी
क़िस्त – (पृष्ठ 68 से 82 तक) अब आगे पढ़ें--
मोहन कलाकार, शिल्पकार और भी न जाने क्या क्या था. हम दोनों में
दोस्ती हो गई. हम स्कूल न जाकर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन चले गए. मोहन वहाँ एक टीले
पर बैठ कर चित्र बनाया करता था. फिर मैं उसके साथ एक अनजान जगह गया जहां उसने पेड़
पर चढ़ कर पत्थर फैंके और लौट कर अपना खिलौना स्टेशन और अपने बनाए चित्र फाड़ डाले.
क्यों भला!. फिर वह मुझे अपनी माँ से मिलाने ले गया. कैसे थे मोहन और उसकी माँ?
वह चुपचाप मेरी बात सुन रही थीं।
मैं कहता रहा-‘‘रास्ते में नाले पर दो लकडि़यां रखी
हैं पार जाने के लिए। मैं तो वहीं रुक गया था। मोहन के लौटने तक वहीं बैठा रहा था।
मुझे डर लगा था नाला पार करते हुए।’’
मैंने इतना कुछ झूठ कह दिया था, पर मोहन की मां ने अब भी मुझसे कुछ
नहीं कहा था.
‘‘मोहन बता रहा था अपकी तबीयत ठीक नहीं
है। अब जी कैसा है?’’
‘‘मैं ठीक हूं। तुम्हारे मां-पिताजी कैसे
हैं?’’ उन्होंने पूछा।
मैं हड़बड़ाया सा खड़ा रह गया।
मां-पिताजी...के बारे में मैं भला क्या कह सकता था। उन दोनों के बारे में मुझे कुछ
नहीं बताना चाहिए था। दरवाजे के पास वाली खूंटी पर एक सफेद रंग की पैंट लटक रही
थी। मैं अपने को उसे देखने से रोक नहीं पा रहा था।
कमरे में हम तीन थे, पर कोई भी कुछ नहीं बोल रहा था। मेरी
आंखों में फड़फड़ाहट होने लगी थी। शायद कमरे में हवा आने का कोई रास्ता नहीं था।
कोई खिड़की नहीं थी।
‘‘जी, मैं चलता हूं। नानी राह देख रही होंगी। अच्छा नमस्ते।’’ मैंने हाथ जोड़कर कहा और भागता हुआ
कमरे से बाहर निकल आया। पीछे-पीछे मोहन के कदमों की आहट हो रही थी। पर मैं रुका
नहीं। मुंडेर फांद करके अपनी छत पर आया और धड़ाधड़ सीढि़यां उतरता हुआ नीचे आ
पहुंचा। मैं जानता था, अगर
रुका तो मोहन कुछ न कुछ जरूर पूछेगा, और तब मैं कुछ भी नहीं कह सकूंगा। वैसे अब उसे मुझसे कोई शिकायत नहीं
होनी चाहिए थी। मैंने वैसा कह दिया था, जो कुछ जैसा उसने कहा था। अब और क्या चाहिए था उसे।
83
बहुत कुछ बदल गया था, पर हरना बाबा वैसे ही थे। गली में लोग
कहते थे, अब हरना बाबा गली से चले जाएंगे, भला इतने बड़े घर में अकेले कैसे
रहेंगे। अखबार पढ़ने के शौकीन लोग परेशान थे कि अब हरना बाबा चले जाएंगे। कोई
दूसरा तो उनकी लाइब्रेरी चलाने से रहा। और यह सच भी था। लाइब्रेरी में जितने अखबार
आते थे, उनमें से एक अखबार को छोड़कर बाकी सब
अखबारों के पैसे हरना बाबा अपनी जेब से देते थे। फ्री आने वाला अखबार था ‘हिन्दुस्तान’। उस अखबार में काम करने वाले हरना
बाबा के ठीक सामने वाले मकान में रहते थे। मैं कभी-कभी सोचा करता था आखिर हरना
बाबा को इस काम से मिलता क्या है। सुबह चबूतरे को साफ करके उस पर अखबार रखना और
बीच-बीच में इधर-उधर फैले अखबारों को ढंग से समेटकर रखते रहना। सुबह छह बजे से
दोपहर ग्यारह बजे तक गली में आते-जाते लोग अखबार पढ़ते रहते थे। वे जोर-जोर से
बातें करते थे, पर हरना बाबा चुपचाप अपना काम करते
रहते थे। मैंने उन्हें किसी से कुछ बोलते नहीं देखा था। वह कभी-कभी बात करते थे तो
गली के चौधरी कहे जाने वाले लट्टू बौने से। लोग उन्हें लट्टू चौधरी कहते थे।
लट्टू बौने को देखते ही हंसी आती थी।
उनका कद बहुत छोटा था। लट्टू उनका नाम था और बौना उनके छोटे कद को देखते हुए साथ
में जुड़ गया था। मैं सोचा करता था, भला कोई बौना आदमी एक गली का चौधरी कैसे हो सकता था। वह हर समय अपने
घर के बाहर चबूतरे पर बैठे रहते थे और आने-जाने वाले उन्हें नमस्कार करते थे। उनके
पास एक डंडा रखा रहता था। जब वह गुस्से मे होते तो डंडे को जोर-जोर से जमीन पर
पटकते। गली में कोई भी समारोह लट्टू बौने के बिना पूरा नहीं होता था। शादी-ब्याह, गली में तालेश्वर पंडित की कथा, या फिर साल में एक बार आकर गली में
नाटक दिखाने वाली कलराज किशन--पुरिए की नाटक मंडली।
तालेश्वर तो कमाल के थे। उनके दोनों
पैर पोलियो से खराब थे। लाठी के सहारे चलते थे और उन्हें अजब ढंग से चलते देखकर
लोग हंस पड़ते थे। लेकिन जब वह हारमोनियम संभालकर तान छेड़ते थे तो पूरी गली झूम
जाती थी। जादू था उनके गले में। तालेश्वर को न जाने कितनी कथाएं याद थीं। सुनकर
मैं तो हैरान रह जाता था।
मैं सुबह गली में निकला तो देखा लोग
रोज की तरह चबूतरे पर बैठकर अखबार पढ़ रहे हैं। हरना बाबा फैले अखबारों को संभालकर
रख रहे थे। मैं उनके पास जा खड़ा हुआ। चबूतरे से नीचे गिरा अखबार का पन्ना उठाकर
अखबार में सही जगह पर रख दिया। यह देखकर हरना बाबा धीरे से हंस पड़े। बोले-‘‘तू अपना काम नहीं करता अब।’’
84
‘‘ऐसी तो कोई बात नहीं है।’’ मैं उनका इशारा समझ गया था। पर बात
उन्होंने सही कही थी। मुन्नू का फोटो मिलने वाली घटना पुरानी हो गई थी। उसके बाद
तो मैं आगरा हो आया था। फिर उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई थी। उस दिन के बाद मैं
अखबार वाली कोठरी में गया ही न था। मैंने मन ही मन सोच लिया कि लाइब्रेरी के काम
में हरना बाबा की मदद करूंगा।
तभी लट्टू बौने की आवाज सुनाई दी-‘‘इस बार कुछ नहीं होगा। न तालेश्वर
पंडित की कथा, न कलराज की नाटक मंडली आएगी।’’
मैंने देखा लट्टू चौधरी जोर-जोर से बोल
रहे थे, और रह-रहकर अपने हाथ का डंडा जमीन पर
पटक रहे थे।
‘‘क्यों?’’ हरना बाबा ने पूछा था।
‘‘क्योंकि इस बार चौधरी को तीर्थ करने
जाना है। वह नहीं होंगे तो पूजन कौन कराएगा?’’ लट्टू चौधरी के पास खड़े एक आदमी ने कहा।
‘‘तो सारी गली के लोग उनके साथ तीर्थ
करने जा रहे हैं?’’
हरना
बाबा ने गुस्से से पूछा था।
उनकी बात का किसी ने जवाब नहीं दिया।
मैं हरना बाबा का मुंह देखता रह गया था।
गुस्से में उनका चेहरा तमतमा रहा था।
‘‘हरना, मैं तेरी लाइब्रेरी बंद करा दूंगा। सारे दिन भीड़ लगी रहती है। मुझे
फालतू की बातें पसंद नहीं।’’ लट्टू चौधरी खड़े होकर डंडा पटकने लगे थे।
‘‘हरना किसी से नहीं डरता, और लाइब्रेरी मेरी नहीं गली की है। अगर
सब गली वाले चाहेंगे तो बंद हो जाएगी।’’ हरना बाबा लंबे डीलडौल के थे। इस समय तनकर खड़े
हुए तो उनका कद और भी ऊंचा लगने लगा था।
‘‘तुम मकान खाली कर दो।’’ लट्टू चौधरी ने कहा था। हरना बाबा
लट्टू चौधरी के मकान में किराएदार थे।
‘‘मैंने कहा न हरना किसी की धौंस में
नहीं रहता। मैं तो खुद ही यहां से चला जाना चाहता हूं। पर मुझसे जबरदस्ती कोई कुछ
नहीं करा सकता।’’
‘‘मैं देख लूंगा।’’
85
‘‘मैं दिखा दूंगा।’’ हरना बाबा का जवाब था। मैं खुश था कि
हरना बाबा इतने मजबूत हैं। पर यह बात बुरी लग रही थी कि गली में कोई भी कुछ नहीं
बोल रहा था। और रोज अखबार पढ़ने वाले लोग भी खामोश थे। कुछ इस तरह जैसे उन्हें तो
बस अखबार पढ़ने से मतलब है। मेरा मन हुआ उछलकर चबूतरे पर चढ़ जाऊं और लट्टू चौधरी
की लाठी छीनकर फेंक दूं, फिर
चाहे जो हो। मेरी बात जैसे हरना बाबा के मन में पहुंच गई थी क्योंकि वह एक हाथ से
मेरा कंधा थपकने लगे थे। मैंने हरना बाबा
की ओर देखा।
‘लाइब्रेरी तेरी है।’’ हरना बाबा ने कहा और हंस दिए।
यह सुनते ही मेरा सिर तन गया। ‘‘मेरी लायब्रेरी ...’’ मेरे होंठों से निकला। तभी आवाज आईं-‘देवन’...
मैंने घूमकर देखा मोहन सामने खड़ा था।
मैं बोलने को हुआ,
पर
देखा साथ में उसकी मां भी है। दोनों मुस्करा रहे थे। मोहन ने नए कपड़े पहन रखे थे।
उसकी मां के बदन पर लाल रंग की साड़ी थी। माथे पर चौड़ी बिंदी थी। लेकिन उस दिन तो
वह बहुत बीमार लग रही थीं। रह-रहकर खांस भी रही थीं। कितना अंधेरा था उनके घर में।
मोहन की मां ने मेरे सिर पर हाथ रखा और आगे बढ़ गईं। शायद दोनों कहीं जा रहे थे।
उनसे थोड़ा आगे एक आदमी जा रहा था, यही था जिसके साथ वे दोनों जा रहे थे।
मैं कुछ पूछने को हुआ, फिर चुप लगा गया। इस समय कुछ भी पूछना
ठीक नहीं रहेगा। आगे अनजान आदमी और पीछे मोहन की मां और सबसे पीछे मोहन। फिर वह
मेरे पास दौड़ा आया। मेरा हाथ थाम कर बोला- ‘‘मैं और तुम कल मिलेंगे। सब बताऊंगा, अभी जल्दी है।’’ और फिर मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना तेजी से भाग गया। मैं देखता
रह गया।
अगर मेरे पिताजी होते तो शायद मैं और
मां भी इसी तरह उनके साथ जाया करते। मोहन के घर में खूंटी से जो पैंट लटक रही थी
वह शायद मोहन और उसकी मां से आगे-आगे जाने वाले आदमी की ही होगी। वे तीनों कब के
आंखों से दूर चले गए, पर
मैं खड़ा-खड़ा उधर ही देखता रहा। बार-बार एक तस्वीर आंखों के सामने कौंध जाती
थी-मोहन का पेड़ पर चढ़कर मकान के अंदर पत्थर फेंकना और फिर हम दोनों का वहां से
भागना। आखिर वह कौन था जिस पर उसने पत्थर फेंके थे। क्या इस बात को मैं कभी जान
सकूंगा। शायद कभी नहीं। मैं पूछूंगा भी नहीं, और वह कभी बताएगा नहीं। कल कितना परेशान था और आज कैसे खुश-खुश जा रहा है ।
86
अगले दिन मोहन मिला। बोला-‘‘आओ चलो। आज मैं पूरे दिन चित्र
बनाऊंगा। तुमने कहा था न कि तुम मुझे चित्र बनाते हुए देखना चाहते हो। मैंने जितने
चित्र फाड़ डाले थे, उतने
तो बनाऊंगा ही।’’
‘‘लेकिन मैं नहीं जाना चाहता। मेरा मन
नहीं है।’’
‘‘देखो, तुम स्कूल तो जाओगे नहीं। कहीं और जाओ, इससे तो अच्छा है मेरे ही साथ चलो।’’
‘‘नहीं।’’ मैंने कहा।
‘‘मैं तुम्हारा गुस्सा समझ रहा हूं, पर क्या करूं, मां ने कसम दिला दी है कि उस बारे में
किसी से कुछ न कहूं, इसलिए...वैसे
मेरा मन है, तुम्हें एक-एक बात बता दूं।’’
‘‘कल तो खूब मजे किए होंगे।’’
‘‘हां, वही सब तो बताना है तुम्हें।’’
‘‘लेकिन तुम्हारी मां ने कसम जो दिला दी है।’’
‘‘अरे,
हर
बात के लिए नहीं,
बस
उस शाम वाली बात के लिए मना किया है जब हम 3/6 की तरफ गए थे।’’
न जाने क्यों मेरा गुस्सा जाता रहा।
कुछ देर बाद एक बार फिर हम नई दिल्ली
स्टेशन के मंदिर वाले टीले पर बैठे थे। आज भी मंदिर में दीपक जल रहा था, बाहर घास पर कुछ फूल बिखरे हुए थे। घास
पर बैठने से पहले मैंने वहां पड़े गोल पत्थर उठाए और पोखर में फेंक दिए जो गड्ढे
में बरसाती पानी के भर जाने से बन गया था।
मंदिर के अंदर एक तरफ रखे रंग और ब्रश
निकाल कर मोहन चित्र बनाने में जुट गया। मैं तो बस देखता हुआ बैठा था। ‘‘तुम तो बताने वाले थे न तुमने कल कितने
मजे किए?’’ मैंने पूछा। ‘‘क्या तुम्हारी मां ने यह सब बताने को
भी मना किया है।’’
मोहन ने चित्र बनाना रोक दिया। घास पर
कमर के बल लेट गया। बोला-‘‘आज तो मैं बहुत खुश हूं।’’
‘‘और तुम्हारी मां।’’
‘‘जब मां हंसती है तभी तो खुश होता हूं
मैं। कल न जाने कितने दिनों बाद मैंने हंसते हुए देखा था मां को। खूब ही तो हंसी
थी मां।’’ कहता हुआ वह खिलखिलाने लगा।
87
‘‘हां, यह तो मैंने देखा था, उनकी लाल साड़ी।अब उनकी खांसी कैसी है?’’
‘‘मां जैसे खांसना ही भूल गई है। कल हम
इतना घूमे कि क्या बताऊं। उन्होंने झूले में बैठने को कहा। मैंने मना कर दिया पर
मुझे भी बैठा लिया...’’ कहता
हुआ मोहन उठ बैठा और जैसे कोई भूली बात याद आ जाए, फिर से चित्र बनाने में जुट गया। मैं चुपचाप बैठा देख रहा था। शोर था
तो बस टीले के दोनों तरफ से आती-जाती
गाडि़यों का, मंदिर के ऊपर बार-बार आ बैठने और फिर फुर्र से उड़ जाने वाली
चिडि़यों के पंखों का। मुझे लग रहा था मोहन आज दिन ढलने के बाद भी चित्र बनाता
रहेगा।
लेकिन ऐसा नहीं हो सका। एक लड़का
दौड़ता हुआ टीले पर चढ़ा। वह दूसरी ओर मुंह करके चिल्लाया, ‘‘वही हैं।’’
‘‘कौन वही हैं?’’ मैंने पूछा। मोहन अपने काम में मगन था।
उस लड़के के पीछे-पीछे दो सिपाही डंडे हिलाते आ पहुंचे। मैं कुछ डर गया। क्या वह
लड़का सिपाहियों को बुलाकर लाया था।
‘‘ऐ...क्या हो रहा है?’’ एक सिपाही ने पूछा।
‘‘कुछ तो नहीं...’’ मैंने कह दिया।
‘‘जबान लड़ाता है, अभी सीधा कर दूंगा।’’
मैंने मदद के लिए मोहन की ओर देखा। वह
चित्र बनाना बंद करके बारी-बारी से सिपाहियों की ओर देख रहा था।
‘‘यह क्या है?’’ कहते हुए सिपाही ने मोहन के हाथ से
चित्र झपट लिया।
‘‘यह क्या।’’
‘‘चलो सीधी तरह से बताओ, यहां तुम दोनों क्या कर रहे थे। गंदा
काम...’’
‘‘गंदा काम...?’’
‘‘तुम्हारे जैसे छोकरे और कर भी क्या
सकते हैं?’’
‘‘यहां क्यों आते हो, कब से आते हो? कहां-कहां हाथ मारा?’’
‘‘जी, हम तो...’’ मोहन
ने कहना चाहा। पर बात अधूरी रह गई। सिपाही ने धक्का दिया तो वह एक तरफ लुढ़क गया।
‘‘चलो थाने... वहीं बात करूंगा तुमसे...’’ सिपाही ने मेरा हाथ खींचते हुए कहा।
88
मुझे रोना आ गया। ऐसा तो कभी नहीं हुआ
था मेरे साथ। कलेजा धड़कने लगा। क्या ये लोग हम दोनों को थाने ले जाएंगे। भला नानी
को कैसे पता चलेगा कि मैं थाने में हूं। कौन बताएगा उन्हें, कौन छुड़ाएगा मुझे।
मोहन ने ज्यादा हिम्मत दिखाई। बोला-‘‘हम दोनों दोस्त हैं। मैं चित्र बनाता
हूं।’’ और उसने अपने बनाए चित्र सिपाही के
सामने फैला दिए। दोनों अपने डंडों पर झुक कर मोहन के बनाए चित्र देखने लगे।
मेरा दिल अब भी तेज-तेज धड़क रहा था।
‘‘तू क्या जानता है?’’ एक सिपाही ने मुझसे पूछा था।
मैं चुप रहा। भला मैं मोहन की तरह कैसे
कह सकता था।
‘‘अरे तुम्हारे घर में कौन-कौन है?’’
‘‘मां...’’ मोहन ने कहा।
‘‘और तेरे घर में?’’ यह सवाल मुझसे पूछा गया था।
‘‘नानी...’’
‘‘तेरी कितनी बहनें हैं?’’ सिपाही मोहन से पूछ रहा था।
‘‘बस मां और मैं...बहन नहीं।’’
‘‘और तू...तेरे घर में...?’’
क्या मैं बता सकता था कि हमारे घर में
कई लड़कियां थीं।
‘‘कोई नहीं...’’
दोनों जोर से हंसे। पता नहीं अब और
क्या पूछेंगे। मैं पछता रहा था कि मोहन के साथ क्यों आया।
‘‘तेरे पास कागज और रंग है?’’ सिपाही ने मोहन से पूछा।
‘‘हां।’’
‘‘तो एक तस्वीर हम दोनों की बना।’’
‘‘आप दोनों की तस्वीर...’’
‘‘हां, क्यों...घर नहीं जाना है क्या...’’
89
‘‘जाना है।’’ मैंने धीरे से कहा।
‘‘चुप स्साले...तू नहीं जाएगा। तुझे तो
तस्वीर बनानी भी नहीं आती। तेरे घर में बहन भी नहीं...।’’ मुझे पहली बार पता चला कि मोहन और
मुझमें क्या अंतर था। वह सिपाही की तस्वीर बना सकता था और मैं सिपाहियों की नजर
में एकदम बेकार था।
दोनों सिपाही तन कर बैठ गए-हाथों में
डंडे पकड़े हुए। उन दोनों को वहां तक लाने वाला छोकरा न जाने कहां चला गया था।
मोहन कागज और ब्रश ले कर बैठ गया। वह सचमुच उन दोनों सिपाहियों की तस्वीर बनाने
में जुट गया था।
एक सिपाही ने जूते उतारकर मेरी तरफ
उछाल दिए। ‘‘तेरा यार जब तक तस्वीर बनाता है, जूते चमका दे। अगर ठीक से नहीं चमके तो
इसी डंडे से तेरी कमर पर लकीरें खींच दूंगा।’’
मैं सन्न बैठा था। दोनों सिपाहियों के
जूते मेरे सामने पड़े थे। धूल और कीचड़ में सने हुए। मैंने सिपाही का जूता उठाया
तो हाथ कांप गया। मेरे पास ब्रश और जूते की पालिश थी नहीं...। याद आया मेरी नेकर
की जेब में रूमाल था। मैंने रूमाल निकाल कर जूते को पोंछ दिया। आंख से आंसू निकलते
जा रहे थे। लेकिन कोई आंसू पोंछने वाला नहीं था। पता नहीं मैं कितनी देर तक जूते
को रूमाल से रगड़ता रहा। एकाएक सिपाही चिल्लाया-‘‘अबे एक ही जूते के पीछे पड़ा रहेगा...’’ जूता मेरे हाथ से छूट गया। मैं सुबक-सुबक कर
रोने लगा।
मोहन ने दोनों सिपाहियों का चित्र बना
दिया था। जूते चमकाने के बाद रूमाल काला हो कर एक तरफ पड़ा था। मोहन खड़ा हुआ तो
मैं भी उठा। दोनों सिपाही जूते पहन चुके थे और अब ध्यान से मोहन का बनाया चित्र
देख रहे थे।
‘‘आज के बाद यहां दिखाई दिए तो
हड्डी-पसली एक कर दूंगा। जाओ भागो।’’ कहते हुए दोनों डंडे हिलाते हुए मंदिर वाले टीले से नीचे उतर गए।
सूरज डूब रहा था, हवा तेज हो गई थी। परिंदों का शोर
कानों में चुभ रहा था। टीले के दोनों तरफ से रेलगाडि़यां गुजर रही थीं। मोहन और
मैं दूर-दूर खड़े थे जैसे हम एक दूसरे को बिल्कुल न जानते हों। मुझे मोहन पर
गुस्सा आ रहा था। मुझे इस तरह की उल्टी-सीधी बातें कभी किसी ने नहीं कही थीं। अगर
मैं मोहन के साथ यहां न आता तो ऐसा अपमान कभी न झेलता।
90
‘‘आज के बाद से यहां आना बंद।’’ मोहन जैसे अपने आप से कह रहा था, पर मैं उसकी बात को बखूबी सुन रहा था।
हम दोनों साथ-साथ चल रहे थे, पर इस तरह जैसे एक दूसरे को बिल्कुल न जानते हों। उसके साथ चलते हुए
मैं खुद को बहुत छोटा महसूस कर रहा था। क्या ऐसा कोई भी काम नहीं था जो मैं कर
सकूं। दिमाग चक्कर खा रहा था।
मैंने फैसला कर लिया था अब मोहन से कभी
नहीं मिलूंगा। आखिर क्यों मिलूं उससे? उसी के कारण मुझे रेलवे स्टेशन पर पुलिस वालों से इस तरह अपमान सहना
पड़ा था। यों वह मुझे अपना सबसे बड़ा दोस्त बताता था, लेकिन अपनी हर बात किस तरह छिपाता था।
मैं जितना सोचता,
मोहन
पर मेरा गुस्सा बढ़ता जाता, बीच-बीच में यह भी मन में आता कि इस तरह उससे एकदम न मिलना भी ठीक
नहीं। पर वह आदमी कौन था जिसके साथ दोनों मां-बेटा जा रहे थे। क्या पद्म नगर में
उसी के घर पर पत्थर फेंके थे मोहन ने लेकिन फिर...
हां-ना के चक्कर में उलझा हुआ मैं कई
बार तिमंजिले के चक्कर काट आया था। उसके और हमारे मकान के बीच बस एक मुंडेर थी।
मैंने मुंडेर पर से झांक कर देखा तो मकडि़यों की चेतावनी देने वाला परदा चुप लटकता
नजर आया। मन हुआ एक बार परदा हटा कर झांक लू... लेकिन फिर रुक गया।
शाम ढल गई थी। घर में मेहमान आए हुए
थे। नानी व पड़नानी उनसे बातें करने में लगी थीं। मैं एक बार फिर सबसे ऊपर वाली छत
पर जा पहुंचा। नीले से काले होते आकाश में पतंगें और परिंदे उड़ रहे थे। सामने
वाले मकान के पीछे से पीपल का ऊपरी हिस्सा दिखाई दे रहा था। उसके पत्ते खड़खड़ा
रहे थे। वहां से परिंदों की आवाजें उभर रही थीं। मैंने मुंडेर से दूसरी तरफ झांका
तो चौंक पड़ा। मोहन नगर वाला परदा हटा हुआ था और मोहन एक तरफ खामोश बैठा था, सिर नीचा किए कुछ सोचता हुआ। मैंने
देखा और पीछे हट आया। न मैंने आवाज दी, न उसने गरदन उठाईं। मैं पीछे हटकर खड़ा हो गया। तभी मुंडेर के पीछे
से उसका सिर दिखाई दिया।
‘‘देवन!’’
उसकी आवाज सुन कर मैंने गरदन घुमा ली
और दूसरी तरफ देखने लगा। वहां लाल-लाल धूप मुडेरों पर दिखाई दे रही थी।
91
‘‘देवन, क्या इतना नाराज है कि बुलाने पर भी नहीं आएगा? फिर तो मैं चला ही जाऊंगा।’’
अब यों अनजान बने रहने का नाटक नहीं हो
सका। मैंने झट पलट कर उसकी तरफ देखा-‘‘क्या है?’’
‘‘हम जा रहे हैं।’’
‘‘तो फिर मैं क्या करूं?’’
‘‘मैं फिर कभी नहीं आऊंगा।’’
मैं बढ़कर मुंडेर के पास चला गया।
मैंने देखा, वह उदास था। बार-बार आंखें झपका रहा था।
वहां पानी सा झलक रहा था। भला वह रो क्यों रहा था। उस दिन तो अपनी मां के साथ एक
आदमी के पीछे-पीछे कैसे खुश- खुश जा रहा
था।
‘‘क्या इधर आकर मेरी बात भी नहीं सुन
सकता। मैंने कहा न, हम
जा रहे हैं।’’
‘‘कहां जा रहे हो?’’
‘‘पता नहीं।’’ उसने कहा और सिर झुका लिया। अब मुझसे
रुका नहीं गया। मैं एक छलांग में मुंडेर पार करके मोहन के पास जा खड़ा हुआ। मैंने
उसकी कलाई थाम ली-‘‘बता, क्या बात है?’’
हाथ पकड़ते ही वह जैसे फट पड़ा। उसके
होंठ कांपने लगे बोला-‘‘मां
ने कसम उठाई है कि इस घर में पैर नहीं रखेगी और सच, वह आज सुबह ही यहां से चली गई है।’’
‘‘कहां चली गई हैं?’’
मंदिर में बैठी हैं। कहा है, साथ चलना हो तो वहीं आ जाऊं। अब बता
मैं क्या करूं?’’
‘‘लेकिन ऐसा क्या...’’ इतना कहकर ही मैं रुक गया। मोहन ने अब
तक मुझे कुछ भी नहीं बताया था। तब मैं भला क्यों पूछूं।
मेरी नजर कोने में बने मोहन नगर स्टेशन
पर टिक गई। दूसरी तरफ बिरला मंदिर, कुतुब मीनार, जंतर-मंतर के तीलियों से बने माडल रखे थे।
मोहन बोलता जा रहा था। ‘‘कल रात से मां की तबीयत खराब है। खांस
रही हैं। रात को सोई भी नहीं। मैंने जाने से मना किया तो मुझे खूब मारा।’’
‘‘तो चला जा मां के साथ?’’
92
‘‘कहां चला जाऊं? पता है, उनके पास एक भी पैसा नहीं है। मैं कल दवाई लाने गया था पर डाक्टर ने
पैसे मांगे। पहले के भी बाकी हैं।’’
मुझे भरोसा नहीं हो रहा था कि मोहन सच
बोल रहा है। भला कहीं ऐसा भी होता है कि घर में दवा लाने के लिए भी पैसे न हों।
मुझे याद आया कि पड़नानी मुझे बार-बार कलावती के घर पैसे मांगने के लिए भेजा करती
थीं। शायद तब हमारे घर में भी इसी तरह पैसे न रहते होंगे।
मुझे पता ही न चला कि कब मोहन मुझे
खींचता हुआ सीढि़यों से नीचे अपने एक कमरे वाले घर में ले गया। आज भी उस दिन की
तरह कमरे में अंधेरा था। कमरे में घुसते ही पैर पानी में भीग गए। कहीं नल से पानी
बहने की आवाज आ रही थी। फर्श पर कपड़े और बरतन पड़े थे पानी में भीगे हुए। उन्हीं
के बीच एक सफेद पैंट पड़ी दिखाई दी। पानी भरने से फूली-फूली लग रही थी। उस दिन
पलंग पर मोहन की मां बैठी थीं। आज उस पर न जाने क्या-क्या सामान बिखरा था।
मैंने बढ़ कर नल बंद कर दिया। मोहन
कहता जा रहा था-‘‘रात को मां बहुत गुस्से में थीं। यह सब
सामान उन्होंने ही इधर-उधर फेंका है। बीच-बीच में कहती जा रही थीं-‘‘मुझे यहां नहीं रहना। हां, नहीं रहना।’’
‘‘लेकिन क्यों?’’ रोकते-रोकते भी यह बात मेरे मुंह से
निकल गई।
मोहन जोर से पड़ा। ‘‘क्या बताऊं। मैं तो इतना जानता हूं, अगर मै मंदिर पर नहीं पहुंचा तो मां
अपने आप वहां से न जाने कहां चली जाएंगी।’’
‘‘तेरे बिना ही...?’’
‘‘हां, एकदम...’’
‘‘और तू कह रहा है उनके पास एक भी पैसा
नहीं है।’’
‘‘हां, सचमुच नहीं है। मैं झूठ नहीं कह रहा हूं।’’
तो वह कैसे जाएंगी और कहां?’’
‘‘कहीं भी...कुछ पता नहीं। बहुत जिद्दी
है मेरी मां। वह तो पैदल ही चल देगी और फिर रुकेगी भी नहीं...।’’
93
मैं सोचता हुआ खड़ा था। आखिर मैं क्या
कर सकता था। उस दिन तो दोनों जने खूब खुश लग रहे थे उस आदमी के पीछे जाते हुए। पता
नहीं कौन था। ऊंह! कोई भी हो सकता था। उसका पिता या कौन... लेकिन इतने दिनों की
दोस्ती के बाद भी मोहन ने कभी पिता के बारे में कुछ नहीं कहा था। उस दिन गली में
एक आदमी के पीछे जाते हुए मोहन और उसकी मां की तस्वीर बार-बार आंखों में फिरने
लगीं। तब दोनों कितने खुश थे। फिर क्या हो गया?
पानी में भीग रही चप्पलों के साथ वहां
खड़े रहना मुझे परेशान करने लगा। कमरे की हालत देखकर समझा जा सकता था कि मोहन की
मां बहुत गुस्से वाली हैं। कमरे में सारा सामान फेंक कर कैसे एकदम चली गई थीं।
शायद नल भी उन्होंने ही खुला छोड़ दिया होगा। शायद सोच रही होंगी कि सब कुछ डूब
जाए तो अच्छा हो।
मैं सीढि़यां चढ़कर छत पर आ गया।
पीछे-पीछे मोहन भी था। हम फिर वहीं आ खड़े हुए। उसका बनाया मोहन नगर रेलवे स्टेशन
का माडल और तीलियों के बने कुतुबमीनार तथा बिरला मंदिर। वह एकटक अपनी बनाई चीजों
को देख रहा था। एकाएक उसने कहा-‘‘तू क्या समझता है, क्या मेरी बनाई चीजों के कुछ पैसे मिल सकते हैं?’’
‘‘क्या मतलब?’’
‘‘मेरे बनाए चित्र और ये माडल?’’ उसने सामने रखे माडलों की ओर संकेत
किया। मैं चुप रहा।
‘‘हमारी गली में एक कबाड़ी आता है। वह
पुरानी चीजें खरीदता है। मैं उसे ऊपर बुलाकर लाया था। मैंने उससे खरीदने को कहा तो
वह हंस दिया। उसने कहा कि इन सारी चीजों के दो रुपए दे सकता है। वह इन माडलों को
अपने बेटे को दे देगा। तुम बताओ क्या मेरी बनाई चीजों की कोई कीमत नहीं है? देखने वाले तो मेरे चित्रों और माडलों
की बहुत तारीफ करते हैं।’’ मोहन ने कहा।
‘‘क्या तुम्हें जाना नहीं है? तुम्हारी मां?’’ मैंने जैसे उसे याद दिलाया।
मोहन ने मेरी बात का कोई जवाब नहीं
दिया। बोला-‘‘क्या तू मुझे कुछ रुपए दे सकता है।’’
‘‘रुपए...रुपए...मेरे पास कहां? मैं क्या नौकरी करता हूं। नानी के पास
हों तो हों। वैसे पैसे तो उनके पास भी नहीं होंगे।’’ मैंने कह दिया।
‘‘मैं चाहता हूं, कुछ रुपए साथ में रखूं। मान लो मां की
तबीयत खराब हो जाए। हमें भूख लगने लगे। रात को कहीं रुकना पड़े तब...?’’
94
‘‘वैसे तुम जा कहां जा रहे हो?’’ मैंने पूछा।
‘‘कहा न, कुछ पता नहीं। मधुपुर गांव में हमारे एक मामाजी रहते हैं। मां ने एक
बार उनका नाम लिया था। शायद वहीं जाना पड़े।’’
‘‘मधुपुर...कहां है मधुपुर...’’ मैंने पूछा।
मोहन ने कंधे उचका दिए। फिर मेरा हाथ
थाम कर धीरे से बोला-‘‘मैं
जानता हूं तेरी नानी के पास पैसे जरूर होंगे। अरे, तुम तीन मंजिल के मकान में रहते हो। तू चाहे तो मेरी मदद कर सकता है।
कुछ पैसे दे दे...।’’
‘‘लेकिन...’’ मैंने हाथ छुड़ाते हुए कहना चाहा।
‘‘मैं अपने बनाए चित्र, ये सारे माडल तुझे दे दूंगा। एक दिन तू
भी इनकी तारीफ कर रहा था। फिर कभी वापस भी नहीं मांगूंगा।’’
मैंने ध्यान से मोहन की तरफ देखा-वह
अपने बनाए माडलों की ओर देखता हुआ बोल रहा था।
‘‘लेकिन ये तो सब तेरे बनाए हुए हैं, तू इन्हें कैसे दे सकता है किसी दूसरे
को?’’
‘‘मैं तो इन्हें कबाड़ी के हाथों बेचने
को भी तैयार था,
पर
उसने बहुत कम दाम लगाए। मेरी मदद कर दे दोस्त।’’ उसकी आंखें मेरी आंखों में धंसी जा रही थीं। वह
भीख मांग रहा था। मैं सोच रहा था। मुझे एक जगह मालूम थी, जहां नानी पैसे रखा करती थीं। इसका
मतलब, उनके पास पैसे तो हैं पर मांगने पर वह
कभी नहीं देंगी।
‘‘क्या तू सारे माडल, अपने बनाए सारे चित्र मुझे दे देगा? क्या सच कह रहा है।’’ मैंने पूछा।
‘‘हां, दे दूंगा। इस समय मुझे पैसे चाहिएं । मैं जानता हूं तू मेरी मदद कर
सकता है।’’
‘‘और फिर कभी वापस भी नहीं मांगेगा।’’ मैं अपनी तसल्ली कर लेना चाहता था।
‘‘हां, कभी नहीं... मैं और चित्र बना लूंगा।’’ मोहन ने कहा।
मेरा दिमाग तेजी से सोच रहा था। मैंने
कहा-‘‘मैं कोशिश कर सकता हूं, तू यहीं ठहर।’’
‘‘मेरे दोस्त, तू कितना अच्छा है।’’ मोहन ने मेरा हाथ पकड़कर जोर से दबाया।
मैं उसकी छत से उतरकर तुरंत घर में चला
आया। अभी घर में कई मेहमान मौजूद थे। नानी उनसे बातों में मगन थीं। उन्होंने मेरे
आने पर ध्यान नहीं दिया। मैं सोच रहा था-‘‘क्या मांगने पर नानी कुछ रुपए दे देंगी। कितने रुपए...दस...बीस...और
फिर लगा कभी नहीं देंगी। न जाने क्या-क्या पूछेंगी।’’ ऊंहूं! कोई और रास्ता ढूंढ़ना होगा। वैसे अगर
मैं उनके रखे रुपयों में से कुछ निकाल भी लूं तो भला उन्हें क्या पता चलने वाला था। अंदर के कोठे में भगवान
की तस्वीर के पीछे, दीवार
में एक छोटी सी अलमारी थी। उस पर खिसकने वाले पल्ले लगे थे। कोई ताला नहीं था।
95
मैं धड़धड़ाते दिल से भगवान की तस्वीर के
पास जा खड़ा हुआ,
इधर-उधर
देखा-- वहां अंधेरा था। बाहर से नानी की बातें करने की आवाज आ रही थी। मैंने
तस्वीर के पीछे हाथ डालकर गुप्त अलमारी का पल्ला खिसकाया तो वह खिसक गया। अंदर हाथ
डाला पर पकड़ में कुछ न आया। मेरा जी धक् से रह गया। ‘तो क्या नानी की गुप्त गुल्लक में कुछ
नहीं था। मुझे यूं ही वहम था कि नानी के पास पैसे जरूर होंगे। तभी एक थैली पर हाथ
पड़ा। मैंने झट थैली बाहर खींच ली। वह लाल रंग की डोरी से बंधी हुई थी। छूने से
पता चल रहा था कि उसमें कुछ सिक्के और नोट हैं। मैंने बिना गिने ही कुछ नोट निकाल
लिए। नोट मुड़े हुए थे। अब गिनने का समय नहीं था। कई नोट जेब में ठूंस लिए। फिर
थैली को कपाट में रखा और पल्ले को खिसकाकर बंद कर दिया।
मैं झिझकते कदमों से बाहर आया तो नानी
अब भी मेहमानों के साथ बातों में थीं। मैं कदम दबाता हुआ सीढि़यों से ऊपर जा
पहुंचा। मैंने देखा मोहन छत पर इधर से उधर टहल रहा था। उसकी नजरें हमारी छत पर
थीं। मुझे देखते ही उसके कदम रुक गए। बोला-‘‘लाए।’’
मैंने जेब से निकालकर नोट उसे थमा
दिये। कहा-‘‘तुम्हारे कारण मुझे आज नानी की चोरी
करनी पड़ी है।’’
‘‘दोस्त, यह बात मैं कभी नहीं भूलूंगा।’’ मोहन ने कहा। मैंने महसूस किया, वह नोटों को गिनना चाहता था। मैंने
कहा-‘‘रख लो, जितने हैं यही हैं।’’
‘‘मेरे बनाए चित्र और ये सारे माडल अब तुम्हारे हैं।’’ मोहन ने कहा।
‘‘और तुम इन्हें कभी वापस नहीं मांगोगे।“
‘‘हां। यह बात तो मैंने पहले ही कह दी
थी।’’ मोहन ने कहा, और नीचे उतरने के लिए जीने की तरफ
बढ़ा।
‘‘यह क्या! तुम्हारे बनाए चित्र और ये माडल, और मोहन नगर स्टेशन...क्या यहीं
तुम्हारी छत पर रहेंगे?
मोहन के कदम रुक गए-‘‘मुझे जल्दी है दोस्त। तुम इन चित्रों
तथा बाकी सामान को अपनी छत पर ले जा सकते हो।’’
‘‘नहीं...’’ मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। ‘‘यह बात गलत है। तुम इन माडलों को मोहन
नगर स्टेशन समेत मेरी छत पर पहुंचाओ, नहीं तो मेरे दिए पैसे वापस कर दो।’’ मैंने कहा।
96
(
क़िस्त 7 समाप्त ) आगे और है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें